बदलती परिभाषाएं !
पारदर्शिता' का सन्देश हुआ यूं व्यापक,
नग्न होने को ज़रूरत नहीं हम्माम की अब.
'साफगोई' का चलन जब से बढ़ा, ये देखा,
गालियों से भी क़दर बढ़ती है, इंसान की अब.
हुस्न के, जिस्म के, बदले है मआनी कैसे,
लो उठा शोर,कि शर्ट फटती है, 'सलमान' की अब.
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बदलता ज़माना !
'चारागर' ही को ज़रूरत है, मुआलिज की अभी,
खुद 'मुआलिज' ही भरोसे पे है भगवान के अब.
अब 'रफूगर' का गिरेबाँ ही मिला चाक हमें,
पैराहन फैंक दिया, 'मजनूं' ने किस शान से अब
'दार्शनिक' ख़ुद को दिखाने पे तुले है अबतो,
थे जो 'प्रसिद्द', वही दिखते है, अनजान से अब.
अब तो 'ईमान' की दाढ़ी में दिखे है तिनके,
और 'चोरो' को निगहबानी के फरमान है अब.
'राहबर' है मुतलाशी, किसी भटके जन का,
'राहज़न', फर्मारवाओं के जो मेहमान है अब.
'ज्ञान-भंडार' सुरक्षित हुए अब 'चिप्सो' में,
'पुस्तकालय', नज़र आते है, वीरान से अब.
'सब्र' ने फाड़ दिया अपना ही दामन अबतो,
'जब्र' के खेमे में होने लगी सुनवाई है अब.
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-- mansoor ali hashmi