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Monday, August 31, 2009

मन्ज़िले मक्सूद



मंज़िले मकसूद
[बीसवीं सदी (उर्दु मासिक पत्रिका,दिल्ली) मे 2005 प्रकाशित कहानी-लेखक द्वारा ही हिन्दी में अनुवादित]


बस में खिड़की के पास बैठना नईम को ज़्यादा पसन्द था लेकिन फ़िल्हाल उसे लड़की के पास बैठना पड़ा क्योंकि खिड़की के पास वह बैठी हुई थी और केवल उसके पास वाली ही एक सीट ख़ाली बची थी। वह लड़की किसी पत्रिका में गुम थी, गुम रही। नईम की मौजूदगी का कोई असर प्रत्यक्ष रूप से उस पर दिखाई नही दे रहा था। नईम ने पत्रिका के पन्ने पलट्ते हुए देखा कि लड़की के पास भी वही पत्रिका है, फिर न जाने क्या सोच कर इसने अपनी पत्रिका बंद करदी। अब कुछ न करने की सूरत मे, खिड़की से बाहर देखने की कौशिश में पहले उसकी नज़र लड़की के रुख़सार से टकराई, कुछ पल हैरानी मे तकता ही रह गया उसकी सुन्दरता। लड़की के चेहरे पर मुस्कुराहट थी मगर नज़रें पत्रिका पर ही थी। ये मुस्कुराहट नईम की हरकत पर थी या लेख के किसी वाक्य पर; नईम तय नही कर पाया। अपनी झेँप मिटाने के लिये कलाई घड़ी देखने लगा।
नईम अपने मित्र मक़्सूद के घर जा रहा था, क्रिस्मस की एक सप्ताह की छुट्टियाँ बिताने। शहर के एक कॉलेज में वह लेक्चरर था। मक़्सूद कृषि-विझान की पढ़ाई कर गाँव मे अपने खेतो पर नये प्रयोग करने चला आया था।

रास्ते मे एक स्टाप पर बस ठहरी। लड़की ने पत्रिका बंद कर एक अंगराई ली; एक सिमटी हुई सी अंगराई जो उसकी सीट की सीमा तक ही सीमित रही, लेकिन उसकी गौद में रखी हुई पत्रिका नीचे गिरी… नईम के पाँव पर्। वह सॉरी कह कर उठाने के लिये झुकी, नईम भी झुक चुका था- दो सर आपस में टकराएं, सॉरी की दो आवाज़े फ़िर गूंजीं…बस चल पड़ी। अब वो पत्रिका नही पड़ रही थी, खिड़की से बाहर खुले मैदान पर दृष्टि घुमा रही थी। नईम ने दिल में सोचा कि जब नयनाभिराम द्रश्य एवम हरियाली रास्ते में थी तब ये किताब में गुम थी, अब इस बंजर ज़मीन में क्या तलाश कर रही है? बड़ी रूखी तबियत की लगती है। अब वह पुन: अपनी मेग्ज़िन देख रहा था और चोर नज़रों से लड़की को भी। वो अपने हाथ पर बंधी घड़ी देख रही थी, फिर हाथ को धीरे से झट्का, नईम से न रहा गया वह अचानक बोल पड़ा…''सवा दस''। ''जी''! लड़की चौंक कर उससे सम्बोधित हुई। ''जी, हाँ सवा दस बजे है'', नईम ने दोहराया। लड़की सादगी से मुस्कुरादी। अब वो अपने घड़ी बंधे हाथ पर से कोई चीज़ अपने सीधे हाथ से साफ़ कर रही थी। नईम बुरी तरह झेंप गया। उसका ये अनुमान ग़लत निकला कि उसकी घड़ी बंद है। उसने स्पष्टीकरण का सोचा भी मगर वो लड़की फिर से बाहर की तरफ़ देख रही थी। नईम इस हरकत पर स्वयं पर झल्ला गया। लड़कियों की निकटता उसे इसी तरह की घबराहट में मुब्तला कर देती थी।
