'साहबे मीरास'* था पहले कभी, *[ अच्छी परम्पराओं का वारिस ]
'भांड' होता जा रहा है आजकल.
'गाय' सा भोला था जो पुत्तर कभी,
'सांड' होता जा रहा है आजकल.
नीम था वो भी करेले का चढ़ा,
'खांड' होता जा रहा है आजकल !
हेअर स्टाईल कभी फ़िल्मी रही,
'चाँद' होता जा रहा है आजकल.
दहेज-प्रथा बढ़ रही है इन दिनों,
'काण्ड' होते जा रहे है आजकल.
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8 comments:
लगता है, चुनाव हैं ऐन सामने
बदला-बदला हुआ है वो आजकल
आप न होते तो आता नहीं शऊर
आपके भरोसे जी रहे हैं आजकल
बैरागी !, सावन ! और शाईरी ?
क्या बात है !
रंग क्या-क्या दिख रहे है आजकल !
बैरागी जी,
बात बनी नहीं। इस गजल के शैरों के दूसरे मिसरे के आरंभ में भी तुक है जो आप के शैरों में नहीं।
ये तो एक नए ढंग की ग़ज़ल हो गई, जिस के शैरों के दूसरे मिसरे के आरंभ में भी तुक है।
बधाई!
शुक्रिया द्विवेदीजी, चाँद ! देर से ही सही , दिखा तो.......!!
चांद कहीं गया नहीं था, आसपास ही था।
(चांद शब्द में चंद्र विन्दु की जरूरत नहीं) फिर तो वह चान्द न रह कर चाँद हो जाता है।
है दूध का न धुला कोई,सब जानते,मगर यहां
आरोप-प्रत्यारोप का है, दौर चलता आजकल!
वाह वाह हर बार है
कुछ और की दरकार है
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