Saturday, November 7, 2009

आत्म-प्रसंशा /Self Appreciation

प्राप्ति ....कमेंट्स की!

पीठ खुजाने में दिक्कत है? 
आओ! एसा कर लेते है...
मैं खुजलादूं आपकी...
बदले में , मेरी ;
तुम खुजला देना.


एक हाथ से मैंने दी तो,
दूजे से तुम लौटा देना.


कर से,  कर [tax] ही की भाँति
अधिक दिया तो वापस [refund] लेना.


-मंसूर अली हाशमी

Tuesday, November 3, 2009

Karnataka/scam/terror


कर- नाटक !


# अब दल का खुला है फाटक,
  ''कर'' लो जो भी हो ''नाटक''.
  'येदू' जो  कभी  ''रब्बा'' थे,
  अब क्यों लगते है  जातक.

# धन ढूंढ़ता राजा को पहले,
  अब ''राजा'' को धन की चाहत,
  पैकेज बने तो सत्ता में, 
  बैठो को मिलती है राहत.

# आतंक तलवार दो-धारी,
   दुश्मन से कैसी यारी,
  अब कर ली है तैयारी,
  माता हम तुझ पे वारी 

-मंसूर अली हाशमी 

Monday, October 12, 2009

This Year

समझौता

वातावरण में शोर न पैदा करेंगे हम,
दिल के दीये जला के उजाला करेंगे हम.

फोड़ा पटाखा,फहरा पताका है चाँद पर,
दीपावली वही पे मनाया करेंगे हम.

कुर्बानियां तो ईद की करते है बार-बार,
खुद को भी अपने देश पे कुर्बां करेंगे हम.

पटरी से रेल उतर गई, इंजन बदल गया,
भैय्या! कुछ-एक बरस तो अब चारा चरेंगे हम.

'छठ' हम मना न पायेंगे दरया* में अबकी बार,
चौपाटी पर दुकाँ तो लगाया करेंगे हम.

९ के मिलन के साल में नैनो नही मिली,
नयनो में उनको अपनी बिठाया करेंगे हम.

*समुन्द्र
-मंसूर अली हाशमी

Sunday, October 11, 2009

This Time

अबकी बार ......
                                                                                                                            
'नो बोल' सा लगे है ये नोबल तो अबकी बार,

मंदी के है शिकार धरोहर* भी अबकी बार.

फिल्मों पे इस तरह पड़ी मंदी की देखो मार,
बनियाँ उतर चुका था गयी शर्ट अबकी बार.

कहते है अब करेंगे नमस्ते वो दूर से,
स्वाईन से बच गए, हुआ डेंगू है अबकी बार.

जिन्ना को याद करके तिजोरी भरी कहीं!
सूखा कहीं रहा कहीं सैलाब अबकी बार.

है राष्ट्र से बड़ा* वो जहाँ पर चुनाव है,
पहले थे चाचा शेर, भतीजा है अबकी बार.

परियां तो खिलखिलाती है, सुनते थे अब तलक,
देखा उड़न-परी* को बिलखते भी अबकी बार.


वो [bo] फोर्स लग गया की वो* बाहर निकल गए,
उनका समाप्त हो गया वनवास अबकी बार.

*वैश्विक संपदा
*महाराष्ट्र
*पी.टी. उषा
*क्वात्रोची
-मंसूर अली हाशमी



Saturday, October 10, 2009

Noble Prize

नौ [२००९] में बल से हासिल!  

नो[No] में वैसे ही बल नही होता,

शान्ति में;  जैसे छल नही होता.


कच्चे नारयल में ये मिलेगा पर,
पक्के पत्थर में जल नहीं होता.


सच्चे साधू में मिल भी जाएगा,
हर कोई बा-अमल नही होता.


बाज़* पाए [ई ] बहुत ही सुन्दर पर,
फूल हर एक कमल नही होता.


उसके घर आज आयेंगे- युवराज!
झोंपड़ा क्यां महल नही होता?


कल न आया न आने वाला है,
आज करलो कि कल नही होता.


उसकी कीमत ज़्यादा होती है,
जिसका कोई भी दल नही होता


ऑनलाईन चलन हुआ जबसे,
मिलना अब आजकल नही होता.


अस्मिता भी चुरायी जाती है,
राज 'मन-से' बदल नही होता.


कोढ़ी-कोढ़ी* में बिक ही जाना है,
टीम-वर्क गर सफल नही होता.


ग़म मिले मुस्तकिल हजारो को,
हर कोई 'सहगल' नही होता.

*बाज़= कुछ, चंद
*कोढ़ी=२०[20-20]


-मंसूर अली हाशमी


Tuesday, September 22, 2009

Sallu Miyaa

[With Sallu it is sometimes difficult to keep his shirt on....T. O. I./21.09.09]

Shirt [शर्त?]
पहन लूँ या निकालूं फर्क क्या है,
दिखाऊँ या छुपाऊं हर्ज क्या है,
मैं हर सूरत बिकाऊं शर्त? क्या है,
बताएं कोई इसमें तर्क क्या है?

जो बाहर हूँ, मैं अन्दर से वही हूँ,
मगर Under की दुनिया से नही हूँ,
गलत कितना हूँ मैं कितना सही हूँ,
''दसो-का-दम'' हूँ मैं बेदम नही हूँ.

मिरी हीरोईनों में  तो हया है,
लिबासों में सजी वो पुतलियाँ है,
नही गर एश तो में कैफ* में हूँ,
असिन, रानी है आयशा टाकिया है.

*खुमार

Saturday, September 19, 2009

Panch-Tantra

तंग होती दुनिया 

जहाँ मेहमान भगवन बनके आता,
था हरएक का हरएक से कोई नाता,
जहाँ ,दिन रात होती थी दिवाली,
अंधेरे में ये अब क्यों खो गई है,
बहुत छोटी ये दुनिया हो गई है.

नई रस्मों की है अब वाह - वाही,
लगी है बनने माँ  अब बिन ब्याही,
सफेदी को है खा बैठी स्याही,
बदरवा बिन भी रैना हो गई है
बहुत छोटी ये दुनिया हो गयी है.

फिज़ाओं में चमक थी रौशनी थी,
हवाओं में भी कैसी ताज़गी थी,
अमावस में चंदरमा खो गया है,
खिजाओं से क्या यारी हो गई है,
बहुत छोटी ये दुनिया हो गई है.

बदलती जा रही है चाल देखो,
लपेटे है शनि का जाल देखो,
गुरु लगता है अब पामाल देखो,
कभी केतु तो राहू से ठनी है,
बहुत छोटी ये दुनिया हो गयी है.

नगद, चीजों का बिकना रुक गया है,
चलन में जाली रुपया जुट गया है,
हमारा सब्र भी अब खुट गया है,
उधारी ही उधारी हो गई है.
बहुत छोटी ये दुनिया हो गई है.

परिंदों ने कमी की फासलों में ,
चरिंदे भी रुके है रास्तो में,
सितारे छुप गए है बादलो में ,
हवा भी लगती, जैसे थम गई है,
बहुत छोटी ये दुनिया हो गयी है.

शहर में हर कोई बीमार क्यों है,
मसीहा भी दिखे लाचार क्यों है,
रसायन भी बने हथियार क्यों है,
उलट गिनती शुरू क्या हो गई है?
बहुत छोटी ये दुनिया हो गई है.

खुलेगा पंचतंत्रों का गठन क्या?
छुटेगा पंच तत्वों का मिलन क्या?
गिरेगा इस धरा पर ये गगन क्या?
सितारों की यही तो आगही है!
बहुत छोटी ये दुनिया हो गई है.

-मंसूर अली हाशमी

Friday, September 18, 2009

तो क्या?/So What?

तो क्या?

भीड़ से जो लोग* डरते है,
भेड़(cattle) से हो उन्हें परहेज़ तो क्या?

