Saturday, October 25, 2008

अथ श्री बन्दर कथा

अथ श्री बन्दर कथा

नित्यानुसार आज भी अपने घर की छत पर बैठा ब्लाँग रच रहा था कि बहुत दिनो बाद बंदर-दर्शन हुए।
समीर लालजी(उड़न तश्तरी)  की 'अथ श्री बंदर कथा' के बाद से ही यह ग़ायब था। मैं आशचर्य चकित हुवा उसके हाथ में काग़ज़-कलम देख कर! और सह्सा संबोधित भी कर बैठा, मानव जान कर; घोर आश्चर्य में पड़ गया उससे जवाब सुन कर्…………वार्तालाप प्रस्तुत है:-

हाश्मी:- कहाँ थे इतने दिन?
बंदर;- पाठशाला।
हाश्मी:- तो तुम लिखना-पड़ना सीख आए?
बंदर:- ज़रूरी था।
हाश्मी;- क्या ज़रूरत पड़ गयी?
बंदर:- मानवीय हमलो से बचाव के लिये जागरुकता आवश्यक है।
हाश्मी:- कैसा हमला? बंदर: पत्थरोँ की मार से बचने की क्षमता तो प्रकर्ति ने दी है हमे, मगर मानव अब हम पर शाब्दिक बाण चला रहा है। हाश्मी: किस तरह? बंदर: हम बंदरो को दस-दस रूपये में
ख़रीदने-बेचने की वस्तु की तरह प्रचारित कर रहा है।
हाश्मी: ओह! समीर लालजी।
बदर: कौन से लाल? नाम सुना हुवा लगता है, हम में भी कुछ लाल-लाल होते है…
हाश्मी: कुछ नही, मगर तुम लिख क्या रहे हो?
बंदर: बंदरलाँग और क्या, ईंट का जवाब अब पत्थर से ही देना पड़ेगा। [अब मुझे कुछ-कुछ समझ में आने लगा कि मामला क्या है]
हाश्मी: क्या लिख रहे हो सुनाओ…… मैं छपवा दूंगा!
बंदर: अवश्य, इसीलिये तो मैं यहाँ बैठ कर लिख रहा हूँ………सुनो… शीर्षक है … "अथ श्री मानव कथा",…।
''मनुष्य भी बड़ा अजीब प्राणी है, कभी हम बंदरो को अपना पूर्वज मानता है, कभी देवता स्वरूप जान हमारी पूजा करता है तो कभी हमे पत्थर मारता है। पूजा तो हम भी 'डारविन' की करते है जिसने हमें महिमा मंडित किया, मगर हमने तो कभी पत्थर नही मारा टाई बांधने वालो को [पीछे की चीज़ आगे लगाताहै, नकल करना
भी बराबर नही सीखा]। कभी ''मुंह चिढ़ाने'' के हमारे एकाधिकार का हनण करता है तो कभी दीवार और वृक्ष लांघने के हमारे मौलिक अधिकार का उपयोग बग़ैर अनुग्रहीत हुए करने लगता है। इनकी आबादी बढ़ना ही हमारी आबादी घटने का कारण बन गया है। ज़मीन हमारे लिये तंग होती जा रही है। पहले हम इस पर
स्वतंत्रता से विचरण करते थे। अब हमारे हिस्से में 'छते' और 'मुण्डेरे' ही बची है [भरे बाज़ारों में हमारी माँ-बहनो को मजबूरन इस पर बैठना पड़ता है]। प्रकर्ति-प्रदत्त घरो [वृक्षों] को ये बेदर्दी से काटे चला जा रहा है। पृथ्वी  पर हमारे दुशमन कुत्तो से इसने यारी बढ़ाली है उसे गौद में और गाड़ियों में लिये घूमता है।
कभी ये अपने घरों की छतो पर पापड़-बड़ी, अचार सजाये रखता था [क्या मज़ेदार दिन थे वे], अब तो कीड़े लगा सड़ा अनाज ही मिलता है इन छतो पर धूप पाने के लिये। तथाकथित मानवीय मूल्यों की गिरावट यही तक नही रुकी, अब लेखनी के माधयम से हमें अव्मूल्यीत किया जा रहा है। नाच, निर्माण और नंगेपन की कला
हमसे सीखने वाला इन्सान अब हमारी तुलना काग़ज़ी शेरो [शेयरो] से करने की जुर्रत कर रहा है।
अपने राज महलो [संसद भवनो] की उम्मीदवारी के टिकट 'बंदरबाँट'' के हमारे फ़ार्मूले के आधार पर आश्रित मनुष्य अब हमे पिंजरे में बंद देखना चाहता है। अपने मनोरंजन की वस्तु मानने लगा है हमें,
अपनी फ़्लाँप फ़िल्मों के कलाकारो से ऊब कर! हाँ- कुछ संस्कारवान लोगो ने अपनी सेनाओ को हमारा नाम प्रदान कर हमें प्रतिष्ठित भी किया है, हम उनके क्रतझ है, मगर कलम तो हमे थामना ही पड़ेगा,
अपनी अस्मिता की सुरक्षा के लिये यही एक मात्र अहिंसक और शालीन रास्ता है, और फ़िर हम तो अहिंसावादियों के प्रेरक भी रहे है।
पहला अमानवीय बलाँगर्………
श्री पुण्डाकारी…[यह मैरा बलाँगरी नाम है, असली नाम अभी प्रकट नही कर सकता अपने समाज से ब्लाँग लिखने की आझा लेना शेष है]
# इसके पहले कि मैं कोई कमेंट करता, काग़ज़ का टुकड़ा मैरे हाथ में थमा कर ये जा…वो जा…, वैसे भी बंदर लोग कमेंटस का स्वाद क्या जाने!
 ## काग़ज़ का टुकड़ा हाथ में लिये अवाक सा…इस सोच में डूब गया कि बचपन में इसी छत पर से मैरे हाथ से रोटी का टुकड़ा छीन एक बंदर चम्पत हो गया था, कही उसका कोई नाती तो यह कर्ज़ नही चुका गया?

Thursday, October 23, 2008

To Be

होना.....

'होना'', हमारे लिये साधारण बात हो गयी है, इसी लिये हमें 'अपने' ही होने का अह्सास नही हो पाता।
सपने में ही कभी-कभी खुद के होने के अह्सास को चिकोटी काट कर कन्फ़र्म ज़रूर किया है, मगर आँख खुलते ही हम 'हम' कहाँ रह्ते है। होने को हम बहुत कुछ है, बेटा-बेटी, भाई-बहन, माँ-बाप, पति-पत्नी
दोस्त-दुशमन, आस्तिक-नास्तिक, गुरू-शिष्य, नेता-अनुयायी, इस या उस देश के वासी। और हाँ-  मनुष्य होने का आभास भी हमें कभी-कभी होता है- व्यथा की घड़ी में!  पशुत्व को तो हम अपने आवरण  तक ही सीमित रखते है कि पशुत्व में प्रकट होना हमे अपनी गरिमा के विपरित लगता है।
और भी बहुत कुछ 'होना' हमे अच्छा लगता है - जो हम नही है, मगर इस "होने" की भीड़ में;  सचमुच हम क्या है?…और क्या है ये सचमुच?……ये ''सचमुच होना" भी बड़ी साधारण बात है…'हम'
तो बड़ी असाधारण चीज़ है!

-मन्सूर अली हाश्मी

Wednesday, October 22, 2008

पत्नी बनाम प्रेयसी

असाहित्यिक प्रेरणा !

  साहित्य का एक 'कला' के तौर पर विकास होने के बावजूद सम्पूर्ण मानव समाज ने,इसके बहुसंख्यक वर्ग ने साहित्य को समाज के परिप्रेक्ष्य ही में देखा और मूल्यांकन किया है। इसलिये स्वतंत्र और निष्पक्ष विचार धाराये, इस समबंध में आमंत्रित किये जाने [बौद्धिक और साहित्यिक वर्ग के विद्वानो से] पर भी प्रेयसी का प्रेरणा वाला स्वरूप और समाज में उसके लिये कोई प्रतिष्थित स्थान तलाशने की कौशिश का कोई हल नही निकला है।
एक सामाजिक प्राणी होने के नाते एक साहित्य्कार का सामाजिक मूल्यो के प्रति झुकाव नैसर्गिक है और अपेक्षाक्रत अधिक बजाय कला समर्पिता के।
अब प्रश्न यह उपस्थित होत है कि साहित्य जो कि एक कला है को समाज से किस सीमा तक निर्दिष्ट होना चाहिये विशेषकर प्रेयसी से प्रेरणा प्राप्त करने वाले पहलू पर?
साहित्यकार, जो कि एक कला का प्रतिनीधि है का समाज से या समाज के व्यक्ति[प्रेयसी/प्रेमी] से प्रेरणा प्राप्त करना वर्जित तो नही है परंतु एसा करते हुए वह उस समाज के बंधनो से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रभावित अवश्य होता है, उसकी मर्यादाओं से प्रतिबंधित ज़रूर होता है।
यही प्रतिबंध या अवरोध हटाने की ख़ातिर श्री जैनेन्द्र कुमारजी के ज़हन में यह विचार उपजा कि:-
साहित्यकार को प्रेरणा प्रदान करने वाले पात्र [प्रेयसी/प्रेमी] को न्याय संगत स्थान दिलाया जाए!
इसी विषय के औचित्य पर विभिन्न समकालिक साहित्यकारो,विद्वानो ने पक्ष-विपक्ष में तर्क प्रस्तुत किये। मगर बात आगे नही बढ़ी, बढ़ भी नही सकती थी। समाज की रुढ़िवादिता एसे किसी विचार का
स्वागत कर ही नही सकती।
तब फ़िर "प्रेरणा" 'प्रदान' करने वाली इस महत्वपूर्ण "कड़ी" से सम्बंधो को क्या असंवैधानिक ही रहने दिया जाये?……………यहाँ तक …पहुंचते-पहुंचते इस विषय की गंभीरता से इतना 'बोर' हो गया हूँ कि……………अब मूड बदल कर ख़ुद के साथ आपका भी मनोरंजन  करदूं!
थोड़ा कल्पनाशीलता का सहारा लेना पड़ेगा! चलेगा न?

