अनशन ही अनशन
सच की पगड़ी हो रही नीलाम है,
'भ्रष्ट' को अब मिल रहा इनआम है.
देश से मतलब किसे! क्या काम है?
तौड़ कर अनशन भी शोहरत पा गया ,
एक* मर कर भी रहा गुमनाम है! [*निगमानंद]
दूसरे अनशन की तैयारी करो,
गर्म 'लोहे' का यही पैग़ाम है.
'अन्शनी' में सनसनी तो है बहुत,
'फुसफुसा' लेकिन मगर अंजाम है.
'आग्रह सच्चाई का' करते रहो,
झूठ तो, नाकाम है-नाकाम है.
स्वार्थ को ऊपर रखे जो देश के,
दूर से उनको मेरा प्रणाम है.
-- मंसूर अली हाश्मी
-- मंसूर अली हाश्मी