चली-चली, चली-चली, अन्ना जी की गाड़ी चली चली.......
[ प्रियवर राजेंद्र स्वर्णकार जी नहीं चाहते कि ब्लॉग कि गाड़ी रुके , तो एक धक्का और लगा दिया है! वर्ना "आत्ममंथन" से हासिल कुछ नहीं हो रहा है!!!]
इन्द्रप्रस्थ की शान कभी थी, न जाने कौन गली गयी.!!
न 'काले' पर हाथ डाल पाए, न 'उजलो' को हथकड़ी पड़ी !
सधी नही बात अनशनो से , बिचारी जनता छली गयी.
हमीं तो सीना सिपर हुए थे दिलाने आज़ादी इस वतन को,
हमारी ही छातीयों पे देखो कि मूंग अबतक दली गयी.
स्वास्थ्य,रक्षा कि अर्थ अपना , हर इक में ख़ामी भरी हुई,
चरित्र ही को गहन लगा है,ये कैसी कालिख मली गयी.
बना न राशन का कार्ड अपना, न पाया प्रमाण ही जनम का,
शिकारियों के जो मुंह तलक गर न मांस , हड्डी , नली गयी.
जो गाड़ी पटरी पे लाना है तो 'नियम' बने सख्त, ये ज़रूरी,
इक इन्किलाब और लाना होगा जो बात अब भी टली गयी.
mansoor ali hashmi