अजित वडनेरकरजी की आज की पोस्ट "शब्दों का सफर" पर ' हज को चले जायरीन' पढ़ कर...
सवारी शब्दों पर
सफ़र दर सफ़र साथ चलते रहे ,
श-ब-द अपने मा-अ-ना बदलते रहे.
पहाड़ो पे जाकर जमे ये कभी,
ढलानों पे आकर पिघलते रहे.
कभी यात्री बन के तीरथ गए,
बने हाजी चौला बदलते रहे.
धरम याद आया करम को चले,
भटकते रहे और संभलते रहे.
[निहित अर्थ में शब्द का धर्म है,
कि सागर भी गागर में भरते रहे.
''अजित'' ही विजीत है समझ आ गया,
हर-इक सुबह हम उनको पढ़ते रहे.]
-मंसूर अली हाशमी
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Thursday, June 11, 2009
Wednesday, October 15, 2008
consumer fouram
तीसरा खंबा: कानूनी सलाह : क्या वकील का मुवक्किल एक उपभोक्ता है?
हम को उपभोक्ता बना लीजे ,
फीस जितनी भी हो बढा दीजे,
आप लड़िये हमारे खातिर ही,
बीच* वालो को सब हटा दीजे.
*फोरम्स
एम्. हाशमी
हम को उपभोक्ता बना लीजे ,
फीस जितनी भी हो बढा दीजे,
आप लड़िये हमारे खातिर ही,
बीच* वालो को सब हटा दीजे.
*फोरम्स
एम्. हाशमी
litrature, politics, humourous
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Sunday, October 12, 2008
भाई का डर
दिनेश राय जी द्विवेदी के लेख से प्रभावित हो कर्……।
है विषय आपका लाँ & ओँर्डर,
ज़िक्र करते है हम सभी अक्सर,
व्याख्या आपकी बहुत सुन्दर,
"भाई" कह्ते है-ला… नही तो डर्।*
[*लाँ or डर]
मन्सूर अली हाशमी
है विषय आपका लाँ & ओँर्डर,
ज़िक्र करते है हम सभी अक्सर,
व्याख्या आपकी बहुत सुन्दर,
"भाई" कह्ते है-ला… नही तो डर्।*
[*लाँ or डर]
मन्सूर अली हाशमी
litrature, politics, humourous
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