रानीगाँव के छोटे से बस स्टाप पर उतरने वाले वें दो ही मुसाफ़िर थे, लड़की भी यहीं उतर गयी थी। एक ही घोड़ा-गाड़ी मिली, जिस पर दोनो को सवार होना पड़ा । बस्ती यहाँ से थोड़े फ़ासले पर थी। लड़की ने सवार होने में पहल की थी। जब नईम ने गाड़ीबान को पता बताया तो लड़की ने चौंक कर उसकी तरफ़ देखा क्योंकि वो भी इसी पते पर जा रही थी। रास्ता ख़ामोशी में कटा। ''मन्ज़िले मक़्सूद आ गयी साहब", तांगे वाला एक बंगलेनुमा मकान के सामने गाड़ी रोकते हुए बोला। घर के बाहरी हिस्से पर 'मन्ज़िले मक़्सूद' लिखा हुवा था। मक़्सूद ने बाहर आकर दोनो का स्वागत किया।
''तुम दोनो एक-दूसरे से परिचित तो हो गये होंगे?'', चाय की मेज़ पर मक़्सूद ने ज़रीना से सवाल किया।
''नही'', ज़रीना का मुख़्तसर सा जवाब था।
''एक साथ आये और अभी तक अजनबी हो!'', मक़्सूद के लहजे में आश्चर्य था।
''बात करने के लिये भी कोई उचित कारण चाहिये, तर्क-शास्त्र की स्टूडेन्ट जो थहरी'', यास्मीन ने ज़रीना को छेड़ा। ज़रीना ने नईम की तरफ़ देखा- जैसे कह रही हो कि सफ़ाई तुम ही पेश करो।
''तुमने जवाब नही दिया ज़रीना?'' मक़्सूद ने भी उसे ही छेड़ा, वह उसके तर्को से लुत्फ़ लेना चाह्ता था।
''पहले आवश्यक है कि हम परिचित हो ले, फ़िर बहस होती रहेगी'', ज़रीना बोली, फ़िर नईम को सम्भोधित हुई, ''मुझे ज़रीना कहते है।'' नईम ने भी अपना नाम बताते हुए अभिवादन किया।
''ये मैरी छोटी बहन है'', यास्मीन बोली।
''और ये मैरे बचपन के मित्र और सह्पाथी और अब इतिहास के प्रोफ़ेसर है।'' मक़्सूद ने भी हिस्सा लिया।
''आप बुरा न माने तो आपा की बात का जवाब दूँ'', ज़रीना नईम से कह रही थी।
नईम ने ख़ुशदिली से कहा, ''ज़रूर-ज़रूर''
''सुनो आपा, ये नईम साहब जो है ना, लगता है लड़कियों से घबराते है।''
''तो कौनसी नई बात कही'', मक़्सूद ने अट्ठहास किया।
''आप चुप रहिये'', यास्मीन ने प्यार से डांटा।
ज़रीना ने नईम की तरफ़ देखा, जिसके चेहरे पर आश्चर्य मिश्रित मुस्कान थी, फिर बोली, ''पहला कारण तो ये कि जब ये साहब बस में सवार हुए तब पहली खाली सीट मैरे पास ही की देखी लेकिन फ़ौरन बैठे नही, बल्कि कोई और सीट तलाश करते रहे। और कोई सीट खाली न मिलने पर मजबूरन मैरे निकट बैठे, दूसरा कारण ये कि आप इस तरह सावधानी से सिकुड़ कर बैठे जैसे कोई लड़की किसी लड़के के पास जा कर बैठ रही हो।''
मक़्सूद ने एक ज़ोरदार क़ह्क़हा लगाया…, नईम कुछ झेंप सा गया…, यास्मीन ने टेबल के नीचे से पाँव को हरकत दी…, ज़रीना के मुंह से 'ऊई' की आवाज़ निकली, लेकिन वह अपनी बात आगे बढ़ाने के लिये फिर तैय्यार थी…
''मैं, इनसे बात शुरू कर भी देती लेकिन ये मैरी बजाय बस में बैठी एक अधेड़ उम्र औरत की तरफ़ आकर्षित दिखे।''
अब तो मक़्सूद उठ खड़ा हुवा। बोला- ''ज़रूर उसका चेहरा रज़िया सुल्ताना से मिलता होगा और ये हज़रत उसके चेहरे पर इतिहास का कोई पन्ना पढ़ रहे होंगे, वरना ये ऐसी हिम्मत कब कर सकते है।''
''नही भाई, मै तो वैसे ही बे-ख्याली में…'' नईम ने बोलना चाहा…