माना कि साहित्य रचना के मुख्य प्रेरणा स्त्रोत यानि प्रेयसी/प्रेमी को समाज व साहित्यिक बिरादरी ने मान्यता प्रदान करदी……सामाजिक प्रतिबंधो के ये कोष्ठक खुलते ही रोमांचित हो कर भावुक साहित्यकार प्रणय रस के सागर में गौटे लगाने लगे! एसे ही लोमहर्षक पल में एक विख्यात, प्रबुद्ध और छह दशक से साहित्य सेवा में रत श्री प्रभात कुमार जी ने नयी स्फ़ूर्ति और जोश से कलम थामा तो उससे पहला साहित्यिक [प्रेम] पत्र यूँ रचित हुआ:-

"किरण",
स्वच्छंद,निर्मल, मेरी रचना की प्रेरणा किरण, प्रभात की किरण यानि मेरी  किरण्।
तुम्हारी यादों के प्रकाशमय उजालो से अब भी प्रेरित हो रहा हूँ। साहित्य रचना में बाधक सामाजिक प्रतिबंध हटने के शुभ अवसर पर अब चार दशकोपरांत तुमसे संवाद स्थापित करने का प्रयत्न कर रहा हूँ।
जीवन की इस सुरमई संधया में तुम्हारी कल्पना की सुनहरी किरणे मुझे भाव-विभोर किये दे रही है।
प्रेरणा के सागर में, .......नही !… इतनी विशालता की भी आवश्यकता नही, बल्कि मेरी प्रेरणा के मूल बिंदू यानि तुम्हारे रूपहले गालो का वह छोटा सा गडडा [डिम्पल], जिस में मेरा दिल जा समाया था; में गोटा लगाकर साहित्य-संसार को नये आयाम देना चाहता हूँ।
कैसे और कहाँ मिलूँ?…।

दर्शनाभिलाषी,
'प्रभात'

प्रत्युत्तर में जो पत्र प्रभातजी को प्राप्त हुवा, उद्घ्रत न किया जाये तो बात अधूरी रहेगी!

आदरणीय प्रभात कुमारजी,
आशीर्वाद!
ईशवर आपको क्षमा करे कि यह अनर्थ आपने जान-बूझकर नही किया कि मुझ सन्यासिनी को आपने सांसारिकता से ओट-प्रोत वाणी में विलासिता का विषय जान अपने साहित्य में प्रयुक्त किया।
पन्द्रह वर्षो तक विधवा जीवन  का    संताप सहने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंची कि सन्यास ही मोक्ष का उत्तम पथ हो सकता है। मैरी पौत्री ने आपका पत्र हरिद्वार मुझे पोस्ट किया। हाथ कंपकपाए… मगर द्र्ढ़ मन से आपकी पाती पढ़ ही डाली। त्याग की भावना मन को कितनी द्र्ढ़ता प्रदान करती है, शायद आपको अनुभव न हो। मै, व्यथित हुई आप भद्र-पुरुष की मनोदशा पर किंतु विचलित नही।

'प्रेम' भी 'मोक्ष' का एक पथ है, मगर कौनसा प्रेम?…… आप वाला तो निश्चित ही नही जो कि स्वार्थ परित है। आपका 'प्रेम' प्रेरणा प्राप्ति के स्वार्थ की सीमा तक ही है अपने 'प्रेरक' से, .......मूल प्रेम तो आपको अपनी रचनाओं से है। सत्य की कटुता शायद आप बरदाश्त न कर सको मगर उसे प्रकट न करना भी तो पाप ही है…………आपकी प्रेरणा का वह मूल बिंदू वह छोटा सा या हल्का सा गडडा [डिम्पल] अब "खाई" की सूरत में परिवर्तित हो गया है, दाँतो का ढांचा दह जाने से,ऐसे  में आपके "दिल" की 'सुरक्षा' के लिये मै प्रार्थना ही कर सकती हूँ।

सिर्फ़ प्रभु की,
"किरण श्री"

-मन्सूर अली हाशमी

Saturday, October 18, 2008

पति ,पत्नी और वो

श्री दिनेशराय द्विवेदी जी के लिव-इन रिलेशनशिप ने अच्छी हलचल पैदा की है।विषय सामयिक है,जागरूक लोगो का धयानाक्र्षित करने में सफ़ल रहा है। ऐसे ही एक विषय को विख्यात सहित्य्कार-विचारक श्री जैनेन्द्र कुमार जी जैन ने उठाया था सन 1975-76 में [धर्मयुग पत्रिका के माधयम से]। 'पत्नी बनाम प्रेयसी' के शीर्षक 'से।
उद्देशय था:- "रचनाधर्मिता से गहरे जुडे हुए प्रेरणा वाले पहलू को नये साहित्यिक संदर्भो में टटोला जा सके और उसमें से रचना प्रकिया का कोई अनखुला बिंब उजागर हो सके अथवा सामाजिक संबन्धो में किसी नयी क्रांति का संकेत मिल सके।"
प्रतिक्रिया स्वरूप पक्ष-विपक्ष में अनेक मन-भावन और आलोचनात्मक टिप्पणियों का अंबार लग गया। अत्यंत रोचक रही थी यह बहस्। इस संदर्भ में मुझे जो कहना है वह में अगले ब्लाँग के लिये बचा रखता हूँ, यहाँ तो मै कुछ प्रसिद्ध साहित्य्कारो,महानुभावो,सामाजिक चिंतको के विचारो का सारांश दे रहा हूं जिन्होने इस विषय में गहन[?] दिलचस्पी ले कर कई अनछुये पहलुओ को उजागर किया था। आज भी यह बहस प्रासांगिक है तो मै अपने ब्लाँग पर आने वाले ब्लाँगर्स [विशेषकर महिला ब्लाँगर्स] को आमंत्रण देता हूँ कि अब 33 साल बाद दोबारा [आज के बदले हुए परिप्रेक्ष्य में] अपने-अपने मत व्यक्त कर,श्रद्धांजली स्वरुप स्वजैनेन्द्र कुमार जी के विषय [विवाद] को पुनर्जीवित करे,धर्मयुग पत्रिका को धन्यवाद देते हुए:-
1 जैनेन्द्र कुमार जैन:- लेखको को अपनी प्रेरणाओ को तरोताज़ा रखने के लिये पत्नी के साथ एक प्रेयसी भी रखना चाहिये। आदमी सिर्फ़ आदमी नही है,द्वियत्व भी है और पशुत्व भी है। प्रेम जो है वह आदमी की दिव्य्ता से जुडा हुआ संबन्ध होता है और प्रेयसी उसी दिव्य्ता का प्रतिरूप होती है। पत्नी सामाजिक्ता है, प्रेयसी दिव्य्ता है,इश्वरत्व के दर्शन प्रेयसी मे ही प्राप्त होते है।
मैरे तई दिव्य से विछिन्न कोई हो नही सकता। हाँ, यह ख़तरा है कि उस दिव्यत्व में कब आदमी का पशुत्व जुड़ जाए और दिव्यत्व चूर-चूर हो जाये। भोग का संबन्ध आते ही दिव्यता ख़त्म हो जाएगी।

2 भवानी प्रसाद मिश्र:- जैनेन्द्र्जी का कथन इस अर्थ में बिल्कुल ठीक है कि हर आदमी को जी-जान से जीने के लिये किसी एक एसी धुन की ज़रूरत है, जो उसे पत्नी और परिवार से भी ज़्यादा आकर्षक लगती हो,जिसके पास एसी धुन है, उसे भौतिक अर्थो में प्रेयसी की ज़रूरत नहीपडती।



आदर्श दुर्लभ होते है। प्रेयसी पहले दुर्लभ होती थी, अब दुर्लभ नही है। दुर्लभ पाने की इच्छा पुरुषार्थ जगाती है। क्रतित्व की दिशा में प्रेरित करती है। फ़िर प्रेम किया नही जाता , हो जाता है, अगर किसी को एसा हो जाए तो हम सब उस विवशता को समझे और बने तो सहारा दे। वह ख़ुद तो अपने को क्या समझेगा। एसा प्रत्याशित प्रेम रचता कुछ नही है, ख़ुद टूटता है, दूसरे को टोड़ता है।


