आत्म घात् !
ख़ामोश दिवाली देख चुके, अब सूखी होली खेलेंगे,
हुक्मराँ हमारे जो चाहे, वैसी ही बोली बोलेंगे।
वारिस हम थे संस्कारो के,विरसे में मिले त्यौहारो के,
वन काट चुके, जल रेल चुके, किसके ऊपर क्या ठेलेंगे ।
हुक्मराँ हमारे जो चाहे, वैसी ही बोली बोलेंगे।
वारिस हम थे संस्कारो के,विरसे में मिले त्यौहारो के,
वन काट चुके, जल रेल चुके, किसके ऊपर क्या ठेलेंगे ।
-मंसूर अली हाशमी
5 comments:
बहुत बहुत बहुत सुंदर! सूखी होली और खामोश दिवाली अब मजबूरी बनने जा रही है।
बहुत सही कहा आपने।यही हो रहा है हुक्मरानों की ही बोली बोली जा रही है,
अब इल्जाम थोपने के सिवाय बचा क्या है??
बिल्कुल सही कहा ...
jay ho kah ke ab ham
slum dog kahlaayenge
the murakh pahle hi ham
angrejo ke baad
ab fir vyaapaariyo me bik jaayenge
paani paani kiyaa karenge
jal maafiya bhi ban jaayenge
bechi jameene , beche jangal
naukri ke naam insaan bik jaayenge
kyaa kahi khoob aapne
baate kahne ko
ham tum bhi to bach naa paayenge
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