सुख वो सत्ता का छोड़ दे कैसे,
शूल की भी भले हो सेज़ तो क्या?

अपनी कुर्सी तो हम न छोड़ेंगे,
छिन जो जाए हमारी मेज़ तो क्या?

क्या कमी है यहाँ 'फिजाओं'* की,          [*चाँद की प्रेमिका]
मिल न पाया अगर दहेज़ तो क्या?

अपनी रफ़्तार हम न बदलेंगे,
है ज़माना अगर ये तेज़ तो क्या?

फ़िक्र ozone की करे क्यों हम,
हम न होंगे! बढ़े ये Rays तो क्या !

एक लड़का भी चाहिए हमको,
बहू को फिर चढ़े है Days तो क्या? 

*मगरूर साहब


  -मंसूर अली हाशमी
   

Lover/माशूक

माशूक (III)
[नोट:- Interview की पहली  दो कड़ी अवश्य  पढ़े Scrolling down... :





"इश्क'' और ''आशिक'' के बाद संशोधित  "माशूक" [प्रेमिका] इस सिलसिले की अन्तिम कड़ी पेशहै:-

ब्लोगरी  [उर्फ़ पतंग]:- "तमे वापस आवी गया काका [uncle]? मुझे देखते ही वह सहसा अपनी घर की भाषा में बोल पड़ी।
म.ह:- कुछ प्रश्न बच गए है।
 पतंग:= पूछो but ...
 m.h.:- ....no personal questions please., मैंने उसका वाक्य पूरा कर दिया।
पतंग:- ..तो आप उससे मिल आए?
म.ह।:- इसी लिए यहाँ आना पड़ा कि  तुम्हारे blog titles भी तो जान लूँ  ।
पतंग:- interesting,  संयोग से मेरा हर टाइटल या तो उनके टाइटल का byeproduct है या outcome है।
म.ह:- जैसे कि ?
 पतंग:- सबसे पहले तो मैंने उसके 'दिल' पर 'धड़कन' दे डाली,फिर उसके 'कान'  ब्लॉग पर 'शौर'  मचा डाला
म  .ह:- वह! क्या बात है। तुम्हारा हिन्दी साहित्य में दिलचस्पी का प्रेरक?
 पतंग:- मेरे घर में हिन्दी की सभी मैगजीन आती है, उसमे जो तलाश करो मिल जाता है।
म.ह। :- और कोई विशेष ब्लॉग?
पतंग:- उसके 'होंठ ' पर मेरा 'kiss' तो super hit गया, एक इंग्लिश couple की फोटो भी छाप
दी थी support में।
म.ह।:- आगे क्या इरादा है?
पतंग:- उसके forth coming ' गला' के लिए मेरी आवाज़ लगभग तैयार है, आज रिलीज़ भी कर दूंगी और 'कमर' के लिए 'लचक' की study कर रही हूँ ।
म.ह। :- यानि आज-कल पढ़ाई -लिखाई सब बंद?
पतंग:- नही बल्कि exam की copy में यह सब लिख डालो तो और ज़्यादा marks आते है, १-२ supplimentry copy भी जोड़ना पड़ती है।
म.ह:- कोई मुश्किल तो नही होती 'उनके' हर ब्लॉग का जवाब देने में?
पतंग:- होती है ना!  उनकी 'आँखे' के लिए मेरा 'आंसू' निकल ही नही पा रहा। मैं तो हँसते-हंसाते रहती हूँ । काश! मैंने एकता कपूर के सीरियल देखे होते, सुना है वह तो आंसुओं का खजाना है?
म.ह। :- कोई रोचक प्रसंग ?
पतंग:- बहुत ही रोचक, शायद प्रक्रति मेरा इस मामले में साथ दे रही है।
म.ह।:- किस मामले में?
पतंग:- दो ब्लोग्स वो कभी भी नही लिख पाएंगे, नही तो मेरी तो हालत ही ख़राब हो जाती!
म.ह।:- कौन- कौन से ?
पतंग:- एक तो वही  भावना वाली 'नाक', अगर सचित्र लिखता तो...oh!shit..... मुझे उसका bye product देना पड़ता। कैसा असाहित्यिक कृत्य....भगवान ने बचा लिया।
म.ह। :- और दूसरा?
पतंग:-  kidney वाला.....और फ़िर उसका bye-product , oh God! क्या करती?
म.ह:- और तुमने अपना नाम क्यो नही बताया 'उसे'?
पतंग:- बताया है मगर   पहेली में?  कि  " मैं तुम्हारे नाम का bye प्रोडक्ट  हूँ   , उसका 'स्त्रीलिंग हूँ। उसको "सुचित्रा" का विचार ही नही आ रहा है, बुद्धू कही का!। अपने सिस्टम सॉफ्टवेअर ट्रांसलेटर में "स्त्रीलिंग" शब्द  तलाश लिया  तो उसने न जाने क्या बता दिया कि उसको दिन भर हिचकियाँ [hi-cup] ही आती रही, कई लीटर पानी पीने बाद भी, तब से उसने नाम पूछना ही छोड़ दिया है।
म.ह:-'आवाज़' का ट्रेलर नही सुनाओगी ?
पतंग: हाज़िर है.....
"हवा के 'दौश' पे होकर सवार चलती है,
जुदा हुई जो ये लब * से तो फ़िर न मिलती है"

म.ह: पतंग तुम्हारी उड़ान तो अच्छी रही, अब मैं जुदा सॉरी विदा होता हूँ , goodluck , all the best.


*कन्धा , * होंठ

-मंसूर अली हाश्मी.

Monday, September 14, 2009

Blogging-4

बलागियात-4

[पूर्व प्रकशित - संपादित/संवर्धित , Blogging लेबल पर अन्य रचनाओं के लिए:-
visit .... http://mansooralihashmi.blogspot.com/search/label/Blogging

टेक्नीकल ब्लॉग बनते है,
मेकेनिकल ब्लॉग बनते है,
पॉलिटिकल ब्लॉग बनते है,
हिस्तरिकल ब्लॉग बनते है.

टेक्निक  को सरल बनाता ब्लॉग,
कागजी भी मशीन चलाता ब्लॉग,
झूठ-सच को उलट-पलट करता,
'इति' को 'हास' [य] में बदलता ब्लॉग।


सच का पैमाना ले के बैठेंगे,
झूठ को बर्फ से भी तोलेंगे,
छोड़ कर हम तो north-south को,
सिर्फ़ अपनी ही पोल [pole] खोलेंगे।


'न्याय'* का दम तो हम भी भरते है,
' दाल-रोटी' से प्यार करते है,
'भडास' हम भी निकाल ही लेंगे,
इसी पर्यावरण में पलते है।

वो जो 'छींटे' उड़ा रहा है कहीं,
हमको तकनीक भी सिखाता है,
और 'तकनीक दृष्टा' एक जनाब,
इक ग़ज़ल रोज़ ही सुनाता है.


बैठने से ज़्यादा उड़ता है,
क्या गज़ब तश्तरी पे करता है.
Nostalgia का हो के शिकार,
इन दिनों खूब आह भरता है.


गौ के एक स्वामी भी है यहाँ,
पुस्तकों को भी अब तो पाले है.
धूम उनकी ग़ज़ल की रहती है,
उनके उस्ताद भी निराले है.

एक शब्दों के जादूगर भी है,
नाम और काम से वो 'कर' भी है.
'ताऊ' है, 'भाऊ' और 'सीमा' है ,
एक ब्लॉगर जी चिपलूनकर भी है.

बादलों से भी झांकता प्रकाश,
राज़ बतलाती रजिया आपा है ,
दत्त जी झान बाँटते हरदम,
पूरी संगीतमय संगीता है.

वाणी होती नशर ब्लागों की,
चिट्ठो से है भरा जगत सारा,
सेवा भाषा की सब ही करते है,
जो न टिप्याया वह गया मारा.