3 राजेन्द्र यादव:- रचना और कला के क्षेत्र मे सबसे जीवंत,आक्रषक और प्रयोगशील व्यक्तित्व वे है जो परंपरावादी नही है,यानि मर्यादा भंजक है, मर्यादा परंपरा की रक्षक है और हर प्रतिभा ने परंपरा को नकारा है- साहित्य मे कला मे या जीवन मे।

विवाह मर्यादा है,जीवन की एक विशिष्ट और स्वीक्रत पद्धति है,लेकिन किसी भी जीवन-पद्धति मे रहना और उसे स्वीकार करना दो अलग बाते है। हम मे से कितने मर्यादाए तोड़ कर दूसरी और चले जएंगे,यह तो समय ही बताएगा, हाँ, उन्हे लांघने की कोशिश या कम से कम लांघने की बात सोचते तो हम सभी है।

यदि नारी को पत्नी बन कर जीवित रहना है और पुरुष को सिर्फ़ पति ही नही बना छोड़ना है, तो सहने और बर्दाश्त करने की शहीदाना मुद्रा से नही,समझदारी और अन्डर्स्टेन्डिंग के धरातल पर कुछ परिवर्तनो और 'छूटो' को स्वीकार करना होगा। कितनी बेतुकी स्थिति है हि पुरुष की जिन विशिष्टाओ से आक्रषित हो कर नारी उसके निकट आती है, पत्नी बनकर पहला शिकार इन्हे ही बनाती है,कभी जान-बूझकर कभी उस और से उदासीन बनकर्। नतीजे मे वह अलग और उंचा व्यक्ति सिर्फ़ एक अच्छा या बुरा पति हो कर रह जाता है। युद्ध का अंत प्राय: एक की मौत मे होता हैपति या कलाकार्जो बच रह्ता है वह दूसरे की लाश ही ढोता है।

बौद्धिक और मानसिक स्तर पर संसार का कोई एक व्यक्ति दूसरे की ज़रूरत हमेशा पूरी नही कर सकता। हम अपनी ये ज़रूरते टु्कड़ो-टुकड़ो मे ही तलाश करते रहते है- कुछ पुस्तको से, कुछ दोस्तो से और कुछ अपने भीतर डूबकर । अपने भीतर को भी कही बाहर से ही सींचना , सम्रद्ध करना पड़ता है। उंट की तरह शाश्वत टंकी ले कर कोई कलाकार नही चलता। अन्यथा वह शिघ्र ही चुक जाती है 

 4 भारत भूषण अग्रवाल:- घर मे पत्नी रोती रहे और पुरुष पर-स्त्री के साथ आनंद लूटता रहे - यह सिद्धांत तो विशुद्ध सामंती है। हमारे ज़मीदार और सेठ प्रबंधित विवाह से असंतुष्ट हो कर यही करते आये है। किसी ज़माने मे तो वेश्यागमन या रखैल रखना प्रतिष्ठा की बात थी। क्या जैनेन्द्र्जी हमारे समाज को फ़िर से उधर ले जाना चाह्ते है? वस्तुत: जैनेन्द्र्जी के चिन्तन मे नारी का पद नर से कुछ घटिया है,जिसे मै सामन्तवाद का अवशेष मानता हूँ। आज की नारी पुरुष को कोई एसा विशेषाधिकार नही दे सकती जैसा जैनेन्द्र्जी ने परिकल्पित किया है, और जहाँ तक पुरुष का संबंध है उसने तो एसी स्थिति न कभी सहन की है और न शायद कभी भविष्य मे सहन कर पएगा।


5 राजेन्द्र अवस्थी:- जैनेन्द्र्जी का वक्तव्य अत्यंत भ्रामक है। आरंभ से अंत तक पहुंचते-पहुंचते वह 'इहलोक' का न हो कर 'परलोक' का हो गया है। यानि उसमे ईश्वरीय तत्व दिव्य्ता जैसी चीज़े देखी गयी है! भोग मे हिंसा, बिना सह्चर्य का प्रेम और 'प्रेमिका' रखने का समर्थन करते हुए भी अपनी 'कुलीनता' की चिंता, मैरी द्रष्टि मे किसी भी नारी के साथ एक ख़ासा मज़ाक है। वास्तव मे विवाह के कुछ वर्षो तक पत्नी भी प्रेमिका ही होती है।उसके बाद धीरे-धीरे दरार पैदा होती है, एकरसता से ऊब आने लगती है और सामाजिक रूप से सुरक्षित 'नारी''पुरुष की उपेक्षा करने लगती है। इन सबका फ़ल यह होता है कि पत्नी, प्रेमिका से अलग हो जाती है।

6 डाँ लक्ष्मी नारायण लाल:- यह निहायत बचकाना, भावुक मन क अत्यंत रूमानी ख़्याल है कि रचनाकार के लिये साहित्यधर्मा के लिये प्रेयसी आवश्यक है। उस प्रेयसी को सुन्दरी से ले कर दिव्य तक, चाहे जितना खींचे,रचे,सजाये पर बात एक औरत या ज़्यादा से ज़्यादा इश्क़ तक ही सीमित रह जाती है। रचनाकार जब रचना नही कर पाता तब मूड की बाते करने लगता है। इसी मूड को ही तब वह प्रेयसी का दिव्य स्वरूप बनाने लगता है और यही से तब वह औरत को दर्जे से गिराकर या तो पैर की जूती वेश्या बनाकर य तो उसे देवी बना कर उसे लूटना,खसोटना,शोषण करना शुरु करता है। मै समझता हूँ कि रचनाकार के लिये उसका तसव्वुर ही उसकी प्रेमिका है। स्त्री हमारे यहाँ प्रेमिका या प्रेयसी भी कहाँ है? वह तो केवल एक भूख

7 गंगा प्रसाद विमल:- जैनेन्द्रजी का वक्तव्य काफ़ी दिल्चस्प है,किन्तु उनके द्वारा प्रस्तावित समस्या विचारणीय नही है, कम से कम आज के लिये वह विचारणीय नही है।क्योंकि आज रचना के लिये प्रेरणा का आधार तथाकथित प्रेम अनिवार्य नही । एक बेमानी अर्थहीन तनाव मनुष्य को सहज बनाने के बजाय अपराधी बना डालता है। मनुष्य की मुक्ति का रास्ता,आर्थिक मुक्ति के रास्ते से जुड़ा है। स्त्री को प्रेरणा मानने वली द्रष्टि पहले उसे भोग की वस्तु मान कर चलती है। प्रेरणा स्त्री को भुलावे मे रख्नने,छलने का औज़ार है। प्रेम और प्रेरणा अगर कोई चीज़ होती है तो वह एकदम निजी प्रायवेट चीज़ होती है।


८- इंदु जैन:- प्रेयसी और पत्नी, अपने संदर्भ मे सीधी बात करूँ तो प्रेमी और पति - इन दोनो शब्दो को बहुत रूढ़, सीमित और पूर्वनिर्धारित अर्थो मे जकड़ कर जैनेन्द्रजी ने बात कही है। प्रेम उन्गलियो की चुनचुनाहट तक दिव्य्ता क आभास कराये और भोग तक पहुंच कर सहचर्य की ऊब या अतिपरिचय या दुष्करता मे परिणत हो जाये-मैनही मानती। द्वंद्व रचना के लिये अनिवार्य है। पति और प्रेमी के बीच द्वंद्व मे रह कर उस से रचना दुहना सबसे सहज और आसान हुआ करता है। लेकिन यह अनिवार्य नही है-यह ज़रूरी बिल्कुल नही। प्रेमी होते हुए भी प्रेम पति से ही किया जा सकता है, लेकिन प्रेमी के होने से वैवाहिक संबन्धो मे पूर्णता आयेगी ही, जैसा जैनेन्द्र्जी कह्ते है- तो वह ज़रूरी नही। प्रेमिका या प्रेमी का होना मनुष्य की आवश्यकता 'साइकी''से संबन्धित है, इसकी अतर्प्ति मे भी ही जीवाणु है, जितने इसकी तर्पति मे।


9 सौमित्र मोहन:- जैनेन्द्रजी के वक्तव्य मे एक पुर्वस्थापना यह भी है कि प्रेयसी होने से द्वंद्व तो ज़रूर होगा, लेकिन उससे "विवाह संस्था विकास पाएगी", यानि जैनेन्द्रजी विवाह संस्था को किसी न किसी रूप मे अनिवार्य मानते है, मैरी बुनियादी असहमति इसी पूर्वस्थापना से है। इसमे शक नही की रोमांस की शुरूआत मे आप उंग्ली छू कर कांप जाते है, पर एसा केवल पहली बार होत है। इसकी पुनराव्रत्ति नही होती। एक या दूसरे के साथ लगातार रहते चले जाना कुंठित करता है। बेहतर यह है कि लेखक इन दोनो से भागे। किसी भी औरत को ढोना कष्टकर होता है; "मै हर समय एक यंत्रणा से गुज़रता हूँ चुने जाने की"।


10 मनोहर श्याम जोशी:-पूछा जा सकता है कि पत्नी ही को प्रेयसी क्यों न मान लिया जाए। लेकिन पत्नीत्व मे अप्रस्तुति, अनुपस्थिति और अप्राप्य का वह बोध कहाँ से आयेगा जो प्रेम का आधार है,जो मिल गयी जो मिलती ही जायेगी, उसे दिव्य प्रेमिका कैसे कहे!


