दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi said...
हुस्न सुंदरता के पर्याय के रूप में प्रयुक्त होता है। सुंदरता यदि शारीरिक हो सकती है तो मानसिक और व्यवहारिक भी हो सकती है। यह लेखकों की ही कमी है कि वे मानसिक और व्यवहारिक सुंदरता के लिए इस शब्द का प्रयोग बिरले ही करते हैं।
'खुमार बाराबंकवी' का यह शेर था ज़ेहन में जब द्विवेदी जी की उपरोक्त टिप्पणी पढ़ी :
"हुस्न जब मेहरबाँ हो तो क्या कीजिए,
इश्क के मगफिरत की दुआ कीजिए."
लेकिन द्विवेदीजी की सलाह पर अमल करते हुए कुछ इस तरह लिख गया, उनसे मा'ज़रत के साथ पेश है:
हुस्न 'प्रयत्न' से क्यूँ न हासिल करूं ?
'लवली-लवली' क्रीम लेके आया हूँ मैं.
'आशीर्वाद' ही लेता रहा अब तलक,
'कृपा-कृपा' ही अब दोहराता हूँ मैं !
'हुस्नो-अख़लाक़'* आदर्श जब से से बने, [*सद आचरण]
'धर्म ' अपना इसी को बताता हूँ मैं.
'मानसिक-सौंदर्य' के प्रदर्शन के लिए,
KBC* को एस एम् एस कर आया हूँ मैं. * [कौन बनेगा.....]
दोगलेपन के चोले से निकला तभी,
इक नए 'हाशमीजी' ! को पाया हूँ मैं.
mansoor ali hashmi