Saturday, August 14, 2010

समुन्द्र पार से शौहर का ख़त

समुन्द्र पार से शौहर का ख़त 


इन दिनों  पच्चीस साल बाद दो बारा इस मुल्क 'कुवैत' में पहुँच कर लग रहा है कि जहाँ तक आप्रवासियों की स्थिति है अधिक कुछ भी नहीं बदला, जबकि ये देश अब अपनी तरक्की के चरम पर है. ७० के दशक में एक पाकिस्तानी शायर [नाम अब याद नहीं रहा है] जो ख़ुद भी अप्रवासी थे ने यह  नज़्म लिखी थी जो उस वक़्त यहाँ के एक स्थानीय अखबार अरब टाईम्स [इं[ग्लिश/उर्दू]  में छपी थी.अप्रवासियो की व्यथा बयान करती हुई . मैंने भी अपनी श्रीमती को इरसाल करदी थी, नतीजतन वतन वापसी की राह आसान हो गयी थी......पेश कर रहा हूँ:-
तुम्हारा नामा-ए उल्फत मुझे कल मिल गया प्यारी
पढ़ी जब लिस्ट चीज़ों की कलेजा हिल गया प्यारी
वही तकरार तोहफों की वही फरमाइशें सबकी
लिखी है गोया ख़त में सिर्फ तुमने ख्वाहिशें सब की
सभी कुछ लिख दिया तुमने किसी ने जो लिखाया है
फलां ने ये मंगाया है, फलां ने वो मंगाया है.

कभी सोचा भी है तुमने रूपे केसे कमाता हूँ
कड़कती धूप सहता हूँ पसीने में नहाता हूँ
मगर तुम हो कि, रिश्तेदारियां मल्हूज़ रखती हो
लुटा कर अपने ही घर को इन्हें महफूज़ रखती हो
जो पैसा पास हो रिश्ते भी सोये जाग जाते है
बुरा जब वक़्त आता है तो फिर सब भाग जाते है.

मैं पहुंचूंगा तो फिर तुम देखना असली लुटेरो को
गले मिलते है कैसे  देखना फसली बटेरो को 
पहुँच जाएंगे ये सब लोग झूठी चाह में ऐसे
भंडारा बंटने  वाला हो किसी दरगाह में जैसे
कोई कैसे कहे ये बात इन मौक़ा परस्तो से 
रूपे लगते नही इस मुल्क में किबला दरख्तों पे 

तुम्हारी ख्वाहिश ऎसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले
मगर कहना खुदा लगती कभी नाकाम हम निकले?
कहा तुमने मुझे जो कुछ वही कुछ कर दिया मैंने 
तुम्हारे अगले पिछलो को भी अब तो भर दिया मैंने
मुझे 'कुवैत'  आके , अब तो दसवां साल है प्यारी
वतन से दूर हूँ कब से शिकस्ता हाल है प्यारी.

मगर तुम हो कि बस फिर भी यही तकरार करती हो
करो इक और एग्रीमेंट यही इसरार करती हो 
हवास ज़र की खुदा जाने कहाँ ले जायेगी हमको
ख़ुशी मिल जुल के रहने की ना मिलने पाएगी हमको
मैरे भी दिल में आता है मैरी इज्ज़त करे बच्चे
थका हारा जो लौटू, मिरी खिदमत करे बच्चे.

मै होता हूँ जो घर पे तो बहुत तस्वे बहाते है
मिरे जाते ही वो कमबख्त गुलछर्रे उड़ाते है
जिसे बिजनेस करना था जुवारी बनता जाता है
बनाना था जिसे पायलट शिकारी बनता जाता है
मिरे ही अपने बच्चे मुझसे यूं अनजान रहते है
बजाए मुझको अब्बू के वो मामूजान कहते है.

