अच्छा तो हम
चलते है !
बयानों को वो अपने ख़ुद उगलते है, निगलते है,
सभी को मौक़ा मिल जाता यहाँ कुछ कर दिखाने का,
हमारे 'अर्थ' की अब है व्यवस्था ग़ैर हाथो में ,
उसे निबटा के रस्ते में , ये घर आकर
निबटते है.
उलटते है, पलटते है, अदलते है, बदलते है,
जहां सत्ता का
सुख मिलता, उसी जानिब फिसलते है.
बयानों को वो अपने ख़ुद उगलते है, निगलते है,
ये बेपेंदी के लौटे है, यहाँ से
वां लुढ़कते है.
सभी को मौक़ा मिल जाता यहाँ कुछ कर दिखाने का,
जो अनशन कर
नहीं पाए वो अब उपवास करते है.
उछाल आये जो डॉलर में तो रुपया पानी
भरता है,
बिगड़ जाता बजट तब, तेल के जब
दाम चढ़ते है.
हमारे 'अर्थ' की अब है व्यवस्था ग़ैर हाथो में ,
कोई खींचे है धागा , और हम बस
हाथ मलते है.
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mansoor ali hashmi