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Wednesday, October 22, 2008

पत्नी बनाम प्रेयसी

असाहित्यिक प्रेरणा !

  साहित्य का एक 'कला' के तौर पर विकास होने के बावजूद सम्पूर्ण मानव समाज ने,इसके बहुसंख्यक वर्ग ने साहित्य को समाज के परिप्रेक्ष्य ही में देखा और मूल्यांकन किया है। इसलिये स्वतंत्र और निष्पक्ष विचार धाराये, इस समबंध में आमंत्रित किये जाने [बौद्धिक और साहित्यिक वर्ग के विद्वानो से] पर भी प्रेयसी का प्रेरणा वाला स्वरूप और समाज में उसके लिये कोई प्रतिष्थित स्थान तलाशने की कौशिश का कोई हल नही निकला है।
एक सामाजिक प्राणी होने के नाते एक साहित्य्कार का सामाजिक मूल्यो के प्रति झुकाव नैसर्गिक है और अपेक्षाक्रत अधिक बजाय कला समर्पिता के।
अब प्रश्न यह उपस्थित होत है कि साहित्य जो कि एक कला है को समाज से किस सीमा तक निर्दिष्ट होना चाहिये विशेषकर प्रेयसी से प्रेरणा प्राप्त करने वाले पहलू पर?
साहित्यकार, जो कि एक कला का प्रतिनीधि है का समाज से या समाज के व्यक्ति[प्रेयसी/प्रेमी] से प्रेरणा प्राप्त करना वर्जित तो नही है परंतु एसा करते हुए वह उस समाज के बंधनो से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रभावित अवश्य होता है, उसकी मर्यादाओं से प्रतिबंधित ज़रूर होता है।
यही प्रतिबंध या अवरोध हटाने की ख़ातिर श्री जैनेन्द्र कुमारजी के ज़हन में यह विचार उपजा कि:-
साहित्यकार को प्रेरणा प्रदान करने वाले पात्र [प्रेयसी/प्रेमी] को न्याय संगत स्थान दिलाया जाए!
इसी विषय के औचित्य पर विभिन्न समकालिक साहित्यकारो,विद्वानो ने पक्ष-विपक्ष में तर्क प्रस्तुत किये। मगर बात आगे नही बढ़ी, बढ़ भी नही सकती थी। समाज की रुढ़िवादिता एसे किसी विचार का
स्वागत कर ही नही सकती।
तब फ़िर "प्रेरणा" 'प्रदान' करने वाली इस महत्वपूर्ण "कड़ी" से सम्बंधो को क्या असंवैधानिक ही रहने दिया जाये?……………यहाँ तक …पहुंचते-पहुंचते इस विषय की गंभीरता से इतना 'बोर' हो गया हूँ कि……………अब मूड बदल कर ख़ुद के साथ आपका भी मनोरंजन  करदूं!
थोड़ा कल्पनाशीलता का सहारा लेना पड़ेगा! चलेगा न?

माना कि साहित्य रचना के मुख्य प्रेरणा स्त्रोत यानि प्रेयसी/प्रेमी को समाज व साहित्यिक बिरादरी ने मान्यता प्रदान करदी……सामाजिक प्रतिबंधो के ये कोष्ठक खुलते ही रोमांचित हो कर भावुक साहित्यकार प्रणय रस के सागर में गौटे लगाने लगे! एसे ही लोमहर्षक पल में एक विख्यात, प्रबुद्ध और छह दशक से साहित्य सेवा में रत श्री प्रभात कुमार जी ने नयी स्फ़ूर्ति और जोश से कलम थामा तो उससे पहला साहित्यिक [प्रेम] पत्र यूँ रचित हुआ:-

"किरण",
स्वच्छंद,निर्मल, मेरी रचना की प्रेरणा किरण, प्रभात की किरण यानि मेरी  किरण्।
तुम्हारी यादों के प्रकाशमय उजालो से अब भी प्रेरित हो रहा हूँ। साहित्य रचना में बाधक सामाजिक प्रतिबंध हटने के शुभ अवसर पर अब चार दशकोपरांत तुमसे संवाद स्थापित करने का प्रयत्न कर रहा हूँ।
जीवन की इस सुरमई संधया में तुम्हारी कल्पना की सुनहरी किरणे मुझे भाव-विभोर किये दे रही है।
प्रेरणा के सागर में, .......नही !… इतनी विशालता की भी आवश्यकता नही, बल्कि मेरी प्रेरणा के मूल बिंदू यानि तुम्हारे रूपहले गालो का वह छोटा सा गडडा [डिम्पल], जिस में मेरा दिल जा समाया था; में गोटा लगाकर साहित्य-संसार को नये आयाम देना चाहता हूँ।
कैसे और कहाँ मिलूँ?…।

दर्शनाभिलाषी,
'प्रभात'

प्रत्युत्तर में जो पत्र प्रभातजी को प्राप्त हुवा, उद्घ्रत न किया जाये तो बात अधूरी रहेगी!

आदरणीय प्रभात कुमारजी,
आशीर्वाद!
ईशवर आपको क्षमा करे कि यह अनर्थ आपने जान-बूझकर नही किया कि मुझ सन्यासिनी को आपने सांसारिकता से ओट-प्रोत वाणी में विलासिता का विषय जान अपने साहित्य में प्रयुक्त किया।
पन्द्रह वर्षो तक विधवा जीवन  का    संताप सहने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंची कि सन्यास ही मोक्ष का उत्तम पथ हो सकता है। मैरी पौत्री ने आपका पत्र हरिद्वार मुझे पोस्ट किया। हाथ कंपकपाए… मगर द्र्ढ़ मन से आपकी पाती पढ़ ही डाली। त्याग की भावना मन को कितनी द्र्ढ़ता प्रदान करती है, शायद आपको अनुभव न हो। मै, व्यथित हुई आप भद्र-पुरुष की मनोदशा पर किंतु विचलित नही।

'प्रेम' भी 'मोक्ष' का एक पथ है, मगर कौनसा प्रेम?…… आप वाला तो निश्चित ही नही जो कि स्वार्थ परित है। आपका 'प्रेम' प्रेरणा प्राप्ति के स्वार्थ की सीमा तक ही है अपने 'प्रेरक' से, .......मूल प्रेम तो आपको अपनी रचनाओं से है। सत्य की कटुता शायद आप बरदाश्त न कर सको मगर उसे प्रकट न करना भी तो पाप ही है…………आपकी प्रेरणा का वह मूल बिंदू वह छोटा सा या हल्का सा गडडा [डिम्पल] अब "खाई" की सूरत में परिवर्तित हो गया है, दाँतो का ढांचा दह जाने से,ऐसे  में आपके "दिल" की 'सुरक्षा' के लिये मै प्रार्थना ही कर सकती हूँ।

सिर्फ़ प्रभु की,
"किरण श्री"

-मन्सूर अली हाशमी