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Friday, June 17, 2011

Fasting...!


अनशन ही अनशन 

सच की पगड़ी हो रही नीलाम है,
'भ्रष्ट' को अब मिल रहा इनआम है.

अब 'सियासत' अनशनो का नाम है,
देश से मतलब किसे! क्या काम है?

तौड़ कर अनशन भी शोहरत पा गया ,
एक* मर कर भी रहा गुमनाम है!          [*निगमानंद]

दूसरे अनशन की तैयारी करो,
गर्म 'लोहे' का यही पैग़ाम है.

'अन्शनी' में सनसनी तो है बहुत,
'फुसफुसा' लेकिन मगर अंजाम है. 

'आग्रह सच्चाई का'  करते रहो,
झूठ तो, नाकाम है-नाकाम है.

स्वार्थ को ऊपर रखे जो देश के,
दूर से उनको मेरा प्रणाम है.

-- मंसूर अली हाश्मी 

Friday, January 28, 2011

'वो-ही-वो'


[अली सय्यद साहब के ब्लॉग  "उम्मतें'' पर ..

तू ही तू : तेरा ज़लवा दोनों जहां में है तेरा नूर कौनोमकां में है.....


में स्त्री गौरव  गाथा का ज़िक्र  पढ़ कर मुझे भी अपनी  'वो-ही-वो'  याद आगई और ये रच गया है....  ]  

'वो-ही-वो'

[राज़ की बातें] 

रात को वो मैरे बिस्तर पर सोती है,
दिन में; मैं उसके बिस्तर पर सोता हूँ,
दोनों बिस्तर अलग ठिकानों पर लगते,
खर्राटे फिर भी डर-डर के भरता हूँ .
वो पढ़ती * रहती; मैं लिखता रहता हूँ!     *[धार्मिक किताबे]
वो छुपती है और मैं 'छपता' रहता हूँ. 

थक गए घुटने तो अब  कुर्सी  पाई ,
वर्ना अब तक चरणों में रहती आयी !
वो तो मैं ही कुछ ऊंचा अब सुनता हूँ,
चिल्लाने की उनको आदत कब भायी !
वो रोती तो  मैं हंस देता था पहले,
अब वो हंसती और मैं रोता रहता हूँ.



नही हुए बूढ़े, लेकिन अब पके हुए है,
55-62  सीढ़ी चढ़ कर थके हुए है ,
पहले आँखों से बाते कर लेते थे,
अबतो चश्मे दोनों जानिब चढ़े हुए है.
नज़र दूर की अब मैरी कमज़ोर हुई तो,
बस 'वो-ही-वो' हर सू अब तो दिखा किये है.

-मंसूर अली  हाश्मी 

Sunday, September 5, 2010

वेदना

वेदना

[पंकज सुबीर जी के दिये तरही ग़ज़ल के मिसरे  "फलक पे झूम रही सांवली घटाएं है" पर मौसम का तकाज़ा पूरा करने वाले कोई रूमानी अशआर नहीं बन पड़े, जाने क्यूँ वेदना के स्वर ही फूटते रहे और ऐसा ही कुछ कह पाया, और इसिलए वहां ले जाने की हिम्मत भी नहीं हुई, यहाँ तो प्रस्तुत कर ही दूँ!]

हवा-हवा सी ये क्यूँ आज की हवाएं है,
दग़ा-दग़ा सी ये क्यूँ आज की वफाएं है.

ठगी-ठगी सी लगे आज है ये बहने क्यूँ?
उदास-उदास सी क्यूँ आज इनकी माँएं है.

मुकाम उनका घरों में इसी से तय होगा,
दहेज़ कितना है जो अपने साथ लाएं है.

सितम ज़रीफी के याँ भी पिटाई होती है,
लगा के सौ ये मगर एक ही गिनाये है.

सज़ा-सज़ा सी लगे है ये ज़िन्दगी क्यूँकर,
वफ़ा के शहर में अपने भी क्यूँ पराये है.

Wednesday, December 31, 2008

आकलन

आकलन
दौड़-भाग करके हम पहुँच तो गये लेकिन,
रास्ते में गठरी भी छोड़नी पड़ी हमको।

साथ थे बहुत सारे, आस का समन्दर था,
छोड़ बैठे जाने कब, जाने किस घड़ी हमको।

अब है रेत का दरिया, तशनगी का आलम है,
मृग-तृष्णा थी वो , सूझ न पड़ी हमको।

एक सदा सी आती है, जो हमें बुलाती है,
मौत पास में देखी, देखती खड़ी हमको।

अलविदा कहे अबतो, फ़िर कहाँ मिलेंगे अब,
अंत तो भला होगा,चैन है बड़ी हमको।

-मन्सूर अली हाशमी