''आपकी बारी बाद में है, नईम भाई'', यास्मीन ने उसे टोका। नईम ने बेचारगी से मक़्सूद को देखा जिसके चेहरे पर शरारत खेल रही थी। फिर उसने ज़रीना की तरफ़ देखा, जैसे पूछ रहा हो और कुछ? वह कुछ सोचती हुई लग रही थी, अचानक बोल पड़ी…''हाँ! वह चाँद बीबी जैसी लगती थी।'' यास्मीन हँसते-हँसते दोहरी हो गयी थी। तभी मक़्सूद को कोई बुलाने आ गया और वह नईम को साथ लिये बाहर चला गया।
रात को खाने की मेज़ पर मक़्सूद ने फिर वही बात उठाई, ''हाँ भाई नईम, तुम क्या कहते हो?''
''आपकी साली साहबा के बारे में मैरा अंदाज़ा बिल्कुल ही ग़लत निकला, ये तो काफ़ी स्मार्ट निकली।''
ये वाक्य नईम ने जबकि बड़ी सादगी से अदा किया था, मगर ज़रीना को इसमे व्यंग का आभास हुवा और फ़ोरन बोल पड़ी, ''मगर मैरा अन्दाज़ा तो बिलकुल सही निकला।''
नईम और मक़्सूद के चेहरे प्रश्नवाचक बने हुए थे मगर दोनो बहनो के चेहरे पर मुस्कान थी। फिर मक़्सूद ने खेती-बाड़ी पर लेक्चर शुरु किया जो खाने के साथ ही समाप्त हुआ।
''आप ने नईम से ज़रीना के बारे में बात की थी?'' रात को बिस्तर पर यास्मीन ने पूछा।
''नही भई तुम पहले अपनी तार्किक बहन से तो बात कर लो, कहीं वो ये न पूछ ले कि शादी करने में क्या तुक है, क्या ज़रूरत है वग़ैरह-वग़ैरह्।"
''मैने बात कर ली है, कहती है विचार करेगी, आप कल नईम की राय तो जान ले- जोड़ी बड़ी अच्छी रहेगी।''
''अच्छी बात है'', उबासी लेकर मक़्सूद ने करवट बद्ली।
नईम और ज़रीना पहली मंज़िल के दो अलग-अलग कमरो में ठहराये गये थे, रात के ग्यारह बज रहे थे, नईम अबतक जाग रहा था, ज़रीना के कमरे की लाईट भी जल रही थी। अचानक नईम ने पास के कमरे से कोई आवाज़ आती हुई सुनी जैसे कोई बात कर रहा हो। बाहर गैलेरी में आकर साथ वाले कमरे की तरफ़ देखा। दरवाज़ा खुला हुवा था, उस पर पर्दा गिरा हुवा था। नईम अपनी जिझासा को न रोक सका, वह पर्दे के ज़रा करीब हुवा, ज़रीना एक आदमकद आईने के सामने खड़ी हुई थी, बिल्कुल एक मुल्ज़िम की तरह जो अदालत में अपनी सफ़ाई पेश करने खड़ा हो। यही उसकी आदत थी कि सोने से पूर्व वह आईने के सामने बैठ कर दिन भर की बातों पर विचार करती और किसी बात के उचित-अनुचित होने पर निर्णय करती।
मनुष्य बहुत सी अवास्तविक बातें भी अपने दिल से मनवा लेता है, खुद को झूठा दिलासा दे लेता है, स्वयं को भ्रमित रखना भी उसे अच्छा लगता है।
हक़ीक़त-पसन्दी ज़रीना के व्यक्तित्व का विशेष अंग रहा है, इसी आधार पर वह फ़ैसला भी किया करती है। खुद को फ़रारियत से बचाने के लिये वह आईने के सन्मुख हो जाया करती है, वह खुद से आंखे मिला कर हक़ीकत पसन्दाना फ़ैसला करती है। इस समय भी वह आईने के सामने खुद से संबोधित थी।
''सीधा-सादा है, बिल्कुल गांव के आदमियों की तरह।'' नईम उसकी आवाज़ सुनकर चौंका। अब वह पर्दे की झिरी मे से उसकी गतिविधि भी देख रहा था।