11 रामधारी सिंह दिनकर:- मुझे न अपनी पत्नी ने प्रेरित किया और न अपनी संगति मे आने वाली किसी नारी ने। लेखक जब वन का वर्णन कर रहा होता है , तो वह किसी एक वन का वर्णन कभी नही होता उसमे उन तमाम वनो का चित्रण होता है,जिन्हे लेखक ने देखा है, जिन्हे लेखक ने पढ़ा है।




समापण वक्तव्य:-




जैनेन्द्रजी:- प्रेम शब्द से यौवनोचित यौन चित्र जिनके मन मे उदय पाता हो, उनसे मुझे
कुछ नही कहना है। मैरे निकट प्रेम उस प्रस्पराक्रषण तत्व के लिये सगुण संझा है,जिस पर सचराचर समस्त सर्ष्टि टिकी है। निगुण भाषा मे उसी को ईश तत्व कह लीजिये। व्यवहार और वर्तमान मे ही मनुष्य समाप्त नही है। उसे आगे के लिये जीना होता है। और इस काम मे सपना मदद करता है- अर्थात, यथार्थ के धरातल को ऊपर उठाना हो, तो उस अभिष्ट के लिये आदर्श की आवश्यकता पड़ती है।
उन्नति की दिशा यही है कि विवाह से दंपति पर एक दूसरे को अधिकार उतना नही जितना क्रतव्य मिले। अर्थात दोनो एक दूसरे के पहरेदार नही,विश्वस्त साथी हो। इस भूमिका पर आयेंगे तो देखेंगे कि पति-पत्नी और प्रेमी-प्रेमिका मे एक उदार सहानुभुतिपूर्ण अस्तित्व बन आता है। ये चारो रूप सभ्यता के आरंभ से जन्मे है तो अंत तक चलने वाले है। फ़िर उसके बीच अनबन को उचित और अनिवार्य बनाए रखना कौनसी बुद्धिमानी है?बीच मे उदाराश्यता का ही संबध है जो समाज को सपन्न और समुन्नत बनायेगा। किसी श्रेयार्थ या परमार्थ के फ़ेर मे काम और प्रेम के इस मूल प्रश्न से मुंह मोड़ना और हठात दूस्ररी नैतिक अथवा लौकिक व्यस्त्तताओ को ही सार्थक माने रखना आंतरिक पलायन जैसा ही होगा। समाज का शायद एक बड़ा संभ्रात वर्ग है,जो सतह पर इन प्रश्नो को लाने से डरता है। उस डर के नीचेही रोग बढ़ता और सड़ता है। इसलिये मुझे तनिक भी पछतावा नही कि आपके पत्र [धर्मयुग] ने उसे रंगीन बनाकर उछाला है। उसकी सर्थकता और उपयोगिता किन्तु रंगीन लोगो तक ही सीमित नही है, हर विचारशील के लिये वह संगत विचारणीय और विवेचणीय है।




परिसमापन



इलाचन्द्र जोशी:- जैनेन्द्र्जी की यह बात इस द्रष्टि से कुछ नइ नही है कि क्या पूर्वी और क्या पाश्चात्य देशो के प्राचीन,मधययुगीन और अर्वाचीन रोमांटिक साहित्य के रचनाकारो ने अपनी क्रतियो मे पत्नी की उपहास्पद या उपेक्षित स्थिति दिखाकर प्रेयसियो को जिस रूप मे सिर-माथे चढ़ाया है,उससे पत्नी का स्थान रोमांटिक संसार मे स्वत: स्पष्ट हो जाता है। धिक्कार है उस प्रेरणा को जो पत्नी को ठुकरा कर उसके संपूर्ण अस्तित्व ही को झुटला कर, उसे पग-पग पर अपमानित,तिरस्क्रत कर और निहायत ज़लील करके लेखक एक ज़ालिम प्रेयसी द्वारा ही प्राप्त कर सकता हो। सभ्यता के प्रारम्भिक काल से लेकर आज तक पत्नी का समाज मे जो अपूर्व गौरवपूर्ण और अखंड गरिमामय स्थान रहा है- क्या पूर्वी और क्या पश्चिमी देशो मे- वह आज की विभिन्न प्रकार की झूठी और सच्ची सामाजिक,साहित्यिक, राजनीतिक वैझानिक क्रंतियो [या भ्रांतियो] के युग मे भी समाज मे अक्षुणण है,[आज के विश्व व्यापी 'लिब मूवमेंट' के बावजूद]। कोई भी आवारा तूफ़ानी शक्ति उसे डिगा नही सकी। केवल सभ्य और सुसंस्क्रत देशो की ही बात नही कह रहा हूँ,असभ्य और अर्द्ध विकसित देशो और जातियो मे भी आदिम प्रक्रति ने पत्नी की परिवार की अपार करुणामयी सेविका की वही गरिमा किसी सार्थक योजना द्वारा स्वंय सिद्ध रूप से सुरक्षित रखी है। आप कैसे ही दुस्साहसी और प्रगतिशील विचारक क्यो न हो, मूल प्रकर्ति के अनादि और अंतहीन बंधन को काट कर अपना अस्तित्व किसी भी हालत मे कायम नही रख सकते। मैरा एक विनम्र सुझाव है, आज के विश्व व्यापी 'लिब मूवमेंट' के युग मे केवल भारतीय पत्नियाँ ही नही, संसार भर के तथाकथित उन्नत देशो की पत्नियाँ बर्बरयुगीन दासता से भी विकट विवशता की जिस स्थिति मे अपना जीवन बिता रही है और निरंतर अपने तप और त्याग द्वारा परिवार और समाज को एकदम अर्थहीन विश्रंखला की स्थिति से उबारते चले जाने के 'थैंकलैस' काम मे अपने को बिना किसी शिकायत के खपाती चली जा रही है,वह अपनी निपट मूर्खता,अशिक्षा या दूसरी किसी विवशता के कारण नही अपनी प्रक्रतिगत विशेषता के कारण कर रही है, तब उनके बीच मे प्रेयसियो को स्थापित करके उन्हे उद्वेलित क्यो किया जाये, इसमे क्या तुक है? यदि लेखको का मस्तिष्क आज के युग मे इस कदर जड़ हो चुका है कि पत्नी की सेवा से उसमे चेतना ही नही आ पाती, तो भाई साहब आप लोग सब इतने बड़े लेखक है, क्यो इन बेचारी पत्नियो को प्रेयसियां बन जाने की प्रेरणा या टरेनिंग नही दे पाते? यदि आप मे इतनी भी शक्ति नही है तब आप के लेखन को वह गौरव क्यो दिया जाये कि आपकी लेखकीय क्रपा के प्रति अनुग्रहित हो कर जनता आपके लिये प्रेयसियां जुटाने का कष्ट उठाये? मैरा तो एक सरल नुस्खा है, आप लोग चाहे तो इसे अपना कर देख ले। मैरा कहना है कि आप पत्नी ही एसी स्त्री को बनाये,जिसे आप विवाह के पहले ही अपनी प्रेयसी बनाकर परख चुके है। समापण्………!…………?

Wednesday, October 15, 2008

consumer fouram

तीसरा खंबा: कानूनी सलाह : क्या वकील का मुवक्किल एक उपभोक्ता है?

हम को उपभोक्ता बना लीजे ,
फीस जितनी भी हो बढा दीजे,
आप लड़िये हमारे खातिर ही,
बीच* वालो को सब हटा दीजे.


*फोरम्स

एम्. हाशमी

Sunday, October 12, 2008

भाई का डर

दिनेश राय जी द्विवेदी के लेख से प्रभावित हो कर्……।


है विषय आपका लाँ & ओँर्डर,
ज़िक्र करते है हम सभी अक्सर,
व्याख्या आपकी बहुत सुन्दर,
"भाई" कह्ते है-ला… नही तो डर्।*

[*लाँ or डर]

मन्सूर अली हाशमी

Saturday, October 11, 2008

Upside Down

झूठा सच
 
False ceiling लगाना ज़रूरी है अब,
फ़र्श के साथ छत भी सजा लीजिये,
अब जो उल्टे चलन का ज़माना है यह,
पांव छत पर भी रख कर चला कीजिये ।


पहले ज़ीनत का दर्जा बुलन्दी पे था,
अब तो दर्जा -ब-दर्जा वो पस्ती पे है,
टोपी-पगडी हो सर पर ज़रूरी नही,
शूज़ पर अपने पालिश लगा लीजिये।

लेफ़्ट ही तो है राइट मैरे देश मे,
गाडी जिस सिम्ट चाहें घुमा लीजिये,
है लचक भी तो कानून मे इस कदर,
गाडी फ़ुटपाथ पर भी चढ़ा दीजिये।


ज़र्फ़ की है कमी,तर्क चलते नही,
हर किसी से न यारो वफ़ा कीजिये,
धर्म को भी दया से नही वास्ता,
हो सके तो बुरे से भला कीजिये।


मन्सूर अली हशमी

Wednesday, September 24, 2008

L O V E R

आशिक  [II]
आज मैंने सचिन से इंटरव्यू के लिए appointment लिया ।
कबूतर तो कबूतरी से भी छोटा निकला, कद में। उम्र तो वही तीन-एजरी थी।

