'अजित वडनेरकर जी ने आज 'हवा' से अठखेली की है फेसबुक पर , कुछ इस तरह :
" हमारे आसपास जो कुछ है सब हवा ही तो है "
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[ कृपया इस विचार को छान्दोग्योपनिषद के चतुर्थ अध्याय या हजारी प्रसाद द्विवेदी के अथ रैक्व आख्यान (अनामदास का पोथा) से न जोड़ा जाए। ये नितांत मेरी अपनी अनुभूति है। हाँ, रैक्व की तरह मैं कनफुजिया साबित हो सकता हूँ। तब की तब देखी जाएगी। ...और यह भी कि मैं पीठ नहीं खुजा रहा A.W.]
तो चलिए आज हवा ही को बांधते है:
"बुलबुल के कारोबार पे है खन्द हाए गुल,
कहते है जिसको इश्क़ ख़लल है दिमाग़ का !"
चचा ग़ालिब के इस शेर की तरह आपका आपका मिसरा या फ़िक़रा
" हमारे आसपास जो कुछ है सब हवा ही तो है " भी रहस्यमयी लगा . इस 'हवा' को टटोलना बड़ा मुश्किल लग रहा है ! फिर भी कुछ यूं कौशिश की है :-
[ कृपया इस विचार को छान्दोग्योपनिषद के चतुर्थ अध्याय या हजारी प्रसाद द्विवेदी के अथ रैक्व आख्यान (अनामदास का पोथा) से न जोड़ा जाए। ये नितांत मेरी अपनी अनुभूति है। हाँ, रैक्व की तरह मैं कनफुजिया साबित हो सकता हूँ। तब की तब देखी जाएगी। ...और यह भी कि मैं पीठ नहीं खुजा रहा A.W.]
"हवा"
जो कुछ है आस-पास हवा ही हवा तो है ,
'रूहों' का इसमें वास है; हमने सुना तो है.
इसमें 'हवस', तमस, है तो खुश्बूए गुल भी है,
सौ मर्ज़ की जनक भी, मुकम्मिल दवा तो है.
करती है 'साएँ-साएँ जब माहौल तंग हो,
हो साथ दिलरुबा ! ये बड़ी ख़ुशनुमा तो है.
तूफाँ पे हो सवार तो ज़ेरो-ज़बर करे,
और मौसमे बहार की दिलक़श फिज़ा तो है.
'मुवाफ़िक़'* न हो 'हवा' तो ठिकाने बदलते लोग, *suitable
तंग हो गयी ज़मीन ? अभी आसमाँ तो है.
जलवे 'हवा-हवाई' के देखे हज़ार बार,
मिलवाए मुझको यार से बादे सबा तो है.
तुम भी ये कह रहे हो कि सब कुछ हवा तो है
लो, हम भी मान लेते है ; सब कुछ हवा तो है !
इज़हार 'हाशमी' ने मोहब्बत का यूं किया !
मरता है तुम पे कौन? तुम्हे भी पता तो है !!
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Mansoor ali Hashmi