''मुझे तो नज़र उठा कर अब तक देखा भी नही है, मगर मैं तो ज़रीना तुझे…बिला जिझक देख सकती हूँ… वह अपने अक्स से ही सम्बोधित थी। वह बारीकी से ख़ुद का जायज़ा लेने लगी, फिर ख़ुद का ही मुंह चिढ़ाया… ''एसी कोई सुन्दर भी नही है तू'', मगर साथ ही साथ वह अपने लालिमा युक्त गोरे चेहरे की प्रशन्सा भी किये बिना न रह सकी, उसका चेहरा तो यही बता रहा था। फिर वह एक कुर्सी खींच कर आईने के सामने बैठ गयी, ख़ुद को थोड़ा गम्भीर बनाया- ''ये आपा ने भी अच्छी उलझन पैदा करदी है। अभी तो मैं शादी नही करुंगी।'' शादी शब्द पर वह थोड़ा सा शरमा गई। अक्स में उसने अपने आपको दुल्हन की सूरत में देखा, फिर दोनो हाथो से मुंह छुपा लिया - शरमा कर्। दुल्हन बनने के एहसास ने उसके दिल में अजीब कैफ़ियत पैदा करदी। ''मगर ये आपा भी मानने वाली नही है।'' ज़रीना के लहजे में अब नर्मी आ गयी थी। ''पढ़ा-लिखा है, सुन्दर है, अच्छे खानदान से है, आपा की कोई दलील कमज़ोर भी तो नही है। मगर वह स्मार्ट भी तो नही है! आपा को कौन समझाए?''
''स्मार्ट से तुम्हारा मतलब क्या है?'', वह अपने आप से प्रश्न कर रही थी। अब वह स्मार्ट आदमी की कल्पना कर रही थी- जो तस्वीर मस्तिष्क में उभरी वह नईम ही की थी, द्रश्य भी बस ही का था, वह एक सुन्दर सी लड़की से हंस-हंस कर बातें कर रहा था, उसने आईने पर अपना हाथ घुमाया जैसे वह यह तस्वीर मिटा देना चाहती हो, एक अजनबी लड़की से इतना बेतकल्लुफ़ होना भी अच्छी बात नही- उसने सोचा। अब वह अपना चेहरा घुमा-फिरा कर ख़ुद को शीशे में हर कोण से देख रही थी; जैसे कि वह खुद को समझने की कौशिश कर रही थी। नईम जो कि अबतक पूरा मामला समझ चुका था आश्चर्य मिश्रित प्रसन्नता से इस अजूबा लड़की को देख रहा था। अपनी इस हरकत को अनैतिक मानते हुए भी ख़ुद को वहाँ से हटा नही पाया कि ज़रीना की अदालत मे इसके ही भविष्य का फ़ैसला होने जा रहा था। ज़रीना की आवाज़ फिर उसके कानो से टकराई: ''ओह ख़ुदा! मैनें सुबह उन्हें क्या-क्या कह दिया है,मालूम नही मैरे बारे में क्या राय स्थापित की होगी, बस में हो सकता है किसी परिचित को देखने के लिये नज़र घुमाई हो या हो सकता है खिड़की के क़रीब वाली कोई सीट ढूंढ रहे हो, बाहरी द्रश्य देखने को बड़े बेताब जो नज़र आए थे। मगर वह चांद बीबी का क़िस्सा मैनें बेकार ही छेड़ा, उस औरत में उनको भला क्या दिलचस्पी हो सकती थी।, यह मैने अच्छा नही किया। शायद यह मैनें ख़ुद को स्मार्ट ज़ाहिर करने को किया हो……तब तो यह और भी गलत हुआ।'' अब ज़रीना की गम्भीरता में और इज़ाफ़ा हो गया था। उसने ख़ुद से सम्बोधित अपनी तकरीर जारी रखी- ''वो भले ही मक़्सूद भाई के बेतकल्लुफ़ दोस्त हो, मगर आपा के मेहमान भी तो है।"… इस ठंड भरी रात में भी ज़रीना की पेशानी पर पसीने की बूंदे उभर आई। शीशे पर बल्ब की रोशनी से प्रतिबिम्बित होकर इन बूंदो की चमक नईम तक भी पहुंची। पशेमानी के आलम में ज़रीना को अपनी पेशानी पर पसीने की ठंडी बूंदो का एह्सास हुआ। उसे यह सोच कर राहत मिली कि यह पश्चाताप का पसीना है। पसीना पोंछ्ने के लिये उसने अपना हाथ बढ़ाया और फिर रोक लिया-- ''नही यह पश्चाताप का बोझ अपनी पेशानी पर ही रहने दूंगी जब तक कि उनसे क्षमा न मांग लूँ।'' अब वह शांत नज़र आ रही थी, वह सोने जाने के लिये उठी, नईम भी हट चुका था।