कुछ विषय का यहाँ नही टौटा
जो लुढ़क जाए बस वही लोटा,
Dust Bin ही नही तो डर कैसा,
चल जो निकला नही रहा खोटा.


आओ बैठे , ज़रा सा गौर करे,
पहले हम ख़ुद को ही तो bore करे,
छप ही जाएगा नाम चित्र सहित,
पीछे चिल्लाये कोई शोर करे!


नर को नारी बनादो चलता है,
बिल को खाई बतादो चलता है,
तिल से हम ताड़ तो बनाते है,
राई होवे पहाड़ चलता है।

-मंसूर अली हाश्मी
[नोट:. inverted coma के शब्द एवम विभिन्न रंग  ब्लॉग टाइटल/ब्लोगर्स को इंगित करते हुए है../*तीसरा खंबा ]

Friday, September 11, 2009

Observation.....

देखा है...


उनका चेहरा उदास देखा है,
ज़ख्म इक दिल के पास देखा है।


बात दिल की जुबां पे ले आए,
उनको यूँ बेनकाब देखा है।


हो गुलिस्ताँ की खैर शाखों पर,
उल्लूओं का निवास देखा है।


सीरियल सी है जिंदगी की किताब,
बनना बहुओं का सास देखा है।


क्या जला है पता नही चलता,
बस धुआँ आस-पास देखा है।


जिसको पाने में खो दिया ख़ुद को,
उसको अब ना-शनास * देखा है।


उनके रुख पर हिजाब * की मानिंद,
हमने लज्जा का वास देखा है .

देखते रह गए सभी उसको,
घास को अब जो बांस देखा है.


*अपरिचित , पर्दा


-मंसूर अली हाशमी









Thursday, September 10, 2009

Mine Nine-Nine

9 - 9 - NO!

9--९ सुनते दिन गुजरा था,
No--No सुनते रात गुज़र गई.

खैर यही की खैर से गुजरी,
पंडित जी की जेब भी भर गई.

रस्ता काट न पाई बिल्ली,
हम सहमे तो वह भी डर गई.

काम बहुत से निपटा डाले,
काम के दिन जब छुट्टी पड़ गई.

एक सदी तक जीना होगा,
जिनकी नैना ९ से लड़ गई.

टक्कर मार के भी पछताई,
NAINO आज ये किससे भिढ़ गई.


-नन्नूर ननी नान्मी

Monday, August 31, 2009

मन्ज़िले मक्सूद



मंज़िले मकसूद
[बीसवीं सदी (उर्दु मासिक पत्रिका,दिल्ली) मे 2005 प्रकाशित कहानी-लेखक द्वारा ही हिन्दी में अनुवादित]


बस में खिड़की के पास बैठना नईम को ज़्यादा पसन्द था लेकिन फ़िल्हाल उसे लड़की के पास बैठना पड़ा क्योंकि खिड़की के पास वह बैठी हुई थी और केवल उसके पास वाली ही एक सीट ख़ाली बची थी। वह लड़की किसी पत्रिका में गुम थी, गुम रही। नईम की मौजूदगी का कोई असर प्रत्यक्ष रूप से उस पर दिखाई नही दे रहा था। नईम ने पत्रिका के पन्ने पलट्ते हुए देखा कि लड़की के पास भी वही पत्रिका है, फिर न जाने क्या सोच कर इसने अपनी पत्रिका बंद करदी। अब कुछ न करने की सूरत मे, खिड़की से बाहर देखने की कौशिश में पहले उसकी नज़र लड़की के रुख़सार से टकराई, कुछ पल हैरानी मे तकता ही रह गया उसकी सुन्दरता। लड़की के चेहरे पर मुस्कुराहट थी मगर नज़रें पत्रिका पर ही थी। ये मुस्कुराहट नईम की हरकत पर थी या लेख के किसी वाक्य पर; नईम तय नही कर पाया। अपनी झेँप मिटाने के लिये कलाई घड़ी देखने लगा।
नईम अपने मित्र मक़्सूद के घर जा रहा था, क्रिस्मस की एक सप्ताह की छुट्टियाँ बिताने। शहर के एक कॉलेज में वह लेक्चरर था। मक़्सूद कृषि-विझान की पढ़ाई कर गाँव मे अपने खेतो पर नये प्रयोग करने चला आया था।