म.ह. :-  हेल्लो, सचित्र ,तुम्हारा यह नाम?
सचित्र:- वह मेरी बात काट कर बोला, मेरा नाम ही नही मेरा कार्ड भी सचित्र है, उसने अपनी स्वयं की तस्वीर वाला visiting card मेरे हाथ में थमा दिया।
पहले की मैंइससे अगला सवाल करू उसने ठेठ राजनीतिझ  वाले अंदाज़ में कहा "no persosonal questions please!" मैंने मन में सोचा person तो तुम अभी पूरे बने नही हो, इसलिए थोड़ा हट कर ही सवाल करना पड़ेगा!
म.ह. :- ब्लागर्स के प्रति मैरी जिझासा ही तुम्हारे पास लायी है!
सचित्र: - 'जिझासा' का मतलब तो नही मालूम , खेर , जो भी लाया है, आप पूछिये but no personal questions please.
म . ह.  :- हिन्दी में ब्लॉग्गिंग कब से कर रहे हो?
सचित्र:- no, no, basically, I am a english blogger। वह तो मेरे स्य्स्तेम सॉफ्टवेर से हिन्दी में ट्रांसलेट करवा लेता हू।
म.ह. :- इंग्लिश पर ही कृपा -द्रष्टि रखी होती तो?
सचित्र:- 'कृपा-द्रष्टि' मतलब?..., मगर इंग्लिश ब्लॉग पे कोई कमेंट्स नही मिल रहे थे , सोचा अपने देश-वासियों का ही भला करू!
म .ह:- हिन्दी रिस्पोंस केसा है?  क्या कहते है लोग?
सचित्र:- very nice, १५-२० तो हर एक पर आ ही जाते है, मगर ज्यादातर लोग meaning ही पूछते रहते है।dictionary भी नही खरीद सकते poor indians!
म.ह. : विषय क्या रहता है तुम्हारा?
सचित्र:- sabject की क्या कमी है, अपने स्वयं से ही स्टार्ट करो तो बरसो तक चलते रहेंगे! फ़िर मेरा तो principle ही है की charity begins from home।
म.ह.  क्या मतलब? भावनाओ का एसा तूफान है तुम्हारे मन में?
सचित्र :- हाँ, एक का नाम यही [भावना] ही था, but no personal questions please। मैं तो शरीर के प्रत्येक अंग को अपना विषय बना रहा हूँ बारी -बारी!
[अब मुझे समझ में आया की यह "नो पर्सनल ....वाला डायलोग तो उसका 'तकिया कलाम ' है।
म.ह. :- कोई उदहारण?
सचित्र: आँखे , होंठ , उँगलियाँ, कान, बाल , heart वगैरह । अरे, इस हार्ट ने तो कमाल ही कर दिया इस पर तो 'उसकी' सहेलियों के comments अभी तक आ रहे है।
म.ह. :- यह 'उसकी' कौन?
सचित्र:- no personal questions please, but मैं आपको बताउंगा , वास्तव में मैं भी 'उसको'  nick नेम ही से जानता हू ..."पतंग", मेरे हार्ट  टाइटल पर वह कटी पतंग ही की तरह तो आकर अटक गई है.क्या खुबसूरत इत्तेफाक है उसका पतंग होना और net के ज़रिये दिल पर अटकना।
म.ह. :- kidney पर नही लिखा तुमने?
सचित्र;- लिख लिया था लगभग , मगर वह उसके liver पर कुर्बान [न्योछावर] हो गया...आह!
म.ह:- किस तरह?
सचित्र:- जिस दिन 'किडनी' कम्प्लीट हो कर पब्लिश होने वाला ही था की उसने यह अशुभ समाचार सुनाया की वह भी लिवर पर एक ब्लॉग लिख रही है, जबकि मेरा अगला सब्जेक्ट वही था। उससे 'बहस' , 'तकरार' में मैं किडनी save नही कर पाया, और दोबारा लिख भी नही पाया।
म.ह: - फ़िर लिवर का क्या हुआ?
सचित्र:- उस पर तो हम इस एग्रीमेंट पर पहुंचे की इस विषय पर दोनों ही नही लिखेंगे, हालाँकि मेरा लिवर अब भी इस विषय के लिए उछल रहा है।
म.ह. :- तुम्हारा कोई unique ब्लॉग?
सचित्र:- ज़रूर होता, 'नाक' इस सम्बन्ध में दुनिया को पहली बार यह कांसेप्ट मिलता जो मैं 'नाक' को pyramid की उपमा से संबोधित करता।
म.ह. :- क्या हुआ 'नाक' का ?
चित्र:- वह 'भावना' लिख गई, में उसकी भावना को ठेस नही पहुँचाना चाहता , उसका एक मात्र ब्लॉग है उसकी "नाक" , मैं केसे काट देता?
म.ह. :- अगले ब्लोग्स के titles ?
सचित्र:- गला, कमर और most favourite एक और है, मगर मैं लिख नही पाऊंगा !
म.ह. :- कौनसा? और क्यो नही लिख पाओगे?
सचित्र:- नही,नही, शर्म आती है, [यह कहते कहते वह वाकई शर्म से लाल हो गया और फिर स्वयं ही इंटरव्यू समाप्त घोषित करते हुआ बोला... no personal questions please.
मैरे  पास भी उठने के अलावा कोई चारा न था , मगर इन सब बातो में कबूतरी यानि पतंग का असली नाम आपको बताना भूल ही गया। मै बता भी दू मगर अब मुझमे एक और जिझासा जगी है ,पतंग के ब्लॉग के titles जानने की , तब फ़िर इस बात को अगले इंटरव्यू तक बचाए रखे तो?
-मंसूर अली हाश्मी

Saturday, September 20, 2008

L O V E


इश्क [I]

Online प्रेम यूं  तो होते रहते है , मगर एक teenage 'ब्लोगरी' का एक teenage ब्लोगर से मामला थोड़ा रोचक है। एक इंटरव्यू की शक्ल में हाज़िर है:-

# m.h. : तुम क्यो ' सचित्र की तरफ़ आकर्षित हुई?
#ब्लोगरी : क्योंकि वह विचित्र नही है
# m.h. : क्या विचित्रता नही उसमे?
# ब्लोगरी : कुछ भी नही , बिल्कुल मेरी तरह सोचते है !
#m. h. : कौनसी सोच उसकी आप से मिलती है?
# ब्लोगरी : उनको वही 'गाने' पसंद है जो मुझे पसंद है।
# m.h. : और कोई common बात?
# ब्लोगरी: उसके system में भी LogMein software है, मुझे अपने सिस्टम में access कर ने की permission दे दी !
#m.h. : दिल में समाने [ access] की कौशिश नही की आप दोनों ने ?
# ब्लोगरी : अरे वोह Heart ? मुठ्ठी भर का ? खून ही पम्पिंग करता रहता है , चौबीसों घंटे, हम उसपे depend नही रह सकते । एक राज़ की बात बताऊँ ? उनकी हार्ड डिस्क में अभी भी ४० gb. स्पेस फ्री है,मेरी पसंद के सारे गाने उसमे आ जायेंगे।
# m. h. : तुमको ये हार्ट का function & limitations कैसे मालूम हुए?
# ब्लोगरी : अरे ! उसी ने तो हमारा मिलन करवाया ।
#m. h. : कैसे ?
# ब्लोगरी: metric के एक्जाम में मुझे इस साल हार्ट पर एक प्रोजेक्ट बनाना था। नेट पर heart click किया तो heart title का ब्लॉग भी मिला सचित्र का लिखा हुआ।
# m.h. : क्या लिखा था उसने?
# ब्लोगरी:पूरा तो याद नही, कुछ इस तरह था:-
"एक मुठ्ठी खून तुम फेंका किए,  हम न जाने क्या तुम्हे समझा किए" .
# m.h. : 'मार्मिक' ? ...यहीं  कमेन्ट दिया ना तुमने?
# ब्लोगरी: कमेन्ट क्या देना अपनी पूरी हार्ड डिस्क सौंप दी उनको, access करने के लिए।

इस इंटरव्यू से में इतना हट - प्रभ हूँ कि , अभी सचित्र से इंटरव्यू लेने की हिम्मत नही ।
ब्लोगरी ने अपना नाम इसी शर्त पर बताया है की सचित्र को पता न लगे । उसके लिए
ये एक बड़ा suspense है ।
आप भी सचित्र से इंटरव्यू लेने तक सब्र रखे।


-मंसूर अली हाश्मी,

  नैत्रकार [नेट पर आँखे गढाए रखने वाले]

security?

सुरक्षितता ?

