बे मेल !
खूँटी' मिल न पायी जब आस्था की 'टोपी' को,
'मुल्ला' की मलामत की, और कौसा 'मोदी' को.
'बड़की'* से ब्याहने जो रथ पे चढ़ने आया था,
दौर 'अनशनो' का है, त्याग कर ये रोटी को,
फिक्स कर रहे है सब, अपनी-अपनी गोटी को.
'शास्त्र' से न था रिश्ता, 'शस्त्र' लाना भूले थे,
इक ने खींची दाढ़ी तो, दूसरे ने चोटी को.
जोड़े यूं भी बनते है, जोड़ जब नहीं मिलती,
मोटा लाये मरियल सी, दुबला पाए मोटी को.
लौटना पड़ा उसको साथ लेके 'छोटी' को.
* {पी.एम्. की गद्दी}
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mansoor ali hashmi
5 comments:
बिलकुल 'कबीर' की तरह। ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर। सबको एक घाट पर चरणामृत दिया है आपने।
पथ विचलित लोग सब ऐसे ही होते हैं।
टोपी है कि फ़ुटबाल है दुनिया मेरे आगे
होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मेरे आगे
होता है यहां अनशन-ओ-धोखा मेरे पीछे
होता है ज़बीं ख़ाक मे गुरबा मेरे आगे
मत पूछ धरमवीर हैं कितने मेरे पीछे
तू देख फसादात हैं कितने मेरे आगे
नेता मुझे जोड़े है जो कुर्सी की उसे फ़िक्र
बैलेट मेरे पीछे है तमंचा मेरे आगे
गो हाथ में जुम्बिश नहीं ख्वाहिश मे तो दम है
रहने दो अभी रथ की उड़ैया मेरे आगे :)
( मिर्ज़ा साहब से एडवांस माफी के साथ )
@ अली साहब...
हज़ल गोई ने आपके अंदर के शायर का परिचय करवाया, आप तो अली साहब, अब शायरी ही शुरू करदे बाकायदा.वैसे भी आपके आर्टिकल में लयबद्धता तो होती ही है. फायदा ये होगा कि 'उम्मतें' ब्लॉग पर आपके आने कि रफ़्तार बढ़ जायेगी. ये क्या महीने भर इन्तेज़ार करवाते हो!
आपने चाचा ग़ालिब को याद फरमाया, मुझे भी 'ओलिवर गोल्डस्मिथ' कि ये poem याद आ गयी:-
"An Elegy on the Death of a Mad Dog" (1766)
Good people all, of every sort,
Give ear unto my song;
And if you find it wondrous short,
It cannot hold you long.
In Islington there was a man,
Of whom the world might say
That still a godly race he ran,
Whene'er he went to pray.
A kind and gentle heart he had,
To comfort friends and foes;
The naked every day he clad,
When he put on his clothes.
And in that town a dog was found,
As many dogs there be,
Both mongrel, puppy, whelp and hound,
And curs of low degree.
This dog and man at first were friends;
But when a pique began,
The dog, to gain some private ends,
Went mad and bit the man.
Around from all the neighbouring streets
The wondering neighbours ran,
And swore the dog had lost his wits,
To bite so good a man.
The wound it seemed both sore and sad
To every Christian eye;
And while they swore the dog was mad,
They swore the man would die.
But soon a wonder came to light,
That showed the rogues they lied:
The man recovered of the bite,
The dog it was that died.
आज के आदमी का चरित्र विश्लेषण करने पर हमें भी कुछ एसी ही अनुभूति होती है. हमारे लेख और कवितायेँ भी तो यही सब कुछ कह रही होती है!
@ मंसूर अली साहब ,
हुज़ूर इस फन के सच्चे उस्ताद आप ही हैं ! मैं तो फकत आपके 'पास' पे गोल मारने की कोशिश करने वाला अवसरवादी हूं ! अपनी दम पे मुझे ,मुझसे कोई उम्मीद भी नहीं ! आपके साथ यूंहीं बनाये रखिये !
@ उम्मतें ब्लॉग,
आपकी शिकायत दुरुस्त है पर कारिंदों की कुछ मजबूरियां भी होती हैं :)
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