कैसे ये अपने रहनुमा है !
'ख़ास' बनने को चला था,
'आम' फिर 'बौरा' गया है।
'आदमी' की तरह ये भी,
मुस्कुराकर छल रहा है।
फल की आशाएं जगा कर,
फूल क्यों मुरझा गया है !
छाछ को भी फूँकता है,
दूध से जो जल चूका है।
जल चुकी थी ट्रैन, घर भी,
उठ रहा अबतक धुँआ है।
'चाय' बेचीं थी कभी, अब
'दल' से भी दिखता बड़ा है।
'आज्ञाकारी'* माँ का लेकिन, *राजकुमार
'भाषा' किसकी की बोलता है?
'फेंक' तो सब ही रहे है,
'झेल' वोटर ही रहा है।
'जीत' के मुद्दे थे जो भी,
हो गए अब 'गुमशुदा'* है। *मंदिर/महंगाई
--mansoor ali hashmi