जिन "फ़िर-ओनो" की यां खुदाई* थी,
उनकी कब्रों की अब खुदाई है,

रत्न -भंडार तो सुरक्षित है,
मिलकियत उनकी अब पराईहै।

भाग्यशाली तो ये रहे फिर भी ,
इनकी लाशो से भी कमाई है ।

*साम्राज्य

-मंसूर अली हाश्मी

Shammi Kapoor

शम्मी कपूर

एक समय में अरब मुल्को में खासकर लेबनान,जोर्डन ,कुवैत वगेरह में शम्मी कपूर का जादू चलता था। 'जंगली' वाला ज़माना था वह। याहूँ तो यहाँ खूब गूंजा, सिर्फ़ नौजवानों में ही नही सब तबको में। 'याहूँ'  काल की यादें  आज भी पुराने लोगों के दिलो में स्थापित है। desktop पर पहुँचने वाला याहू भी इसी नस्ल का है, इसका मुझे कोई अंदाज़ नही।

फिर 'तीसरी मन्ज़िल के musical songs ने भी हम से ज़्यादा अरबो को ही नचाया था। शम्मी कपूर की कद-काठी , रंग-रूप में अरब लोगों को अपने जैसी ही झलक मिलती थी । खासकर तबियत की 'शौखी'  इसको तो ये लोग अपनी ही विरासत समझते है।

शम्मी कबूर [अरबी भाषा में 'प' स्वर के आभाव से बना उच्चारण] का दो दशक तक यहाँ एक छत्र राज कायम रहा।

इन देशो के मूल निवासियों के अतिरिक्त यहाँ बसे हुए एशियन मूल के लोगों का भी बहुत बड़ा योगदान रहा भारतीय रंगकर्मियों और फिल्मो की लोकप्रियता को बढ़ावा देने में।

अब ग्लोबलाइजेशन के दौर में कलाकारों को जो 'मेवा'  खाने मिल रहा है, वह उनकी सेवाओ के मुकाबले में कई गुना ज़्यादा है। भाग्यशाली है आज के अनेक कलाकार!

एक और भारतीय सांस्कृतिक राजदूत 'शम्मी कपूर' को मेरा सलाम।

मंसूर अली हाश्मी [मिस्र से]

Friday, September 19, 2008

Weight

भार
IT से जुड़ कर हम में से बहुत से अपनी दुकान बंद कर बैठे है [दो कान भी microphone घुस जाने की वजह से ]। व्यापारी से हम व्यवसायी [professional] हो गए है। माल खरीद-बिक्री में भी हाथो का प्रयोग कम हो गया है। " सिर्फ़ कुछ उँगलियों की खडखडाहट " , "बगैर in हुए माल out".


खरीदना -बेचना कितना आसन हो गया है, इस प्रक्रिया में शायद हमें भी किसी ने खरीद लिया है ! हम भी बिक कर कितना भर-रहित महसूस कर रहे है। ऊपर उठने के लिए यह आवश्यक भी है। और फ़िर सभी चीजे कम भार की हो रही है, computer, laptop, mobile यहाँ तक की car भी। नई technology का भार से कोई बैर ज़रूर है, तभी तो भार बताने वाले बांटो का तो अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया है[ eloctronic scale से]।


अब छोटी चीजे बड़े status का पर्याय बनती जा रही है तो मैरे छोट्पन पर भी आप एतराज़ न करे।मै
कद घटाकर [तदानुसार भार घटाकर] उंचाइयां पाने की कोशिश कर रहा हू तो आप मेरे पाँव मत खीचिये ।


मगर प्रकर्ति के नियम के तहत यह भार कही न कही तो स्थानांतरित तो अवश्य ही हो रहा होगा ? आज मुझे अपने "पेपर्स" आगे [!] बढ़ने के लिए प्रयुक्त भार से अंदाज़ हुआ की कोई क्षेत्र तो बचा है जहाँ 'भार' निरंतर बढ़ रहा है। 'Balance' बनाने में सहायक ही होगा।


मंसूर अली हाश्मी

Wednesday, September 17, 2008

amitabh bachchan

अमिताभ बच्चन

जवाब सुनकर की यह मैं indian हू, प्रति-क्रिया में उसने पहला शब्द यही कहा..... अमिताभ बश्शन ? और फ़िर आधा दर्ज़न अमिताभ की फिल्मो के नाम गिना दिए,'मर्द' , 'कुली' वगेरह! यह बात ३ सितम्बर 2008 को हुई , यहाँ , मिस्र {egypt} में. यह कोई एक egyptian की बात नही, और भी कई नौ-जवानों से यह तजुर्बा हुआ. यानी अब मिस्र की नई पीढी के लिए भारत की पहचान एक कलाकार है [राष्ट्रपति नासिर के ज़माने में लोगो के लिए नेहरू का नाम भारत की पहचान होता था]. राजनीती , धर्म, कला व् संस्कृति के प्रति  जागरूक मिस्र-वासियों की नई पीढी में कला को पहचान के मध्यम में उपरी क्रम में रखना आश्चर्य-जनक लगा, एक सुखद आश्चर्य!
एक तरफ़ मानव समाज में [अगर हम भारतीय परिप्रेक्ष्य में देखे तो] जिस संकुचितता का आभास , विशेषकर दलीय राजनीती जनित नई वर्ग और वर्ण व्यवस्था जो की  जाती , धर्म , भाषा , प्रदेश, जिला हर स्तर पर लोगों को बांटती हुई नज़र आती है, में देश की पहचान का तत्व कम ही दीखता है,. यह तो शुक्र है की खेलो [sports] और कला जगत ने एक हद तक हमारे वासुदेव कुटुम्भकम के आदर्श की लाज रखी है.
हाँ , तो बात मैं मिसरी नौ-जवान की कर रहा था की पटरी बदल गई!....उसके मुंहसे अमिताभ का नाम सुन कर जिस आत्मीयता का अहसास हुआ वह वर्णन से परे है! बश्शन इसलिए बोलते है की अरबी में 'च' उच्चारण वाला शब्द ही नही है [जबकि ये लोगचाय खूब पीते है.
अन्य मिसरी नौ-जवानों ने अमिताभ की फिल्मो के नाम लिए बल्कि उसके फिल्मी डायलाग बोले और गीत भी गुन-गुनाए , जबकि वे इस भाषा से नितांत अपरिचित है.
कला जगत की ये विशेषता है की यह देश,धर्म आदि सीमओं में नही बंधता. कलाकार ही हमारे सच्चे राजदूत है विश्व कैनवास पर.

-मंसूर अली हाश्मी [मिस्र से] 

Egyptian Mummies

मिस्र से ...सितंबर २००८

 मम्मियों का ये देश है यारो,
"डे" "डियो" की तलाश जारी है,
आदमी आज भी तो मरता है,
ज़िंदा लोगों पे लाश भारी है.


केसा संदेश देगए ये लोग ,
बहस इस बात पर भी जारी है,
बह चुका नील में बहुत पानी,
फिर 'फिरओनो' की फौज भारी है.

[डे-डियो = डेड - बोडियो]

-मंसूर अली हाश्मी.

Tuesday, September 16, 2008

Blogging-11/Nimantran

ब्लागियात-११  

ब्लोग्स पर  comments देने की बजाय सीधे 'blog' ही के माध्यम से लेखक से सीधे-सीधे वार्तालाप कर लेने का तरीका मैंने इसलिए अपनाया ताकि 'लेख' और लेखक के प्रति उत्पन्न हुई ख़ुद की समझ को विस्तार दे सकूं, यदि कुछ ग़लत समझा हो तो निराकरण भी हो जाए. किसी से "बहुत बढ़िया" का दो शब्दों का comment लेकर ठीक से पता नही चलता की "क्या" बढ़िया?
एक भाई का यह सुझाव भी अच्छा है की प्रति दिन कम-अज-कम १० कमेंट्स देवे .ठीक है, परन्तु कम मगर विस्तृत कमेंट्स पर भी विचार होना चाहिए, कुछ विषयों का यह तकाज़ा होता है.
आज ब्लोगर्स की रूचि, विषयों की विविधता और किसी बात का तत्काल सम्पूर्ण विश्व में पहुँच जाना ....लेखकीय विश्व का बहुत बड़ा इन्किलाब है, जिसने ब्लोगिंग को आकर्षक और लोकप्रिय बना दिया है.
इस विषय पर ब्लोग्गेर्स और वाचको के मत आमंत्रित है, धन्यवाद.
-मंसूर अली हाश्मी

Blogging-10

ब्लागियात-१०

स्वयं के लिये:-      [ पत्नी का प्रहार.........ब्लोगर्स होशियार!]

लिखते-लिखते यह तुम को क्या सूझी,
नुक्ता चीनी पे क्यों उतर आए?
'हाश्मी' तुम शिकारी शब्दों के,
खींचा-तानी पे क्यो उतर आए?


सर को down करो है बंद server,
रोक लो अब कलम मेरे दिलबर,
कितने पन्ने स्याह कर डाले....
अब ज़रूरत है आपकी घर पर.


-जी , मैं {m}ही हूँ  {h} , [किसी से न कहना]

Blogging-9

ब्लागियात-९

आज रक्षंदा की बारी है.........

गर  'बला' थी कोई, खेर से टल गई ,
दीदी रक्षंदा तुम तो सफल ही रही,
''उनके''* जेंडर  का भी कुछ पता न लगा,
वह ब्लॉगर तो हरगिज़ नही था कोई.

-एम्.हाश्मी

*असभ्य टिप्पणी से प्रताड़ित करने वाला

Monday, September 15, 2008

Blogging-8

ब्लागियात-8

दादा द्विवेदीजी* को प्रणाम:-


दो ही वेदों को पढ़ के ये आलम,
दर्दे-इंसानियत से है लबरेज़,
बात इन्साफ ही की करते है,
है कलम आपका बहुत ज़रखेज़*

*उपजाऊ


-मंसूर अली हाश्मी.