सुबह जब नईम बाहर गैलेरी में आया तो नीचे बरान्दे में ज़रीना को गुलाब के फूलों की क्यारियों के निकट खड़ा पाया। वह भी उसी तरफ़ बढ़ गया अब वह क्यारियों के दूसरी तरफ़ जाकर ठीक ज़रीना के सामने खड़ा हो गया था। कंधे तक ऊंची क्यारियों की दूसरी तरफ़ ज़रीना आत्म विभोर होकर गुलाब के फूलों पर ओंस रूपी मोतियों की सुन्दरता निहार रही थी। नईम ने खंखार कर निस्तब्धता तौड़ी, ज़रीना चौंक पड़ी। अभी वह संभल भी न पाई थी कि नईम ने ये शेअरी तीर छोड़ा:-
''फूल के रुख़ पर नमी सी है जो उनके रु-ब-रु,
है निदामत* का अरक़, शादाबी-ए-शबनम* नही।''
*[पश्चाताप, **ओंस की ताज़गी]

ज़रीना का हाथ बौखलाहट में अपनी पेशानी पर चला गया जहाँ रात उसने अपनी निदामत क अर्क साफ़ नही किया था। अचानक हो गयी अपनी इस हरकत का एहसास होते ही वह लज्जा से लाल हो उठी, उसके गालो की लालिमा अब फूलों को भी शरमाने लगी। नईम उसके लज्जा और पश्चाताप में डूबे हुए चेहरे को प्यार भरी नजरों से देख रहा था। ज़रीना को अब वह दुनिया का सबसे स्मार्ट व्यक्ति नज़र आ रहा था। वह अपनी नज़रें उसके चेहरे पर से हटा नही पा रही थी। नईम भी उसकी गुलाबी आंखो से छलकती हुई सुरा पिये जा रहा था। ज़रीना का चेहरा भी उसे डाली पर लगा हुआ एक खिला हुआ गुलाब ही लग रहा था जो माली के हाथों चुन लिये जाने को बेताब दिख रहा था, संयम खोते हुए इस फूल को पाने कि तमन्ना में नईम ने सहसा अपना हाथ बढ़ाया लेकिन किसी फूल के कांटे ने उसके बढ़ते हुए हाथ को रोक दिया। उसकी उंगली पर खून की नन्ही सी बूंद उभर आई। ज़रीना ने उसके हाथ को अपने हाथ में लेकर खून साफ़ करना चाहा तब नईम ने उसे रोक दिया और बोला- ''यह पश्चाताप का नही मुहब्बत का अर्क है, सूर्योदय की इस लाली की तरह लाल'', उसने निकलते हुए सूरज की तरफ़ इशारा किया। इस दरमियान ज़रीना ने उसकी उंगली से मुहब्बत की इस लाली को अपने दुपट्टे में सोख लिया, मुहब्बत के इस रंग में चुनरी रंग कर वह आनन्दित हो उठी।
अब वह दोनो साथ-साथ चल रहे थे, कांटो और फूलो से भरी हुई इन झाड़ियों के आस-पास जो जीवन की सुख-दुख भरी पगडण्डी का एहसस दिला रही थी। झाड़ियों का सिलसिला ख़त्म हुआ- इन दोनो के दरमियान का फ़ासला भी। अब वें हाथों में हाथ लिये ''मन्ज़िले मक़्सूद'' की तरफ़ जा रहे थे। मक़्सूद और यास्मीन खिड़की में से इन्हें आता देख रहे थे। ''देखो तुम्हारी बहन ने मैरे भोले-भाले दोस्त को फांस ही लिया।'' मक़्सूद ने छेड़ा। यास्मीन कुछ न बोली, वह ख़ुश नज़र आ रही थी; बहुत ख़ुश!

