परीक्षा .....चरवाहे की !
आज [२३-०३-२०१२] के समाचार पत्रों से प्रेरित.....
# अपनी 'भेड़ो' को हांक लाये है,
'पर्वतो' से ये भाग आये है.
# भेड़े वैसे तो शोर करती नहीं,
फिर भी 'गुपचुप' हंकाल लाये है.
# 'ऊन' है, 'दूध-ओ-गोश्त' है इनमे,
इस लिए तो ये दिल लुभाए है.
# 'भेड़े' बनकर न 'घोड़े' बिक जाए,
खौफ़ इनको यही सताए है.
# 'चारागाह' और भी है 'चरवाहे',
मुफ्त का 'चारा' सब को भाये है.
# 'पंजा' बालो को नोच ले न कहीं,
'संघ' के आश्रय में लाये है,
# खौफ़ है बेवफाई का इनसे !
यूं 'महाकाल' याद आये है !!
--mansoor ali hashmi
6 comments:
सुंदर
खूबसूरत तंज है।
समाचार पत्रों की कतरनों को नज़रंदाज़ कर दें तो कविता मय मंसूर अली हाशमी भाजपा का ध्वज* नज़र आई :)
ध्वज में कलर काम्बिनेशन यही और इतना ही है शायद :)
बहुत तीखा। बहुत ही तीखा। बहुत-बहुत तीखा व्यंग्य है हाशमी साहब। आपकी कलम को सलाम। समय और समाज को आपकी बहुत ही जरूरत है। आपको हमारी उम्र लगे।
@ अली
५ मेगा पिक्सेल लेंस के मोबाईल ने अखबारी पन्ने के पिछली तरफ के रंग झलका दिए है, जो कि इत्तेफाक से धवज के रंग को प्रतिबिंबित कर गए है. यह एक हसीन इत्तेफाक है, कविता के भाव की पुष्टि करते हुए एक नया अर्थ दे गयी है, यह खोज आपकी 'असीमित मेगा पिक्सेल शक्ति' से ही संभव हुई.
खौफ में अच्छे अच्छों को महाकाल याद आ जाते हैं....:) बहुत खूब!!
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