पैसे वसूल
अब जो भी है, जैसे भी है करलो क़बूल,
खेल; अभी जारी, मगर पैसे वसूल !
जो नहीं हासिल लुभाता है बहुत,
मिल गया जो वह तो बस मानिन्दे धूल.
हो रही बातें , परिवर्तन की फिर ,
अबकि तो बस, हो फ़क़त आमूल-चूल.
सख्त हो कानून सबके वास्ते,
ख़ुद पे बस लागू न हो कोई भी 'रूल'.
है निरंतर, नेको- बद में एक जंग,
'बू-लहब'* जब भी हुए, आए रसूल. *[बद किरदार]
.
'हॉट' थे जो 'केक' , बासी हो रहे,
बेचते है अब वो 'ठंडा' , कूल-कूल.
'बाबा' हो कि 'पादरी' या 'मौलवी'*, [*निर्मल, पॉल वगैरह जैसे]]
कर रहे है बात सब ही उल-जलूल,
तोड़ते, खाते, पचाते भी दिखे;
फ़ल - जिन्होंने बोये थे केवल बबूल.
खाए-पीये बिन ही जो तोड़े ग्लास,
बेवजह ही देते है बातों को तूल*, [*विस्तार ]
'ब्याज' से 'नेकी' कमा कर, ख़ुश बहुत ,
मुफ्त का 'आया', 'गया' बाक़ी है मूल.
--mansoor ali hashmi