रास्ते मे एक स्टाप पर बस ठहरी। लड़की ने पत्रिका बंद कर एक अंगराई ली; एक सिमटी हुई सी अंगराई जो उसकी सीट की सीमा तक ही सीमित रही, लेकिन उसकी गौद में रखी हुई पत्रिका नीचे गिरी… नईम के पाँव पर्। वह सॉरी कह कर उठाने के लिये झुकी, नईम भी झुक चुका था- दो सर आपस में टकराएं, सॉरी की दो आवाज़े फ़िर गूंजीं…बस चल पड़ी। अब वो पत्रिका नही पड़ रही थी, खिड़की से बाहर खुले मैदान पर दृष्टि घुमा रही थी। नईम ने दिल में सोचा कि जब नयनाभिराम द्रश्य एवम हरियाली रास्ते में थी तब ये किताब में गुम थी, अब इस बंजर ज़मीन में क्या तलाश कर रही है? बड़ी रूखी तबियत की लगती है। अब वह पुन: अपनी मेग्ज़िन देख रहा था और चोर नज़रों से लड़की को भी। वो अपने हाथ पर बंधी घड़ी देख रही थी, फिर हाथ को धीरे से झट्का, नईम से न रहा गया वह अचानक बोल पड़ा…''सवा दस''। ''जी''! लड़की चौंक कर उससे सम्बोधित हुई। ''जी, हाँ सवा दस बजे है'', नईम ने दोहराया। लड़की सादगी से मुस्कुरादी। अब वो अपने घड़ी बंधे हाथ पर से कोई चीज़ अपने सीधे हाथ से साफ़ कर रही थी। नईम बुरी तरह झेंप गया। उसका ये अनुमान ग़लत निकला कि उसकी घड़ी बंद है। उसने स्पष्टीकरण का सोचा भी मगर वो लड़की फिर से बाहर की तरफ़ देख रही थी। नईम इस हरकत पर स्वयं पर झल्ला गया। लड़कियों की निकटता उसे इसी तरह की घबराहट में मुब्तला कर देती थी।
रानीगाँव के छोटे से बस स्टाप पर उतरने वाले वें दो ही मुसाफ़िर थे, लड़की भी यहीं उतर गयी थी। एक ही घोड़ा-गाड़ी मिली, जिस पर दोनो को सवार होना पड़ा । बस्ती यहाँ से थोड़े फ़ासले पर थी। लड़की ने सवार होने में पहल की थी। जब नईम ने गाड़ीबान को पता बताया तो लड़की ने चौंक कर उसकी तरफ़ देखा क्योंकि वो भी इसी पते पर जा रही थी। रास्ता ख़ामोशी में कटा। ''मन्ज़िले मक़्सूद आ गयी साहब", तांगे वाला एक बंगलेनुमा मकान के सामने गाड़ी रोकते हुए बोला। घर के बाहरी हिस्से पर 'मन्ज़िले मक़्सूद' लिखा हुवा था। मक़्सूद ने बाहर आकर दोनो का स्वागत किया।
''तुम दोनो एक-दूसरे से परिचित तो हो गये होंगे?'', चाय की मेज़ पर मक़्सूद ने ज़रीना से सवाल किया।
''नही'', ज़रीना का मुख़्तसर सा जवाब था।
''एक साथ आये और अभी तक अजनबी हो!'', मक़्सूद के लहजे में आश्चर्य था।
''बात करने के लिये भी कोई उचित कारण चाहिये, तर्क-शास्त्र की स्टूडेन्ट जो थहरी'', यास्मीन ने ज़रीना को छेड़ा। ज़रीना ने नईम की तरफ़ देखा- जैसे कह रही हो कि सफ़ाई तुम ही पेश करो।
''तुमने जवाब नही दिया ज़रीना?'' मक़्सूद ने भी उसे ही छेड़ा, वह उसके तर्को से लुत्फ़ लेना चाह्ता था।
''पहले आवश्यक है कि हम परिचित हो ले, फ़िर बहस होती रहेगी'', ज़रीना बोली, फ़िर नईम को सम्भोधित हुई, ''मुझे ज़रीना कहते है।'' नईम ने भी अपना नाम बताते हुए अभिवादन किया।
''ये मैरी छोटी बहन है'', यास्मीन बोली।
''और ये मैरे बचपन के मित्र और सह्पाथी और अब इतिहास के प्रोफ़ेसर है।'' मक़्सूद ने भी हिस्सा लिया।
''आप बुरा न माने तो आपा की बात का जवाब दूँ'', ज़रीना नईम से कह रही थी।
नईम ने ख़ुशदिली से कहा, ''ज़रूर-ज़रूर''
''सुनो आपा, ये नईम साहब जो है ना, लगता है लड़कियों से घबराते है।''
''तो कौनसी नई बात कही'', मक़्सूद ने अट्ठहास किया।
''आप चुप रहिये'', यास्मीन ने प्यार से डांटा।
ज़रीना ने नईम की तरफ़ देखा, जिसके चेहरे पर आश्चर्य मिश्रित मुस्कान थी, फिर बोली, ''पहला कारण तो ये कि जब ये साहब बस में सवार हुए तब पहली खाली सीट मैरे पास ही की देखी लेकिन फ़ौरन बैठे नही, बल्कि कोई और सीट तलाश करते रहे। और कोई सीट खाली न मिलने पर मजबूरन मैरे निकट बैठे, दूसरा कारण ये कि आप इस तरह सावधानी से सिकुड़ कर बैठे जैसे कोई लड़की किसी लड़के के पास जा कर बैठ रही हो।''
मक़्सूद ने एक ज़ोरदार क़ह्क़हा लगाया…, नईम कुछ झेंप सा गया…, यास्मीन ने टेबल के नीचे से पाँव को हरकत दी…, ज़रीना के मुंह से 'ऊई' की आवाज़ निकली, लेकिन वह अपनी बात आगे बढ़ाने के लिये फिर तैय्यार थी…
''मैं, इनसे बात शुरू कर भी देती लेकिन ये मैरी बजाय बस में बैठी एक अधेड़ उम्र औरत की तरफ़ आकर्षित दिखे।''
अब तो मक़्सूद उठ खड़ा हुवा। बोला- ''ज़रूर उसका चेहरा रज़िया सुल्ताना से मिलता होगा और ये हज़रत उसके चेहरे पर इतिहास का कोई पन्ना पढ़ रहे होंगे, वरना ये ऐसी हिम्मत कब कर सकते है।''
''नही भाई, मै तो वैसे ही बे-ख्याली में…'' नईम ने बोलना चाहा…
''आपकी बारी बाद में है, नईम भाई'', यास्मीन ने उसे टोका। नईम ने बेचारगी से मक़्सूद को देखा जिसके चेहरे पर शरारत खेल रही थी। फिर उसने ज़रीना की तरफ़ देखा, जैसे पूछ रहा हो और कुछ? वह कुछ सोचती हुई लग रही थी, अचानक बोल पड़ी…''हाँ! वह चाँद बीबी जैसी लगती थी।'' यास्मीन हँसते-हँसते दोहरी हो गयी थी। तभी मक़्सूद को कोई बुलाने आ गया और वह नईम को साथ लिये बाहर चला गया।
रात को खाने की मेज़ पर मक़्सूद ने फिर वही बात उठाई, ''हाँ भाई नईम, तुम क्या कहते हो?''
''आपकी साली साहबा के बारे में मैरा अंदाज़ा बिल्कुल ही ग़लत निकला, ये तो काफ़ी स्मार्ट निकली।''
ये वाक्य नईम ने जबकि बड़ी सादगी से अदा किया था, मगर ज़रीना को इसमे व्यंग का आभास हुवा और फ़ोरन बोल पड़ी, ''मगर मैरा अन्दाज़ा तो बिलकुल सही निकला।''
नईम और मक़्सूद के चेहरे प्रश्नवाचक बने हुए थे मगर दोनो बहनो के चेहरे पर मुस्कान थी। फिर मक़्सूद ने खेती-बाड़ी पर लेक्चर शुरु किया जो खाने के साथ ही समाप्त हुआ।
''आप ने नईम से ज़रीना के बारे में बात की थी?'' रात को बिस्तर पर यास्मीन ने पूछा।
''नही भई तुम पहले अपनी तार्किक बहन से तो बात कर लो, कहीं वो ये न पूछ ले कि शादी करने में क्या तुक है, क्या ज़रूरत है वग़ैरह-वग़ैरह्।"
''मैने बात कर ली है, कहती है विचार करेगी, आप कल नईम की राय तो जान ले- जोड़ी बड़ी अच्छी रहेगी।''
''अच्छी बात है'', उबासी लेकर मक़्सूद ने करवट बद्ली।
नईम और ज़रीना पहली मंज़िल के दो अलग-अलग कमरो में ठहराये गये थे, रात के ग्यारह बज रहे थे, नईम अबतक जाग रहा था, ज़रीना के कमरे की लाईट भी जल रही थी। अचानक नईम ने पास के कमरे से कोई आवाज़ आती हुई सुनी जैसे कोई बात कर रहा हो। बाहर गैलेरी में आकर साथ वाले कमरे की तरफ़ देखा। दरवाज़ा खुला हुवा था, उस पर पर्दा गिरा हुवा था। नईम अपनी जिझासा को न रोक सका, वह पर्दे के ज़रा करीब हुवा, ज़रीना एक आदमकद आईने के सामने खड़ी हुई थी, बिल्कुल एक मुल्ज़िम की तरह जो अदालत में अपनी सफ़ाई पेश करने खड़ा हो। यही उसकी आदत थी कि सोने से पूर्व वह आईने के सामने बैठ कर दिन भर की बातों पर विचार करती और किसी बात के उचित-अनुचित होने पर निर्णय करती।
मनुष्य बहुत सी अवास्तविक बातें भी अपने दिल से मनवा लेता है, खुद को झूठा दिलासा दे लेता है, स्वयं को भ्रमित रखना भी उसे अच्छा लगता है।
हक़ीक़त-पसन्दी ज़रीना के व्यक्तित्व का विशेष अंग रहा है, इसी आधार पर वह फ़ैसला भी किया करती है। खुद को फ़रारियत से बचाने के लिये वह आईने के सन्मुख हो जाया करती है, वह खुद से आंखे मिला कर हक़ीकत पसन्दाना फ़ैसला करती है। इस समय भी वह आईने के सामने खुद से संबोधित थी।
''सीधा-सादा है, बिल्कुल गांव के आदमियों की तरह।'' नईम उसकी आवाज़ सुनकर चौंका। अब वह पर्दे की झिरी मे से उसकी गतिविधि भी देख रहा था।
''मुझे तो नज़र उठा कर अब तक देखा भी नही है, मगर मैं तो ज़रीना तुझे…बिला जिझक देख सकती हूँ… वह अपने अक्स से ही सम्बोधित थी। वह बारीकी से ख़ुद का जायज़ा लेने लगी, फिर ख़ुद का ही मुंह चिढ़ाया… ''एसी कोई सुन्दर भी नही है तू'', मगर साथ ही साथ वह अपने लालिमा युक्त गोरे चेहरे की प्रशन्सा भी किये बिना न रह सकी, उसका चेहरा तो यही बता रहा था। फिर वह एक कुर्सी खींच कर आईने के सामने बैठ गयी, ख़ुद को थोड़ा गम्भीर बनाया- ''ये आपा ने भी अच्छी उलझन पैदा करदी है। अभी तो मैं शादी नही करुंगी।'' शादी शब्द पर वह थोड़ा सा शरमा गई। अक्स में उसने अपने आपको दुल्हन की सूरत में देखा, फिर दोनो हाथो से मुंह छुपा लिया - शरमा कर्। दुल्हन बनने के एहसास ने उसके दिल में अजीब कैफ़ियत पैदा करदी। ''मगर ये आपा भी मानने वाली नही है।'' ज़रीना के लहजे में अब नर्मी आ गयी थी। ''पढ़ा-लिखा है, सुन्दर है, अच्छे खानदान से है, आपा की कोई दलील कमज़ोर भी तो नही है। मगर वह स्मार्ट भी तो नही है! आपा को कौन समझाए?''
''स्मार्ट से तुम्हारा मतलब क्या है?'', वह अपने आप से प्रश्न कर रही थी। अब वह स्मार्ट आदमी की कल्पना कर रही थी- जो तस्वीर मस्तिष्क में उभरी वह नईम ही की थी, द्रश्य भी बस ही का था, वह एक सुन्दर सी लड़की से हंस-हंस कर बातें कर रहा था, उसने आईने पर अपना हाथ घुमाया जैसे वह यह तस्वीर मिटा देना चाहती हो, एक अजनबी लड़की से इतना बेतकल्लुफ़ होना भी अच्छी बात नही- उसने सोचा। अब वह अपना चेहरा घुमा-फिरा कर ख़ुद को शीशे में हर कोण से देख रही थी; जैसे कि वह खुद को समझने की कौशिश कर रही थी। नईम जो कि अबतक पूरा मामला समझ चुका था आश्चर्य मिश्रित प्रसन्नता से इस अजूबा लड़की को देख रहा था। अपनी इस हरकत को अनैतिक मानते हुए भी ख़ुद को वहाँ से हटा नही पाया कि ज़रीना की अदालत मे इसके ही भविष्य का फ़ैसला होने जा रहा था। ज़रीना की आवाज़ फिर उसके कानो से टकराई: ''ओह ख़ुदा! मैनें सुबह उन्हें क्या-क्या कह दिया है,मालूम नही मैरे बारे में क्या राय स्थापित की होगी, बस में हो सकता है किसी परिचित को देखने के लिये नज़र घुमाई हो या हो सकता है खिड़की के क़रीब वाली कोई सीट ढूंढ रहे हो, बाहरी द्रश्य देखने को बड़े बेताब जो नज़र आए थे। मगर वह चांद बीबी का क़िस्सा मैनें बेकार ही छेड़ा, उस औरत में उनको भला क्या दिलचस्पी हो सकती थी।, यह मैने अच्छा नही किया। शायद यह मैनें ख़ुद को स्मार्ट ज़ाहिर करने को किया हो……तब तो यह और भी गलत हुआ।'' अब ज़रीना की गम्भीरता में और इज़ाफ़ा हो गया था। उसने ख़ुद से सम्बोधित अपनी तकरीर जारी रखी- ''वो भले ही मक़्सूद भाई के बेतकल्लुफ़ दोस्त हो, मगर आपा के मेहमान भी तो है।"… इस ठंड भरी रात में भी ज़रीना की पेशानी पर पसीने की बूंदे उभर आई। शीशे पर बल्ब की रोशनी से प्रतिबिम्बित होकर इन बूंदो की चमक नईम तक भी पहुंची। पशेमानी के आलम में ज़रीना को अपनी पेशानी पर पसीने की ठंडी बूंदो का एह्सास हुआ। उसे यह सोच कर राहत मिली कि यह पश्चाताप का पसीना है। पसीना पोंछ्ने के लिये उसने अपना हाथ बढ़ाया और फिर रोक लिया-- ''नही यह पश्चाताप का बोझ अपनी पेशानी पर ही रहने दूंगी जब तक कि उनसे क्षमा न मांग लूँ।'' अब वह शांत नज़र आ रही थी, वह सोने जाने के लिये उठी, नईम भी हट चुका था।
सुबह जब नईम बाहर गैलेरी में आया तो नीचे बरान्दे में ज़रीना को गुलाब के फूलों की क्यारियों के निकट खड़ा पाया। वह भी उसी तरफ़ बढ़ गया अब वह क्यारियों के दूसरी तरफ़ जाकर ठीक ज़रीना के सामने खड़ा हो गया था। कंधे तक ऊंची क्यारियों की दूसरी तरफ़ ज़रीना आत्म विभोर होकर गुलाब के फूलों पर ओंस रूपी मोतियों की सुन्दरता निहार रही थी। नईम ने खंखार कर निस्तब्धता तौड़ी, ज़रीना चौंक पड़ी। अभी वह संभल भी न पाई थी कि नईम ने ये शेअरी तीर छोड़ा:-
''फूल के रुख़ पर नमी सी है जो उनके रु-ब-रु,
है निदामत* का अरक़, शादाबी-ए-शबनम* नही।''
*[पश्चाताप, **ओंस की ताज़गी]