खुदा के वास्ते प्यारी यहाँ से जान छुड़वादो 
मिरी औलाद को लिल्लाह, मिरी पहचान करवादो
तुम अपने आप को देखो जवानी ढलती जाती है
तुम्हारी काली ज़ुल्फों में सफेदी बढ़ती जाती है 
 फ़िराक-ओ-हिज्र के सदमे को पत्थर बन के सहती हो
सुहागन हो के भीतुम हैफ! बेवा बनके रहती हो.

हुवा चलना भी अब दुशवार ढांचा बन गया हूँ मैं 
कभी सोना था पांसा, आज तांबा बन गया हूँ मैं
लुटाना छोड़ कर दौलत , किफ़ायत भी ज़रा सीखो
बहुत कुछ बन गया घर का क़नाअत भी ज़रा सीखो
दुआ करना रिहा जल्दी तुम्हारा ख्स्म* हो जाए
सजा ये मुल्क बदरी कि, मिरी अब ख़त्म हो जाए


*शौहर 

Friday, August 13, 2010

ऐसे तो न थे हम!


                              "छिनरा कोई, छिनाल, छलावा लगे कोई "

'छिनाल' पर बहस रुकने क नाम नही ले रही, ख़ूब 'छीछालेदार' हो रही है, तथाकथित बुद्धिजीवी साहित्यकारों की. 'छत्तीस' के आंकड़े वालो को भिड़ने का ख़ूब अच्छा बहाना मिल गया है. 'छाती' ठोंक कुछ 'छुट-भय्ये' भी मैदान में कूद पड़े है. ख़ूब 'छकिया' रहे है एक-दूजे को. इतने 'छक्के' तो T-20 में भी नहीं लगे थे. 'छलनी' जितने 'छिद्र' निकल आये है हमारी साहित्यिक संस्कृति में, जिसकी गरिमा पर गहन चिंतन करते हम अघाते नही. एक सभ्य ! व्यक्ति के 'छिनाल' शब्द प्रयुक्त कर लेने पर सभी को जैसे 'गाली-गलौच'  की 'छूट' सी मिल गयी है.
'छद्मरूप' धारी  टिप्पणी कर्ता भी ख़ूब मज़ा ले रहे है, इस भिड़ंत का. अजीब मन: स्थिती हो रही है इन दिनों, हिंदी साहित्य पढ़ने, मनन करने पर भी शर्म सी महसूस हो रही है. क्या कोई गंभीर साहित्यकार या साहित्य  के शुभ-चिन्तक आगे आकर इस 'छिनाली' संस्कृति से हिंदी साहित्य को मुक्त करवाएगा ? 

-मंसूर अली हाश्मी 
  

Saturday, June 26, 2010

चिकित्सक



चिकित्सक   


[सूखी नदी के तट पर दो मछली शिकारियों के हाथ क्या लगा....?]

