नि:शब्द!
[अजित वडनेरकर जी की अ-कविता रूपी कविताओं से किंक्रतव्यविमूढ़
होकर............]
अर्थो का क़र्ज़ लाद के अब चल रहे है हम.
शब्दों के कारोबार में कंगाल हो गए,
अर्थो को बेच-बेच के अब पल रहे है हम.
शाश्वत है शब्द, ब्रह्म भी, नश्वर नहीं मगर,
अपनी ही आस्थाओं को अब छल रहे है हम.
तारीकीयों से बचने को काफी चिराग़ था,
हरसूँ है जब चरागां तो अब जल रहे है हम.
तामीर होना टूटना सदियों का सिलसिला,
बस मूक से गवाह ही हर पल रहे है हम.
हम प्रगति के पथ पे है, ऊंची उड़ान पर,
कद्रों* की बात कीजे तो अब ढल रहे है हम.
*मूल्य [values]
mansoorali hashmi
mansoorali hashmi