ज़रीना का हाथ बौखलाहट में अपनी पेशानी पर चला गया जहाँ रात उसने अपनी निदामत क अर्क साफ़ नही किया था। अचानक हो गयी अपनी इस हरकत का एहसास होते ही वह लज्जा से लाल हो उठी, उसके गालो की लालिमा अब फूलों को भी शरमाने लगी। नईम उसके लज्जा और पश्चाताप में डूबे हुए चेहरे को प्यार भरी नजरों से देख रहा था। ज़रीना को अब वह दुनिया का सबसे स्मार्ट व्यक्ति नज़र आ रहा था। वह अपनी नज़रें उसके चेहरे पर से हटा नही पा रही थी। नईम भी उसकी गुलाबी आंखो से छलकती हुई सुरा पिये जा रहा था। ज़रीना का चेहरा भी उसे डाली पर लगा हुआ एक खिला हुआ गुलाब ही लग रहा था जो माली के हाथों चुन लिये जाने को बेताब दिख रहा था, संयम खोते हुए इस फूल को पाने कि तमन्ना में नईम ने सहसा अपना हाथ बढ़ाया लेकिन किसी फूल के कांटे ने उसके बढ़ते हुए हाथ को रोक दिया। उसकी उंगली पर खून की नन्ही सी बूंद उभर आई। ज़रीना ने उसके हाथ को अपने हाथ में लेकर खून साफ़ करना चाहा तब नईम ने उसे रोक दिया और बोला- ''यह पश्चाताप का नही मुहब्बत का अर्क है, सूर्योदय की इस लाली की तरह लाल'', उसने निकलते हुए सूरज की तरफ़ इशारा किया। इस दरमियान ज़रीना ने उसकी उंगली से मुहब्बत की इस लाली को अपने दुपट्टे में सोख लिया, मुहब्बत के इस रंग में चुनरी रंग कर वह आनन्दित हो उठी।
अब वह दोनो साथ-साथ चल रहे थे, कांटो और फूलो से भरी हुई इन झाड़ियों के आस-पास जो जीवन की सुख-दुख भरी पगडण्डी का एहसस दिला रही थी। झाड़ियों का सिलसिला ख़त्म हुआ- इन दोनो के दरमियान का फ़ासला भी। अब वें हाथों में हाथ लिये ''मन्ज़िले मक़्सूद'' की तरफ़ जा रहे थे। मक़्सूद और यास्मीन खिड़की में से इन्हें आता देख रहे थे। ''देखो तुम्हारी बहन ने मैरे भोले-भाले दोस्त को फांस ही लिया।'' मक़्सूद ने छेड़ा। यास्मीन कुछ न बोली, वह ख़ुश नज़र आ रही थी; बहुत ख़ुश!

-मंसूर अली हाशमी [रचना काल 1978]




छुट्टी हो गई!