तेज़ हवा के झोंके के साथ उड़ता हुआ वो कागज़ उसके चेहरे से टकराया , "ये तो कोई चिठ्ठी है" , सरसरी नज़र डाल कर वह बड़बड़ाया . पहली लाईन ही चौंकाने वाली थी..
''मैरे पास ख़ुदकुशी करने के सिवा कोई चारा नहीं, बगैर दहेज़ विवाह हो नहीं सकता, आज आठवी बार न सुनकर मैरा दिल टूट गया है. मैरे विवाह के लिए,माँ का इलाज बंद करना पड़े, बहनों की पढ़ाई रोक दी जाए, घर गिरवी रखने की स्थिति पैदा हो, यह मैं  हरगिज़ नहीं चाहूंगी. इसलिए मैं न रहूं तो कई समस्याए एक साथ ख़त्म हो जाएगी."  -ज्योति   
सूखी नदी के घाट पर उससे थोड़े ही फासले पर कोई लड़की घुटनों के बीच सर छुपाये बैठी थी, शायद रो रही थी. पास रखे पत्थर  के नीचे से उड़कर यह चिट्ठी उस तक पहुँच गयी है, उसने सोचा. वह उस लड़की की तरफ बढ़ता उससे पहले ही  लड़की ने चिट्ठी उसके हाथ में देख कर उसकी तरफ लपकी.२४-२५ वर्ष की सुन्दर लड़की को अपनी तरफ लपकते देख वह थोड़ा पीछे हटा. "आपने यह चिट्ठी पढ़ी तो नहीं"?  लड़की लगभग चीखते हुए पूछ रही थी. 
"पढ़ भी ली तो क्या हुआ, सूखी नदी में ख़ुदकुशी कैसे करोगी"? 
"उसका मैरे पास इंतेज़ाम है." विपरीत दिशा में भागते हुए लड़की ने अपनी पर्स में से कोई शीशी निकाल कर खोली. उससे भी अधिक फुर्ती दिखाते हुए उस युवक ने उसके हाथ से शीशी छीन कर दूर नदी की तरफ उछाल दी. लड़की उसके पास खड़ी हांप रही थी और वह उसकी सुन्दरता निहार रहा था. युवक आदेश के लहजे में बोला, "बैठ जाओ". व झट से बैठ गयी. 
"यह क्या मूर्खता कर रही थी?"  जवाब देने की बजाय लड़की ने ही सवाल कर डाला...."आप करेंगे बग़ैर  दहेज़ के शादी?" 
"हाँ-हाँ  ज़रूर , अगर तुम्हे आपत्ति न हो?" 
सीधे-सीधे यह  प्रस्ताव पा कर लड़की तो सन्न रह गई. वह शर्माना भी भूल गई, ख़ुशी से आँखे ज़रूर छलक आयी. अब वें चलते-चलते युवक की कार  तक आ गए थे.
कार चलाते हुए युवक बोला,  "मैं एक डॉक्टर हूँ, 'डॉक्टर-पत्नी' ही की तलाश में तीन साल बीत गए, आज तो माँ ने वार्निंग ही दे दी थी, कि तुम मिल गयी."
कितनी सहजता से बात कर रहा है, ज्योति ने सोचा, "सच्चाई  इसे बता ही दूँ."  बोली,  "एक सच्चाई आपको बताना चाहती हूँ, अगर बुरा न माने?"   . 
डॉक्टर ख़ामोश रहा, कईं विचार उसके मन में आकर चले गए, उसे आशंका हुई क़ि गर्भवती होने वाली बात न कहदे, तभी तो वह मरना चाहती होगी? उसे ख़ामोश देख ज्योति ही दोबारा  बोली,  "यूं तो ख़ुदकुशी ही मुझे अपनी समस्या का हल दिख रहा था, मगर आज घाट पर वो सन्देश मैंने जानकर आपकी तरफ हवा  का रुख़ भांप कर प्रेषित किया था आखरी कोशिश  के तौर पर."   "और वह ज़हर की शीशी?"  डॉक्टर यकायक पूछ बैठा.  "वह तो इत्र की शीशी थी, कमाल ज़ोर से फेंका आपने!"
एक ज़ोर के झटके से गाड़ी रुकी, ज्योति ने चौंक कर बाहर देखा, एक बड़ा सा बंगला  था जिसके बाहर 'पशु-चिकित्सक'  का बोर्ड लगा हुआ था. ज्योति के चेहरे पर हवाईयां उड़ रही थी, डॉक्टर के चेहरे पर इत्मिनान था, वह ज्योति की हालत का आनंद लेते हुए बोला, "जानवरों से डर तो नहीं लगता ना?"
ज्योति से कोई जवाब नहीं बन पड़ा.  ज्योति को वही बैठा छोड़,  डॉक्टर बंगले में प्रविष्ट हुआ , लौटा तो उसके हाथो में एक सफ़ेद रंग का छोटा सा पप [pup] था जिसे पिछली सीट पर बिठा  गाड़ी आगे बढाई.








