Saturday, October 25, 2008

अथ श्री बन्दर कथा

अथ श्री बन्दर कथा

नित्यानुसार आज भी अपने घर की छत पर बैठा ब्लाँग रच रहा था कि बहुत दिनो बाद बंदर-दर्शन हुए।
समीर लालजी(उड़न तश्तरी)  की 'अथ श्री बंदर कथा' के बाद से ही यह ग़ायब था। मैं आशचर्य चकित हुवा उसके हाथ में काग़ज़-कलम देख कर! और सह्सा संबोधित भी कर बैठा, मानव जान कर; घोर आश्चर्य में पड़ गया उससे जवाब सुन कर्…………वार्तालाप प्रस्तुत है:-

हाश्मी:- कहाँ थे इतने दिन?
बंदर;- पाठशाला।
हाश्मी:- तो तुम लिखना-पड़ना सीख आए?
बंदर:- ज़रूरी था।
हाश्मी;- क्या ज़रूरत पड़ गयी?
बंदर:- मानवीय हमलो से बचाव के लिये जागरुकता आवश्यक है।
हाश्मी:- कैसा हमला? बंदर: पत्थरोँ की मार से बचने की क्षमता तो प्रकर्ति ने दी है हमे, मगर मानव अब हम पर शाब्दिक बाण चला रहा है। हाश्मी: किस तरह? बंदर: हम बंदरो को दस-दस रूपये में
ख़रीदने-बेचने की वस्तु की तरह प्रचारित कर रहा है।
हाश्मी: ओह! समीर लालजी।
बदर: कौन से लाल? नाम सुना हुवा लगता है, हम में भी कुछ लाल-लाल होते है…
हाश्मी: कुछ नही, मगर तुम लिख क्या रहे हो?
बंदर: बंदरलाँग और क्या, ईंट का जवाब अब पत्थर से ही देना पड़ेगा। [अब मुझे कुछ-कुछ समझ में आने लगा कि मामला क्या है]
हाश्मी: क्या लिख रहे हो सुनाओ…… मैं छपवा दूंगा!
बंदर: अवश्य, इसीलिये तो मैं यहाँ बैठ कर लिख रहा हूँ………सुनो… शीर्षक है … "अथ श्री मानव कथा",…।
''मनुष्य भी बड़ा अजीब प्राणी है, कभी हम बंदरो को अपना पूर्वज मानता है, कभी देवता स्वरूप जान हमारी पूजा करता है तो कभी हमे पत्थर मारता है। पूजा तो हम भी 'डारविन' की करते है जिसने हमें महिमा मंडित किया, मगर हमने तो कभी पत्थर नही मारा टाई बांधने वालो को [पीछे की चीज़ आगे लगाताहै, नकल करना
भी बराबर नही सीखा]। कभी ''मुंह चिढ़ाने'' के हमारे एकाधिकार का हनण करता है तो कभी दीवार और वृक्ष लांघने के हमारे मौलिक अधिकार का उपयोग बग़ैर अनुग्रहीत हुए करने लगता है। इनकी आबादी बढ़ना ही हमारी आबादी घटने का कारण बन गया है। ज़मीन हमारे लिये तंग होती जा रही है। पहले हम इस पर
स्वतंत्रता से विचरण करते थे। अब हमारे हिस्से में 'छते' और 'मुण्डेरे' ही बची है [भरे बाज़ारों में हमारी माँ-बहनो को मजबूरन इस पर बैठना पड़ता है]। प्रकर्ति-प्रदत्त घरो [वृक्षों] को ये बेदर्दी से काटे चला जा रहा है। पृथ्वी  पर हमारे दुशमन कुत्तो से इसने यारी बढ़ाली है उसे गौद में और गाड़ियों में लिये घूमता है।
कभी ये अपने घरों की छतो पर पापड़-बड़ी, अचार सजाये रखता था [क्या मज़ेदार दिन थे वे], अब तो कीड़े लगा सड़ा अनाज ही मिलता है इन छतो पर धूप पाने के लिये। तथाकथित मानवीय मूल्यों की गिरावट यही तक नही रुकी, अब लेखनी के माधयम से हमें अव्मूल्यीत किया जा रहा है। नाच, निर्माण और नंगेपन की कला
हमसे सीखने वाला इन्सान अब हमारी तुलना काग़ज़ी शेरो [शेयरो] से करने की जुर्रत कर रहा है।
अपने राज महलो [संसद भवनो] की उम्मीदवारी के टिकट 'बंदरबाँट'' के हमारे फ़ार्मूले के आधार पर आश्रित मनुष्य अब हमे पिंजरे में बंद देखना चाहता है। अपने मनोरंजन की वस्तु मानने लगा है हमें,
अपनी फ़्लाँप फ़िल्मों के कलाकारो से ऊब कर! हाँ- कुछ संस्कारवान लोगो ने अपनी सेनाओ को हमारा नाम प्रदान कर हमें प्रतिष्ठित भी किया है, हम उनके क्रतझ है, मगर कलम तो हमे थामना ही पड़ेगा,
अपनी अस्मिता की सुरक्षा के लिये यही एक मात्र अहिंसक और शालीन रास्ता है, और फ़िर हम तो अहिंसावादियों के प्रेरक भी रहे है।
पहला अमानवीय बलाँगर्………
श्री पुण्डाकारी…[यह मैरा बलाँगरी नाम है, असली नाम अभी प्रकट नही कर सकता अपने समाज से ब्लाँग लिखने की आझा लेना शेष है]
# इसके पहले कि मैं कोई कमेंट करता, काग़ज़ का टुकड़ा मैरे हाथ में थमा कर ये जा…वो जा…, वैसे भी बंदर लोग कमेंटस का स्वाद क्या जाने!
 ## काग़ज़ का टुकड़ा हाथ में लिये अवाक सा…इस सोच में डूब गया कि बचपन में इसी छत पर से मैरे हाथ से रोटी का टुकड़ा छीन एक बंदर चम्पत हो गया था, कही उसका कोई नाती तो यह कर्ज़ नही चुका गया?

5 comments:

प्रशांत मलिक said...

ek saans me padha jane vala lekh.
bahut achcha
khaskar
[भरे बाज़ारों में हमारी माँ-बहनो को मजबूरन इस पर बैठना पड़ता है]

P.N. Subramanian said...

बहरहाल अच्छा लगा. अक्ल मोटी होने के कारण ज़्यादा समझ में नहीं आई. अच्छा ही हुआ. समझ लेता तो तक़लीफ़ होती. वैसे समझ का कम होना सेहत के लिए भी अच्छा होता है. शुक्रिया.

दिनेशराय द्विवेदी said...

शानदार आलेख है हाशमी जी। बधाई हो। दीपावली मुबारक हो।

दिनेशराय द्विवेदी said...

हाशमी जी! आप की इस पोस्ट के सारी टिप्पणियाँ मेरे मेल पर आ रही हैं। वैसे मुझे इस बात की प्रसन्नता है।

CHINMAY said...

aapka vyangya lajwab hai.