छुट्टी हो गयी

चमकाने* जो देश चली थी अन्ध्यारे में कैसे खो गई ?
चाँद हथेली पर दिखलाया, सत्ता भी वादा सी हो गई।

''नाथ'' न पाये सत्ता को फिर, 'वसुन'' धरा पर क्यों कर उतरे,
प्यादों ने भी करी चढ़ाई , इन्द्रप्रस्थ* की सेना सो गई।

''जस'' को यश दिलवाने वाली, थिंक-टेंक अपनी ही तो थी,
''जिन्नों'' से बाधित हो बैठी अपनों ही के हाथो रो गई।

बैठक लम्बी खूब टली तो, चिंतन को भी लंबा कर गयी,
मोहन* की बंसी बाजी तो , सबकी सिट्टी-पिट्टी खो गई।

प्रतीक्षा अब छोड़ दो प्यारे, गाड़ी कब की छूट चुकी है,
आशाओं के मेघ चढ़े थे , एक सुनामी सब को धो गई,

साठ पार जो हो बैठे है, चलो चार धामों को चलदे,
घंटी भी बज चुकी है अबतो, चल दो घर को छुट्टी हो गई.

*Shining इंडिया, *राजधानी, *bhaagvat

-मंसूर अली हाश्मी

Friday, August 14, 2009

Reducing.....

कम करदी


उनके शीरी थे सुखन हम ने शकर कम करदी,

रक्त का चाप बढ़ा, हमने फिकर कम करदी।


बढ़ते दामो ने बिगाड़ा है बजट क्या कीजे,

तंग जब पेंट हुई, हमने कमर कम करदी।


महंगी चीजों से हुआ इश्क, ख़ुदा ख़ैरकरे,

उनको उल्फत थी उधर, हमने इधर कम करदी।


अब ''फ्लू'' फूला-फला है तो अजब क्या इसमे !

चाँद को पाने में धरती पे नज़र कम करदी।


दीद के बदले सदा* छींकों की सुनली जबसे,
उनके कूंचे से अभी हमने गुज़र कम करदी


*गूँज

-मंसूर अली हाशमी

Thursday, July 30, 2009

ये किस से यारी हो गयी !

बदमूल्य
ये किस से यारी हो गयी !


चाँद से चंदर बने मोहन के प्यारे हो गए,
जो उन्हें प्यारी थी वो [शादी] अल्लाह को प्यारी हो गयी.
अब मशीने फैसला करती है सच और झूठ का,
अब ज़मीरों पर हवस; इमाँ से भारी हो गयी
.


सामना सच का करे ! बस में नहीं हर एक के,
झूठ से पैसे बचे, चैनल जुवारी हो गयी.

किस ''करीने''* से जुदा एक चाकलेटी हो गया
नाम जिसपे गुड़** गया उससे ही यारी हो गयी.

नौ - गजी होती कभी थी इस्मते खातून* अब,
घटते-घटते अब तो ये, छ: फुटिया साड़ी हो गयी.

*करीना= सलीका , गुड़ना= tatoo

Sunday, July 5, 2009

EMPTY WOOD

खाली वुड


I DON'T NEED TO SHOW MY LEG TO WIN NOTICES -Katrina kaif [T.O.I]

बाला* कद्रो के कदरदान जब तलक मौजूद है,
घुटनों या पाओं तलक हरगिज़ न जाना चाहिए.

CENSOR की कैंचिया हो जाये 'बूथी' इससे कब्ल,
बिक्नियों की बिक्रियों को रोक देना चाहिए.

Gay-परस्ती को बढावा देने वाले है यहीं,
निर्बलों को भी कभी नोबल दिलाना चाहिए.

Laughter show सी कहानी अब सफल होती यहाँ,
लेखको को काशी-मथुरा भेज देना चाहिए.

राज-नीति में अदाकारों की अब भरमार है,
शीश महलो से निकल जूते चलाना चाहिए.

आर्ट को फिल्मों में ढूंढे ? कोई मजबूरी नही,
SHORT से भी शोर्ट में अब तो छुपाना चाहिए.

*ऊपरी

Tuesday, June 30, 2009

Blogging & Litrature

"कोई पत्थर से न मारे मैरे दीवाने को"---इंटर-नेट

[अन्तर्जाल और ब्लोगिन्ग पर लेखकीय ज़िम्मेदारी का ज़िक्र पढ़ कर- दिनेशराय द्विवेदीजी की आज की पोस्ट से प्रेरित होकर]

अन्तर्जाल पर अन्तर्द्वन्द के शिकार लोगो की सन्ख्या का तेज़ी से बढ्ना!अन्तर्जाल की कामयाबी ही तो है।स्वयँ का परिचय करवाने को लालायित लोग अगर ये ज़िद न रखे किउन्हे फ़ौरन ही साहित्य्कार का दर्जा मिल जाये, तो वे अधिक सहज हो जाएंगे,दिल की बात ज़्यादा खुल कर कह पाएंगे।
जब आप 'जाल' मे फ़ंसे हुए ही है, तो लाचारी है कि,कुछ पत्थर भी झेलने पड़ जाए।ये फ़ंसने का चुनाव भी तो आप ही ने किया है,आपथोड़ा धीरज धर जाए।
क़ैद की शर्ते [साहित्य का तक़ाज़ा] तो पूरा करना पड़ेगा,उचित शब्दो का प्रयोग कर, संयमित भी होना पड़ेगा,जब तक कि अंतर्द्वंदों से मुक्त, साहित्य के असीमित आकाश मे,उन्मुक्त होकर, ''उड़न-तश्तरी''* बन निर्बाध गति से उड़ान भर सको……


*समीर लालजी


-मन्सूर अली हाश्मी

Monday, June 29, 2009

गुलचीं से फरयाद


''खुशफहमी'' समीर लालजी के दुःख पर [२८.०६.०९ की पोस्ट पर]

चिडियों को अच्छा न लगा,
आपका वातानुकूलित बना रहना,
वें सोचती थी; गुस्साएगे आप,
निकल आयेंगे बगियाँ में,
जब कुछ फूल नष्ट होने पर भी आप न गुस्साए,
और न ही बाहर आये,
तब वे ही गुस्सा गयी.....

वें मिलने आप से आई थी,
फूलो से नहीं,
आपने गर्मजोशी नहीं दिखाई,
अनुकूलित कमरे में,
मन में भी ठंडक भर ली थी आपने.

ऎसी ही उदासीनता का शिकार,
आज का मनुष्य हुआ जा रहा है,
अपना बगीचा उजड़ जाने तक.

काश! चिडियाएँ,
हमारा व्यवहार समझ पाती.
-मंसूर अली हाशमी

Thursday, June 11, 2009

Between The Lines

अजित वडनेरकरजी की आज की पोस्ट "शब्दों का सफर" पर ' हज को चले जायरीन' पढ़ कर...

सवारी शब्दों पर


सफ़र दर सफ़र साथ चलते रहे ,
श-ब-द अपने मा-अ-ना बदलते रहे.

पहाड़ो पे जाकर जमे ये कभी,
ढलानों पे आकर पिघलते रहे.

कभी यात्री बन के तीरथ गए,
बने हाजी चौला बदलते रहे.


धरम याद आया करम को चले,
भटकते रहे और संभलते रहे.


[निहित अर्थ में शब्द का धर्म है,
कि सागर भी गागर में भरते रहे.
''अजित'' ही विजीत है समझ आ गया,
हर-इक सुबह हम उनको पढ़ते रहे.]


