देखा है...
उनका चेहरा उदास देखा है,
ज़ख्म इक दिल के पास देखा है।
बात दिल की जुबां पे ले आए,
उनको यूँ बेनकाब देखा है।
हो गुलिस्ताँ की खैर शाखों पर,
उल्लूओं का निवास देखा है।
सीरियल सी है जिंदगी की किताब,
बनना बहुओं का सास देखा है।
क्या जला है पता नही चलता,
बस धुआँ आस-पास देखा है।
जिसको पाने में खो दिया ख़ुद को,
उसको अब ना-शनास * देखा है।
उनके रुख पर हिजाब * की मानिंद,
हमने लज्जा का वास देखा है .
देखते रह गए सभी उसको,
घास को अब जो बांस देखा है.
*अपरिचित , पर्दा
-मंसूर अली हाशमी
7 comments:
सुंदर रचना के लिए बधाई!
बहुत खुब, लाजवाब रचना। बधाई....
बहुत खूब रचना है
"उनको यूँ नकाब देखा है"
इसमें शायद "बेनकाब" होना चाहिए था। सिर्फ नकाब पढ़ने पर मात्रा दोष भी लग रहा है जो बे लगाने से दूर हो जाता है। कृपया अन्यथा न लें:)
शुक्रिया
बात दिल की जुबां पे ले आए,
उनको यूँ बेनकाब देखा है।
हो गुलिस्ताँ की खैर शाखों पर,
उल्लूओं का निवास देखा है।
KYA BAAT HAI JANAAV, BAHUT PYAARE SHABD !
धन्यवाद अजित जी [पर्दा हटाने के लिये]। यह ''बे'' लिखा तो गया था, मगर शायद एडिटिन्ग के वक़्त ''पर'' लगा गया।
#''बे'' से वैसे तो नकरात्मक्ता आती है, मगर यहाँ वज़न बढ़ाने [या मिलाने] के लिये ज़रूरी था।
# कल आपने 3 नौके [9-9-9] पर 4 एक्के [1111] भी खूब लगाये थे, आपकी पैनी नज़र को सलाम !
ल्aजवाब है पूरी गज़ल
हो गुलिस्ताँ की खैर शाखों पर,
उल्लूओं का निवास देखा है।
बहुत खूब बधाई
सीरियल सी है जिंदगी की किताब,
बनना बहुओं का सास देखा है।
-बहुत खूब.
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