-मंसूर अली हाशमी [रचना काल 1978]




Thursday, October 30, 2008

INSPIRATION







प्रेरणा/पकोड़ा !


डाँ। माथुर को आज क्लिनिक आधा घन्टा देरी से जाना था, सुनीता  का यही आग्रह था। तीन कप चाय और 8-10 पकौड़े बनाने के सम्बंध में जितनी चिन्तित सुनीता दिखी,उससे डाँ माथुर के आश्चर्य में वृद्धि ही हुई। उसे ये बात तो समझ में रही थी कि सुनीता  के साहित्य लेखन का प्रेरक आज पहली बार घर पर रहा था, बल्कि डाँ माथुर ही के आग्रह पर सुनीता ने उसे आज नाश्ते पर निमंत्रण दिया था। आठ बजने में यानि निश्चित समय में अभी पन्द्रह मिनट बाकी थे। घण्टी बजी, सुनीता  सहज ही दरवाज़े की तरफ़ लपकी……दूध वाला था। डाँ माथुर मन में बोले ये तो मेरी प्रेरक वस्तु लाया! दो मिनिट बाद पुन: घन्टी बजी, सुनिता उठते-उठते रह गयी, फ़ोन की घन्टी थी, किसी मरीज़ के फ़ोन की। आठ में पांच कम पर पुण: दरवाज़े की घंटी बजी। डाँक्टर ने अब उठना अपनी ज़िम्मेदारी समझा--सब्ज़ी वाला था, डाँ माथुर उसे क्लिनिक पर मिलने का कहने ही वाले थे कि सुनीता आगे बढ़ कर बोल पड़ी, "आईय-आईये" डाँ माथुर ने आश्चर्य चकित भाव से सुनीता को देखा! नयी वेश-भूषा में सुसज्जित आगन्तुक को सोफ़े पर बैठाते हुए पति से बोली,
"आप है श्री राजेश कुमार्।" नमस्ते का आदान-प्रादान हुआ। "चकित हुए ना", अब सुनीता पति से संबोधित थी। "आठवीं तक राजेश मेरा  सह्पाठी रहा है, मेरा कलम दोबारा कुछ रचता अगर इसने उस निबंध प्रतियोगिता में मेरा होसला बढ़ाया होता, जब क्लास के सारे बच्चे हँस पड़े थे और राजू अकेला ताली बजा रहा था; इतनी ज़ोर से कि सब की हँसी दब गयी।" "किस बात पर?" के जवाब में सुनीता ने बताया कि वह हड़बड़ाहट मेंबंदर-अदरक’ वाला मुहावरा उल्टा बोल गयी थी।
सब्ज़ी की ठेला गाड़ी पर खड़े-खड़े ग्लास से चाय पीने के आदी राजेश को कीमती चाइनीज़ कप-सॉसर थामने के लिये दोनो हाथ व्यस्त रखते हुए चाय पीने का मज़ा कम ही रहा था। उस कीमती वस्तु को संभालने की कौशिश में उसके हाथो की हल्की सी कंपन और उससे उत्पन्न संगीत डाँ माथुर का धयान आकर्षित किये बग़ैर रह सकी। डाँक्टर माथुर को सुनीता की प्रेरणा ने शायद निराश ही किया था। उनकी कल्पना में उच्च स्तर की साहित्य रचने वाली उसकी पत्नी का 'प्रेरक' [या प्रेमी] भी कोई 'शाह्कार' ही होगा मगर यह ठेले पर सब्ज़ी बेचने वाला राजू ?, शाकाहार निकला। किसी भी सूरत उनके गले नही उतर रहा था। चाय का आखरी घूंट गले से उतारते हुए डाँ माथुर ने यह सोचा फ़िर उस तीखी हरी मिर्च का वह टुकड़ा जो पहले इन्होने अपने पकोड़े में से निकाल लिया था, उठा कर चबा लिया! चाय की मिठास प्रेरणा के इस अनुपयुक्त लगे पात्र के प्रसंग से उत्पन्न कड़वाहट को दबाने के लिये?