-मंसूर अली हाशमी

Tuesday, May 19, 2009

उल्टी गिनती …

उल्टी गिनती
चुनाव नतीजे के पश्चात्……"अब विश्लेशन करना है" प्रस्तुत है,
क्रप्या पिछ्ली रचना "अब गिनती करना है" के सन्दर्भ मे देखे…


सोच में किसके क्या था अब यह गिनती करली है,
शौच में क्या-क्या निकला यह विश्लेशन करना है।

सिर पर बाल थे जिसके, वह तो बन बैठे सरदार,
औले गिर कर फ़िसल गये, विश्लेशन करना है।

'वोट' न मिल पाये, ये तो फिर भी देखेंगे,
'वाट' लगी कैसे आखिर! विश्लेशन करना है।

सब मिल कर सैराब करे यह धरती सबकी है,
फ़सल पे हो हर हाथ यह विश्लेशन करना है।

'अपने ही ग्द्दार', यही इतिहास रहा लेकिन,
'कौन थे ज़िम्मेदार', यही विश्लेशन करना है…।

-मन्सूर अली हाश्मी

Friday, May 8, 2009

अब गिनती करना है......

अब गिनती करना है......

 अजित वडनेरकर जी की आज की पोस्ट 'पशु गणना से.चुनाव तक' .....से प्रभावित हो कर:-

बोल घड़े में डाल चुके अब गिनती करना है ,
पोल खुलेगी जल्दी ही, अब गिनती करना है.


सब ही सिर वाले तो सरदार बनेगा कौन?
दार पे चढ़ने वालों की अब गिनती करना है.


एम् .पी. बन के हर कोई उल्टा [p.m.] होना चाहें,
किसकी लगती वाट, अब गिनती करना है.


जल धरती का सूख रहा, हम बौनी कर बैठे!
फसल पे कितने हाथ? अब गिनती करना है.


देख लिया कंधार , अब अफज़ल को देख रहे,
दया  - धरम फिर साथ?, अब गिनती करना है!!!


-मंसूर अली हाश्मी

Friday, April 24, 2009

Untold...!

रिहाई के बाद- वरूण 

# होश में ही बक रहा हूँ, सुन लो अब,

लाल गुदरी का हूँ, मैं लाला नही हूँ।*


* [बक रहाहूँ जुनूँ में क्या-क्या कुछ,
कुछ न समझे खुदा करे कोई।]-ग़ालिब


#- मेहरबानी वह भी कांटो पर करूँ?
पाऊँ के ग़ालिब का मैं छाला नही हूँ।*

*कांटो की ज़ुबा सूख गयी प्यास से यारब,
एक आब्ला-ए- पा रहे पुर-खार में आवे।]- ग़ालिब
-मंसूर अली हाश्मी.

Sunday, April 12, 2009

A True Lie/सच्चा झूठ

सच्चा झूठ

एक बत्ती कनेक्शन दिए है,
जिनके घर में न जलते दीये है.

चाक कपडे, फटे पाँव लेकिन,
होंठ हमने मगर सी लिए है.

हम न सुकरात बन पाए लेकिन,
ज़हर के घूँट तो पी लिए है.

सच की सूली पे चढ़ के भी देखा,
मरते-मरते मगर जी लिए है.

हाथ सूँघों हमारे ऐ लोगों,
हमरे पुरखो ने भी 'घी' पिये है.

'सच्चे-झूठो' की हमने कदर की,
'कुछ' मिला है तो 'कुछ' तो दिए है.

-मंसूर अली हाश्मी

Friday, April 10, 2009

OFTEn /अक्सर

अक्सर
में अक्सर कामरेडो से मिला हूँ ,
में अक्सर नॉन -रेडो से मिला हूँ. [जिन्हें अपने ism [विचार -धारा से सरोकार नही रहा]

केसरिया को बना डाला है भगवा,
में अक्सर रंग-रेजो से मिला हूँ. [रंग-भेद/धर्म-भेद करने वाले]

मिला हूँ खादी पहने खद्दरो से,
में अक्सर डर-फरोशो से मिला हूँ. [ अल्प-संख्यकों को बहु-संख्यकों से भयाक्रांत रखने वाले]

मिला हूँ पहलवां से, लल्लुओं से,
में अक्सर खुद-फरेबो से मिला हूँ. [दिग्-भर्मित]

मिला हूँ साहबो से बाबूओ से,
में अक्सर अंग-रेजो से मिला हूँ.

न मिल पाया तो सच्चे भारती से,
वगरना हर किसी से में मिला हूँ.

*
अक्सर*= यानी बहुधा , सारे के सारे नही ! यह व्याख्या भी कानून-विदो के संगत की सीख से एहतियातन
अग्रिम ज़मानत के तौर पर कर दी है - वरना , ब्लागर डरता है क्या किसी से?
-मंसूर अली हाशमी

S H O E S




उड़ती हुई गाली 






निशाना चूक कर भी जीत जाना,
अजब अंदाज़ है तेरा ज़माना.

चलन वैसे रहा है ये पुराना,
मसल तब ही बनी है ''जूते खाना''.

बढ़ी है बात अब शब्दों से आगे,
अरे Sir ! अपने सिर को तो बचाना.

कभी थे ताज ज़ीनत म्यूजियम की,
अभी जूतों का भी देखा सजाना. 

कभी इज्ज़त से पहनाते थे जिसको#,
बढ़ी रफ़्तार तो सीखा उडाना.

शरम से पानी हो जाते थे पहले,
अभी तो हमने देखा मुस्कुराना.

# जूतों का हार बना कर

-मंसूर अली हाशमी

Thursday, April 2, 2009

One Over

एक ओव्हर {यानि ६ अलग-अलग बोल}

१-तब गलत बोल बुरे होते थे,
   अब गलत
ball बड़े होते है,

२-तब 'पलट बोल' के बच जाते थे,
    अब तो '' पलटे '' को छका [sixer] देते है .

३-अब तो बोलो की कदर ही क्या है,
    तब तो सिर* पर भी बिठा लेते थे.

-बोल - noBall में घटती  दूरी,
    जैसे गूंगो के बयाँ होते है.


५-तारे* बोले तो ग्रह [वरुण] चुप क्यों रहे?
    घर के बाहर भी गृह [cell] होते है.


६-dead बोलो पे भी run-out*  है,
   थर्ड अम्पायर [तीसरा खंबा]* कहाँ होते है?

*[नरीमन कांट्रेक्टर-इंडियन कैप्टेन]
*  बड़े नेता

 * बच निकलना

*न्याय-पालिका

मंसूर अली हाशमी

Friday, March 13, 2009

आत्म घात्

आत्म घात् !


ख़ामोश दिवाली देख चुके, अब सूखी होली खेलेंगे,
हुक्मराँ हमारे जो चाहे, वैसी ही बोली बोलेंगे।
वारिस हम थे संस्कारो के,विरसे में मिले त्यौहारो के,
वन काट चुके, जल रेल चुके, किसके ऊपर क्या ठेलेंगे ।

-मंसूर अली हाशमी 












Saturday, February 14, 2009

Valentine Day

वेलेंटाइन डे

तितलियों के मौसम   में  चद्दिया उडाई है,
कौन आज गर्वित है,किसको शर्म आयी है?

घात इतनी 'अन्दर'तक किसने ये लगायी है?
संस्कारो की अपने धज्जियां उड़ाई है।

रस्म ये नही अपनी,फ़िर भी दिल तो जुड़ते है,
रिश्ता तौड़ने वालों कैसी ये लड़ाई है!

दिल-जलो की बातों पर किस से दुशमनी कर ली!
ये बहुएं कुल की है, कल के ये जमाई है।

चद्दियां जो आई है,ये संदेश है उसमे,
लाज रखना बहना की, आप उनके भाई है।

प्यार के हो दिन सारे, ये मैरी तमन्ना है,
वर्ष के हर एक दिन की आपको बधाई है।

-मन्सूर अली हाशमी






Friday, February 13, 2009

Assurance!