*तीसरा खंबा 

Blogging-7

ब्लागियात-७

आज भाई राजेश घोटिकर पर नज़र डाल रहा हूँ :-

#चमन के फूल में चिडियों की चह-च-हाहट में,
  ब्लॉग मिलते है इनको हर एक आहटमें,
  ये 'घोंट कर' के पिलाते सबक है जन-जन को,
  स्वच्छ-ओ-सुंदर पर्यावरण की चाहट में।

# ग्लोबलाइजेशन पे गौर करते है,
 मस्वेदा- नुक्लीअर डील पढ़ते है,
आश्रित देश हो .... पसंद नही,
पहले ख़ुद को सिक्योर करते है।

# पक्षियों पर तो प्यार आता है,
   हाँ , इन्हे बार-बार आता है,
   आदमी पर नज़र करे जो कभी,
   x-ray का ख्याल आता है।

-मंसूर अली हाश्मी
#birdswatchinggroup

Sunday, September 14, 2008

blogging-6

ब्लागियात-६
एक ब्लोगर की *महफ़िल में बिला इजाज़त प्रवेश कर गया [क्षमा-याचना]
ब्लॉग पर टिपयाते हुए ....
''किसीने उजड़ी हुई महफिलों में ढूंढाहै,
है बात 'गुप्त' मगर ,यह भी एक 'सीमा' है,
कसक है ,दर्द है, चाहट जो मिल नही पायी,
नया है कहने का अंदाज़ एक सलीका है।''
अपनी रचना  'साथी'  परोस आया:-
''तू ही तशना-लब है साथी,
मुझे क्या पिलाएगी तू ?
तेरा जाम तो है टूटा,मुझे क्या रिझाएगी तू ?
तू बुझी हुई है ख़ुद भी,मुझे क्या जलाएगी तू?
तेरा साज़ सूना-सूना,तेरा नग़्मा ग़म-रसीदा,
तेरी ज़ुल्फ़ भी परीशाँ,तेरी बज्म वीराँ-वीराँ…यूँ लगे कि जैसे सहरा,
कोई एक पल न ठहरा,
सभी रिन्द जा चुके है, मै ही रह गया अकेला!
तू करीब आ के मैरे,तेरी तशनगी मिटा दूँ,
तू मुझे पिला दे सब ग़म, मै तुझे हयात लादूँ
तुझे आग दूँ जिगर कीतेरे हुस्न को जिला दूँ 
तेरी बज़्म फ़िर सजा
तेरी ज़िन्दगी है मुझसे,
तू ही मेरी ज़िन्दगी है,
मै हूँ दीप तू है बाती, मिले हम तो रौशनी है।''

-मन्सूर अली हाश्मी
*passion से

Blogging-5

ब्लागियात-5

ब्लोगेर्स पर कुछ और तफसील के साथ उनकी ही लेखनी की रोशनी में, क्षमा प्रार्थना के साथ अगर कोई अतिशयोक्ति हो गई हो :


# भले 'समीर' ने kiss में ब्लॉग पाया है,
   enjoy ख़ुद ने किया,औरो को रिझाया है,
   फिर  उसके बाद सबक नीति का पढाया है,
   फलित हुए है, प्रतिसाद* खूब पाया है।        *comments

*समीर लाल जी को में निम्न टिपण्णी देने से स्वयं को नही रोक पाया:-
"kiss का किस्सा बयान कर डाला,
लब को दिल की जुबान कर डाला,
उड़ते-उड़ते कहाँ ये आ बैठे ,
ख़ुद को cupid गुमान कर डाला।

बात जब अच्छी लग रही थी तभी,
आपने क्या विचार कर डाला,
'तड़का' morality का देकर,
मीठे को भी अचार कर डाला।

संस्कारो की बात कर डाली,
पंडितो की ख़बर भी ले डाली,
रास-लीला के प्लेटफारम से,
पटरी ही आपने बदल डाली।

खूब है आपका मिजाज़ ऐ 'लाल'
रह के परदेस में भी देशी चाल,
सत कथन बोलते रहो हरदम,
है दुआ रब से वो करेगा निहाल।

-मानसूर अली हाश्मी.
*udan-tashtari

Saturday, September 13, 2008

Blogging-3

ब्लागियात-3

चलते-फिरते ब्लॉग बनते है,
गिरते-पड़ते ब्लॉग बनते है,
कुछ कहो तो ब्लॉग बनते है,
चुप रहो तो ब्लॉग बनते है।


बन सके तो ब्लॉग लिख डालो,
सारा अच्छा ख़राब लिख डालो,
अपने मन की किताब लिख डालो,
ख़ुद ही अपना हिसाब लिख डालो।


तुम जो चूके तो कोई लिख देगा,
'लेने वाला' तो तुम को क्या देगा,
जो छुपानी है बात कह देगा,
जग हसाई की बात कह देगा।


लिख नही सकते कोई बात नही,
अब दवात-ओ-कलम की बात गई,
दब के अक्षर उभरते है अबतो,
है ज़माना नया है बात नई.

पढ़ना अक्षर भी हमको न आवत,
कोनू स्कूल  को भी न जावत,
छोड़ दो अब मजाक ओ भय्या,
हमसे अच्छा ब्लॉग का पावत?
-मंसूर अली हाश्मी

Friday, September 12, 2008

Blogging-2

ब्लागियात-2
कोई इसको भडास कहता है,
कोई 'मुखवास' इसको कहता है,
है किसी के लिए विचार की बात,
कोई बकवास इसको  कहता है.


चोट दिल पर लगी ब्लॉग बना,
खोट से मन दुखा ब्लॉग बना,
ज्योत की लौ बढ़ी ब्लॉग बना,
मौत की 'आगही' ! ब्लॉग बना.


पहले बन-बन के मन में मिटता था,
अब तो बनने से पहले छपता है,
जाल [net] फैला हुआ फिजाओ में,
जो हर-एक सोच पर झपट ता है.


दिल के छालो का नाम भी है ब्लॉग,
मन के जालो का नाम भी है ब्लॉग,
उजले-काले का काम भी है ब्लॉग,
सच पे तालो का नाम भी है ब्लॉग.


सुबह दम शबनमी ब्लॉग बना,
दिन चढा टेक्नीकल ब्लॉग बना, 
सुरमई शाम में शराबी सा,
आलसी, रात में ब्लॉग बना.

-मंसूर अली हाश्मी

Blogging -1

ब्लागियात -१
आत्म-मंथन टाइटल में मैंने ब्लॉग को हलके-फुल्के परिभाषित किया था. थोड़ा विचार किया तो कई पहलू सामने आए. क्यों न हम इस विचार-धारा को ब्लागियात कह कर पुकारे ? यह भी एक द्रष्टिकोण बन चुका है अपनी बात ' जस की तस्' कह देने का. एक नयी शब्दावली भी जन्म ले रही है, blogism की ...ब्लागियात की!
ब्लॉग में प्रयुक्त अक्षर 'ब', 'ल' और 'ग' से छेड़-छाड़ की है....जस का तस् लिखे देता हूँ  :-

बे-लाग हो ब्लॉग तो लोगों को लगेगा,
उतरेगा यूं गले की निगलते ही बनेगा,
बातें गुलाब की हो या गल-बहियों की रातें,
ग़ालिब भी हमें एक ब्लॉगर ही लगेगा।


कहाँ-कहाँ पे छुपा है ब्लॉग ढूँदेंगे,
जहाँ-जहाँ भी छपा है ब्लॉग ढूँदेंगे,
महक की सिम्त बढेंगे गुलाब ढूँदेंगे,
छुपे हुए कई रुस्तम जनाब ढूँदेंगे !


किसी ने ढूँद लिया इसको अपने ही दिल में,
किसी को तिल में मिला है किसी को महफ़िल में,
किसी ने पहाड़ भी खोदा तो कुछ नही पाया ,
किसी ने पा लिया बस एक छोटे से बिल में।


किसी को जड़ में मिला है किसी को हलचल में,
किसी ने नैन में पाया किसी ने डिम्पल में,
किसी को जल में मिला है किसी को जंगल में ,
किसी को युग भी लगा कोई पा गया पल में।