अब डाँ माथुर पर अन्तर्मन से यह दबाव भी था कि घर आये मेहमान से कुछ बातें भी करे, औपचारिक ही सही, आखिरकार एक सवाल बना ही लिया- "राजेशजी आप को साहित्य में तो रूचि होगी ही? "जी हाँ, मै ब्लाँग लिखता हुँ। ''अरे,  बापरे!'' यह बोलते हुए अपना सिर थामने के लिये डाँ माथुर ने अपने दोनो हाथ उपर तो उठाये मगर सुनीता  से नज़र मिलते ही उसके डर से या सज्जनता वश, अपने उठे हुए हाथो को बाल संवारने के काम में लाते हुए वापस टेबल पर ले आये, धीरेसे। राजेश ख़ामोश ही रहा, उसको शायद डाँ साहब की आश्चर्य मिश्रित टिप्पणी समझ में नही आयी थी। इधर, सुनीता को यह अच्छा लग रहा था कि डाँ माथुर ने स्वयं ही राजेश से बात की शुरुआत की, अब वह निश्चिंत थी कि उसे अधिक बोलना नही पड़ेगा! सुनीता की नज़रों में अपने लिये प्रसंशा देख, डाँ माथुर ने ख़ुद ही बात आगे बढ़ाई, "क्या प्रिय विषय है आपका?"  ''सहकार'' राजेश ने उत्तर दिया, "यही सोचता हूँ, यही लिखता हूँ, यही जीता हूँ।
एक तरफ़ तो डाँ माथुर राजेश की इस दार्शनिक सोच पर चकित थे, दूसरी तरफ़ उनका दिमाग़ शब्दों की दूसरी ही गणित में उलझा हुआ था। वह मन ही मन दुहरा रहे थे---शाहकार- शाकाहार- सह्कार ! वह बोल भी पड़ते, सुनीता के गुस्से का डर होता तो। इस उधेड़-बुन में अगला सवाल यही बन पड़ा कि छपवाते कहाँ हो? "कही नही, ख़ुद के लिये लिखता हूँ, ख़ुद ही पढ़ता हूँ।" , राजेश का विनम्र जवाब था। अब सुनीता पहली बार बोली, "अरे! राजेश, तुमने पहले कभी बताया नही?''
राजेश का जवाब लम्बा हो यह सोचते हुए, उसके उत्तर देने से पहले ही डाँ माथुर ने जैसे आख़री सवाल के तौर पर पूछ लिया, "भाई कुछ सुनाते भी जाओ।
"आपका आग्रह है तो सुनिये:-
ज़िन्दगी गर नाव है तो,
हो सके पतवार बन जा,
शाहकारो की बहुलता,
हो सके 'सह्कार' बन जा।“
'बहुत बढ़िया' का कमेन्ट देते हुए डाँ माथुर पानी के बहाने उठ खड़े हुए, राजेश ने भी आझा चाह ली, सुनीता बचे हुए एक पकोड़े पर हाथ साफ़ कर रही थी।
-मन्सूर अली हाशमी