 आश्वासन [दिलासा]
 

'बात झूठी है'; ये सच्चाई तो है,
बोल पाना 'यहीं' अच्छाई तो है।


क़द न बढ़ पाया; कि अवसर न मिले,
मुझसे लम्बी मैरी परछाई तो है।


दौरे मन्दी में थमी है रफ़्तार,
एक बढ़ती हुई महंगाई तो है।


कौन क्या है? ये कुछ पता न चला!
हम किसी चीज़ की परछाई तो है।


ख़ुद-फ़रेबों* की नही भीड़ तो क्या,
'मौसमे प्यार'* में तन्हाई तो है।


*ख़ुद फ़रेब = स्वय को धोका देने वाला, * मौसमे-प्यार = valentine day


-मन्सूर अली हाशमी[१३.०२.०९]

Sunday, February 8, 2009

kaleidocopic view

 बनना 

बस्ती जब बाज़ार बन गयी,
हस्ती भी व्यापार बन गयी।

भिन्न,विभिन्न मतो से चुन कर,
त्रिशन्कु सरकार बन गयी।

लाख टके की बात सुनी थी,
सुन्दर नैनो कार बन गयी।














अपनी ही लापरवाही तो,
आतंक का हथयार बन गयी।

लोक-तन्त्र की जय-जय,जय हो,
राजनीति घर-बार बन गयी।
Note: {Pictures have been used for educational and non profit activies. 
If any copyright is violated, kindly inform and we will promptly remove the picture.}
-मन्सूर अली हाशमी

Friday, February 6, 2009

New Age

नया ज़माना 

पालतू कुत्ते का काटा माफ़ है,
इस तरह का आजकल इन्साफ है.


कसमे,वादे, झूठ, धोखा, बे-रुख़ी ,
लीडरी के सारे ये औसाफ* है.


है बहुत अंधेर की गर्दी यहाँ,
आजकल बिजली यहाँ पर आँफ है।


इसलिए हालात काबू में नही,
कम कमाई में अधिक इसराफ़* है.


धर्म के हीरो अमल में है सिफर,
बौने क़द भी लग रहे जिराफ है.


जिनकी सूरत और सीरत नेक है,
आईने की तरह वो शफ़्फ़ाफ़ है।


#ज़र्फ़ की इतनी कमी पहले न थी,
बर्फ से भी तुल रही अस्नाफ* है.




[#अन्तिम शेर निम्न शेर से प्रेरित है:-
'यही मअयारे* तिजारत है तो कल का ताजिर
बर्फ़ के बाँट लिये धूप में बैठा होगा।'
*स्तर 


*औसाफ़= विशिष्टताएं, इसराफ़=फ़िज़ुल-ख़र्ची, अस्नाफ़=वस्तुएं
-मंसूर अली हाशमी      

Monday, February 2, 2009

ज़िन्दगी ?/What is Life?

--------------आदमी इस लिये नही मरता------------------
ज़िन्दगी ख्वाहिशो का मरकज़* है
आरज़ूओं का एक मख़्ज़न* है
ख़ुशनुमा फूल, बहता झरणा है
काम ही इसका आगे बढ़ना है।

ज़िन्दगी रौशनी की महफ़िल है
जिस से ये काएनात झिल-मिल है
है हवा पर सवार यह तो कभी
मौजे दरया,सुकूने साहिल है।

ज़िन्दगी क्या है?, माँ का आँचल है
साया जिससे मिले वह बादल है
जज़्ब* कर सब बुराई अपने में
शुद्ध पानी जो दे वह छागल है।

रौ के हँस पड़ना इसकी फ़ितरत है
हँस के आँखे भिगोना आदत है
दूर से ही सुनाई देती है
सुमधुर ज़िन्दगी की आहट है।

प्यार, रिश्ते, वफ़ा, जफ़ाए भी
नाज़, नख़रे, सितम, अदाएं भी
तपता सहरा घनी घटाएं भी
ज़िन्दगी है परी-कथाएं भी।

आस्मानो से इसका रिश्ता है
सज्दा इसको करे फ़रिश्ता है
इसकी रुदाद* तो नविश्ता* है
ज़िन्दगी नग़्म-ए-ख़ज़िश्ता* है।

मठ के निकली है यह समुन्दर से
दूसरा नाम इसका अमृत है,
मौत से हार कैसे मानेगी
यह तो एक मोअजेज़-ए-कुदरत है*

आदमी ज़िन्दगी का हामिल है
ज़िन्दगी को ख़ुशी यह हासिल है
वो जो दुश्मन है इसका, ग़ाफ़िल है
ज़िन्दगी आदमी में कामिल है।

ज़िन्दगी इक अजर-अमर शै* है
जिस्मे आदम तो इक लबादा* है
यह बदल भी गया तो क्या ग़म है
आदमी ज़िन्दा है-पाईन्दा* है।

*मरकज़=सेन्टर, मख़ज़न=स्टोर, जज़्ब=सोख लेना,
रुदाद=दास्तान, नविश्ता=लिखी हुई, ख़ज़िश्ता=मुबारक
मोअजेज़-ए-कुदरत=ईश्वरीय चमत्कार,शै=वस्तु
लबादा=पौशाक, पाईन्दा=सदा कायम रहने वाला
 
[संजय भारद्वाज जी की रचना 'ये आदमी मरता क्यों नहीं है" एवं
नीरज जी के ब्लोग से प्रभावित होकर यह रचना रचित हुई है।]
-मंसूर अली हाशमी 

Friday, January 30, 2009

चन्द्र ग्रहण /Eclipsed Moon

कौन फिजा?, कैसा चाँद? #

चाँद पहले फ़िज़ा में गुम था कहीं
हर तरफ़ चाँदनी थी छिटकी हुई।
अब फ़िज़ा से ही गुम हुआ है चाँद
और फ़िज़ा रह गयी बिलखती हुई।  




#चंडीगढ़ से नक्षत्र-दर्शन

Monday, January 5, 2009

ग़ज़ल-३

ग़ज़ल-3

चाँद शरमाए अगर देखे तेरी तनवीर* को,
आईना क्या मुंह बताएगा तेरी तसवीर को।



पे-ब-पे* अज़्मो-अमल नाकाम होते ही रहे,
मेने इस पर भी न छोड़ा दामने तदबीर# को।


रंज में, ग़म में, अलम में*  मुझको हँसता देखकर,
बारहा# रोना पड़ा है गर्दिशे तक्दीर को।



वो ही देते है मेरे शेअरो की कीमत हाशमी,
जानते है जो मेरी तेहरीर को तकरीर को।


*चमक, रौशनी
*लगातार
#कौशिश
*दुखो की कष्टप्रद स्थिति
#अक्सर

म् हाशमी।

Determination/संकल्प

संकल्प [अज़्म]

गर अज़्म अमल* में ढल जाए,
हर मौज किनारा बन जाए।


हिम्मत न अगर इन्साँ हारे,
हर मुशकिल आसाँ हो जाए।


गर आदमी रौशन दिल करले,
दुनिया में उजाला हो जाए।


इन्सान जो दिल को दिल कर ले,
हर दिल से नफ़रत मिट जाए।


जो दिल ग़म से घबराता है;
वह जीते-जी मर जाता है,
जो काम न आए दुनिया के;
वह हिर्सो-हवस# का बन्दा है।


*कार्यान्वयण
# लालच व स्वार्थ


म.हाशमी।

Sunday, January 4, 2009

Ghazal-2

ग़ज़ल-2

रात रोती रही,सुबह गाती रही,
ज़िन्दगी मुख्तलिफ़ रंग पाती रही।


शब की तारीकियों में मेरें हाल पर,
आरज़ू की किरण मुस्कुराती रही।


सारी दुनिया को मैने भुलाया मगर,
इक तेरी याद थी जो कि आती रही।


मैं खिज़ा में घिरा देखता ही रहा,
और फ़सले बहार आ के जाती रही।

हाशमी मुश्किलों से जो घबरा गया,
हर खुशी उससे दामन बचाती रही।


म्। हाशमी