Wednesday, June 27, 2012

पैसे वसूल

पैसे वसूल 

अब जो भी है, जैसे भी है करलो क़बूल,
खेल; अभी जारी, मगर पैसे  वसूल ! 

जो नहीं हासिल लुभाता  है बहुत,
मिल गया जो वह तो बस मानिन्दे धूल.

हो रही बातें , परिवर्तन की फिर ,
अबकि तो बस, हो फ़क़त आमूल-चूल.

सख्त हो कानून सबके वास्ते,
ख़ुद पे बस लागू न हो कोई भी 'रूल'.

है निरंतर, नेको- बद में एक जंग,
'बू-लहब'* जब भी हुए, आए रसूल.       *[बद किरदार] 
'हॉट' थे जो 'केक' , बासी हो रहे,
बेचते है अब वो 'ठंडा' , कूल-कूल.
 
'बाबा' हो कि 'पादरी' या 'मौलवी'*,       [*निर्मल, पॉल वगैरह जैसे]]
कर रहे है बात सब ही उल-जलूल,

तोड़ते, खाते, पचाते भी दिखे;
फ़ल - जिन्होंने बोये थे केवल बबूल.

खाए-पीये बिन ही जो तोड़े ग्लास,
बेवजह ही देते है बातों को तूल*,                [*विस्तार ]   

'ब्याज' से 'नेकी' कमा कर, ख़ुश  बहुत ,
मुफ्त का 'आया', 'गया'  बाक़ी है मूल.
  
--mansoor ali hashmi 

4 comments:

विष्णु बैरागी said...

हो रही बातें , परिवर्तन की फिर ,
अबकि तो बस, हो फ़क़त आमूल-चूल.

काश! आपकी यह बात सच हो। वर्ना तो हम लगातार धोखे खाए जा रहे हैं।

दिनेशराय द्विवेदी said...

जिस दिन श्रमजीवी जनगण एकजुट हो कर परिवर्तन के लिए जुटेंगे तो उसे कोई रोक न सकेगा।

उम्मतें said...

अब जो भी है जैसे भी है कैसे भला करलें क़ुबूल
पैसे वसूल उनके वसूल अपने रहे खालिस उसूल :)


बाकी वकील साहब से सहमति तो है ही !

Anonymous said...

Recd. email:

@ Farzana Patherya

Salam,

It is nice poetry. Loved it.

Best Regards
Farzana