-मंसूर अली हाश्मी

Tuesday, September 9, 2008

Realism

भड़ास   {rachna bhi prastut hai.....bhadasiyo ki hi bhasha hai....  }


आप-साहब, श्रीमान, जनाब, महाशय और शिष्टाचारी रूपी सारे वह शब्द हम त्याग दे जिसे बोलते समय हमारा आशय सद नही होता। सदाशयताका विलोप तो जाने कब से हो गया। क्यों न हम यथार्थवादी बन सचमुच जो शब्द हमारी सोच में है, तीखे, भद्दे ,गन्दे, गालियों से युक्त,विषमय  परंतु कितने आनंद दायक जब हमें उसे प्रयोग करने का कभी सद अवसरप्राप्त होता है।क्यों न हम यह विष वमण कर दे, और इसे तर्क संगत साबित करने के लिये,इतिहास की  गर्त में सोये दुराचारो, अनाचारो, अत्याचारो के गढ़े मुर्दे बेकफ़न कर दे! अच्छा ही होगा, हमे बद हज़मी से भी ज़्यादा कुछ हो गया है, हमारा सहनशील पाचक मेदा अलसर ग्रस्त हो गया है! और मुश्किल यह है कि हमे लगातार तीखे मिर्च-मसाले खिलाये जा रहे है-- धर्म के, दीन के, स्वर्निम इतिहास की अस्मिता के नाम पर,जबकि नैतिक पतन के इस दौर में ये शब्द अर्थ-हीन होते जा रहे है।मज़हब की अफ़ीम से , नींद आ भी जाये परन्तु 'अल्सर' तो दुरस्त नही होगा।इस अल्सर को कुरैद कर काट कर उसमें से अपशब्दो को बह लेने दो। इसमें मरने का तो डर है, परन्तु अभी जो स्थिति है उससे बेह्तर है। मैने तो सभ्य बनने की कौशिश में शिष्टाचार का जो आवरण औढ़ रखा है उसमें गालियां भी दुआए बन कर प्रवेश होती है। परन्तु अप शब्दो का मैरे पास भी टोटा नही, छोटपन दिखाने के लिये मैरा कद भी आप से कम छोटा नही। शब्दो के मैरे पास वह बाण है कि धराशायी कर दूंगा तमाम कपोल-कल्पित मान्यताओ को, वीरान इबादत गाहो को, परन्तु नमूने की कुछ ही बानगी परोस कर ही मै यह दान-पात्र आपके बीच छोड़ना चाह्ता हूँ.  इस अवसर को महा अवसर मान कर बल्कि महाभारत जान कर कूद पड़ो रण में अपने-अपने विषाक्त शब्द बाणो को ले कर!
यह दान-पात्र है…
लोकतन्त्र@धर्मनिर्पेक्षता.विषवमण्॰काँम
Note:- आपकी उल्टियों (अभिव्यक्तियों) को प्रकाशित करने के लिये 'सामना' तत्पर है, इलेक्त्रोनिक मीडिया हाज़िर है, जली हुई रेल-गाड़ी प्रस्तुत है प्रदेश ही नही देश भर में आपका संदेश प्रसारित करने के लिये…!!!
मन्सूर अली हाशमी

Friday, September 5, 2008

Animality

पशु-धर्म

साम्प्रदायिक दंगा?
नही, बल्कि 'साम्प्रदयिक झगड़े जैसा कुछ' , लग रहा था लोगों को।
इनमें तिलक-धारी भी थे, टोपी-धारी भी, अनेकानेक अन्य भी,
तालियाँ बजाते हुए,अटठहास करते हुए लोग,
सर फुटव्वल की आवाज़े,
झूमते हुए लोग,
खून की धार बह निकलना,
सहमते हुए लोग!
भागते हुए लोग ?
ज़ख़्मों से चूर,
थक कर,
लाचार से बैठे हुए,
दो निरीह प्राणी,
कौन?
एक हिन्दू की बकरी,
एक मुसलमान की गाय्।














ख़ामोशी से एक दूसरे को टकते हुए,
दर्शको के अद्रश्य हो जाने पर,
बकरी मिमियायी ,
गाय रम्भायी,
दौनो को एक-दूसरे की बात समझ में आयी,
बकरी गाय की पीठ पर सवार हुई,
गाय उसे पशु-चिकित्सालय के द्वार पर छोड़ आयी।
Note: {Picture have been used for educational and non profit activies. If any copyright is violated, kindly inform and we will promptly remove the picture.}
मन्सूर अली हाशमी
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Friday, August 29, 2008

Delicate Hard Ware

नाज़ुक हार्ड वेअर
Hard ware?  पर नाज़ुक है बहुत, 
kid   की तरह ही संभाले रक्खो।

गर्म होता है प्रोसेसर तो बहुत,
पंखा इस पर भी झलाये रक्खो।

बोर्ड माँ[mother board] का है, ज़रा Take Care,
Memory से भी संवारे रक्खो।

धूल खाने की नही है आदत,
वातनुकूल फ़िजा में रक्खो।

p.c. ,सोरकार का नही है यह,
मैजिक डंडे  से बचाकर रक्खो।

Bill के 'गेटो' से गुज़र है इसकी,
जैब भी अपनी बचाये रक्खो।

-मन्सूर अली हशमी

Mobile Lyric

मोबाईल-दोहे

# पहले हम मिस को काँल करते थे,
   मिस[ड] अब हम को काँल आते है।
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# वो तो नम्बर ही खर्च करते है,
   हम Recharging पे नोट भरते है।
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# एक ही Ring [अंगूठी] पे साठ पार हुए,
   कईं टनो [Tones] से अब मन नही भरता।
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# नींद बे पर ही उड़ गयी दिन की,
   झोंका लगते ही थरथराते [Vibrating mode] है।
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# मिस जो हमने न काँल की होती,
   कितनी चिडियाएँ  डाल पर होती?
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# दाने अब क्यों बिखेरे बैठे हो?
   Net Work Area से बाहर हो!
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-मन्सूर अली हाशमी

Thursday, August 28, 2008

अक्कल दाढ़/WISDOM TEETH

अक्कल दाढ़

अब जो 'अक्कल की दाढ़'* आयी है,
यह blue tooth मेरे भाई है।


हो के दांतो पे यह सवार मैरे, 
virus अपने साथ लायी है।


दांत तो मुझको फ़ल खिलाते है,
यह तो मुझको ही काट खायी है।


गुप्त file की तरह खुल बैठी
michel Angelo ताई है?


Dentist कह्ते है delete करो,
यह तो अपनी नही पराई है।


मैरी संसद मे जब से आ बैठी,
'मत' अविशवास ही का लायी है।


'हाशमी' सोचते हो क्यों इतना?
यह किसी और की लुगाई है।


तर्क करदो तलाक दे डालो,
तीन लफ़्ज़ो* की तो दुहाई है।


मन्सूर अली हाशमी
*wisdom teeth
*तलाक,तलाक,तलाक

Wednesday, August 27, 2008

MODERN AGE

कल-युग !

                                      डांट [DOT] कर जो काम [COM]करवाओ तो होता आजकल,
मेल [MAIL] से ही तो मिलन लोगो का होता आजकल।


याहूँ का पहले कभी 'जगंली' मे होता था शुमार,
अब तो हर टेबल के उपर [DESKTOP] मौजूद होता आजकल्।


पहले बालिग़ [व्यस्क] होने को दरकार थे अठारह साल,
नन्हा-मुन्ना भी यहाँ होता ब्लाँगर आजकल्।

मन्सूर अली हाशमी

Monday, August 25, 2008

भद्रता/Gentility




i 16 जून, 2008  #

थप-थप-थप,
कन्क्रीट की आफ़िस पे लगे शीशे के बंद दरवाज़े को थपथपाने की आवाज़,
साधारण वेश में एक परेशान बालक की छबि,
हिलते हुए होंठ, पुनः थप-थप
उंगली का इशारा पाकर, पट खोल, केवल सिर ही अन्दर करने का साहस
जुटाटे हुएकुछ बोलने की असफल कोशिश !
इससे पहले कि शब्द उसकी जिव्हा का या जिव्हा उसके शब्दो का साथ दे, मैंने , अपने हाथ में बची हुई, संतरे की दौनो फ़ाँके उस बालक के हाथ पर रख दी!
(
सचमुच, मेरे पास उस वक्त 'छुटटा' कुछ नही था)
आश्चर्य मिश्रित दर्द का भाव उसके चेहरे पर आकर चला गया।
"
कस्तूरी, बाबूजी... कस्तूरी लोगे ?"
उपर से नीचे तक उस बालक को देखते हुए
,
शब्द खर्च करने की भी आवश्यक्ता न समझते हुए
, इन्कार में सिर  हिला दिया।
चेहरे की मायूसी और गहरी हो गयी,
दरवाज़ा धीरे से बंद हो गया।

बंद होते दरवाज़े में से एक तीव्र मगर मधुर सुगंध कमरे में घुस आईपूरा कमरा महक उठा,  मन हर्ष से भर गया।
यकायक कस्तूरी और उस बालक का विचार आया,
बाहर लपका, सुनसान सड़क पर कोई न था।

सामने वृक्ष तले, सदा बैठे रहने वाला बूढ़ा बिखारी
संतरे की दो फ़ाँको को उलट-पलट कर आश्चर्य से देख रहा था।

शायद पहली बार मिली हुई ऐसी भीख को,
और मैं ग्लानिवश!  फिर ऑफिस के कमरे में बंद हो गया।


कस्तूरी की महक तो क्षणे-क्षणे क्षीण हो लुप्त हो गई,
मगर उस बालक की याद की महक अब भी मस्तिष्क में बसी हुई है
,
जिसने मेरी दी हुई  सन्तरे की फ़ांके सिर्फ़ इसलिये स्वीकार कर ली

कि मेरी दान-वीरता का भ्रम न टूटे
या अपने हाथ पर सह्सा रखदी गई दया की भीख इसलिये वापस नही की कि सुसज्ज कक्ष में बैठा हुआ तथाकथित भद्र-पुरुष ख़ुद को
अपमानित मह्सूस न करे!
भद्र तो वह था, जो ज़रूरतमंद तो था... भिखारी नही,
ख़ुश्बू बेचना चाह्ता था, ठगना नही।

'
ठगा'  तो मैं फिर भी गया, अपने ही विवेक से,
जिस विवेक ने मुझे तथाकथित बुद्धिजीवी (?) की श्रेणी में पहुंचा रखा है। 

परन्तु मैं बहुत पीछे रह गया हूँ उस बालक से जो ख़ुश्बू का झोंका बन कर
आया और मुझसे बहुत आगे निकल गया है!

मन्सूर अली हाशमी