 हिम्मत जुटा कर ज्योति ने बोलने के लिए मुंह खोला....."तो आप.."     "जानवरों के डॉक्टर है".......वाक्य पूरा किया डॉक्टर ने..एक ज़ोरदार अट्टहास करते हुए.
ज्योति कुछ समझ पाती इससे पहले गाड़ी फिर एक झटके के साथ रुकी... डॉक्टर मनोज मिश्र  M.B.B.S., MD के बंगले के सामने. अब डॉक्टर मनोज ने ज्योति की तरफ वाला दरवाज़ा खोल उतरने का आग्रह किया. भौंचक्क सी ज्योति मशीन की तरह चलती-चलती साथ होली. 
दरवाज़े पर खड़ी माँ कह रही थी, "बेटा, बिजली गुल हो गयी है."  "माँ, चिंता मत करो, मैं ज्योति ले आया हूँ." कहकर ज्योति की माँ से भेंट करवाई. आश्चर्यचकित ज्योति दमक-दमक गई.  
-mansoorali hashmi

Monday, May 31, 2010

आलूबड़ा



अजित वडनेरकर जी के 'शब्दों के सफ़र'  पर आज ३१-०५-१० को ये नाश्ता मिला :-
[
इसको 'बड़ा' बन दिया इन्सां की भूख ने, 

'आलू' वगरना ज़ेरे ज़मीं खाकसार था.]


आलूबड़ा 

छोटा नही पसंद, 'बड़ा' खा रहे है हम,
खाके, पचाके 'छोटा' ही बतला रहे है हम.


घर है, न है दुकान, सड़क किसके बाप की!
'वट' वृक्ष बनके फैलते, बस जा रहे है हम.

'चौड़े' गुजर रहे है क्यों  'पतली गली' से अब!
कब से इसी पहेली को सुलझा रहे है हम.

कुछ इस तरह से कर लिया फाकों का अब इलाज,
मजबूरियों को पी लिया, ग़म खा रहे है हम.

इसको सराय मान के करते रहे बसर,
थक हार कर अखीर को घर जा रहे है हम.

mansoorali hashmi

Sunday, May 16, 2010

बड़ा कौन ?


बड़ा कौन ?

किस 'बला' में है मुब्तला 'गीरी'*       [ब्लागीरी]
झाड़ या फूंक ही करा लीजे.

फंकी चूरण की लो जो पेट दुखे,
सर दुखे बाम ही लगा लीजे.

समझ नही आता तकलीफ कहाँ पर है? हिन्दी ब्लागिंग में जो उठा-पटक चल रही है , अफ़सोस क विषय है. अपनी खामोशी कुछ इस तरह तौड़  रहा हूँ:-

'गल' में 'गू' आ गया है क्या कीजे?
थूंक कर चाटना, सज़ा कीजे.


किसको छोटा किसे बड़ा कीजे.
सब बराबर है अब मज़ा कीजे

बलग़मी  है सिफत बलागों की,
थूंक कर साफ़ अब गला कीजे.

जो है लेटा उसे बिठाना है,
बैठने वाले को खड़ा कीजे.

यूं तो ठंडक थी 'उनके' रिश्तो में, 
बढ़ गया ताप अब हवा कीजे.


ख़ामशी ओढ़ने से क्या मतलब,
दिल दुखा है अगर दवा कीजे.


हर बड़े पर ये बात वाजिब है,
जो है छोटा उसे क्षमा कीजे. 

फिर न हो पाए ऎसी उलझन अब,
आइये मिलके सब दुआ कीजे.

mansoorali हाश्मी
http://atm-manthan.com

Thursday, May 13, 2010

शर्म हमको मगर नही आती....


शर्म हमको मगर नही आती....

फटाफट इसमें* मिल जती है शोहरत,      [*T-20] 
जो हारे भी तो खुल जाती है किस्मत.

हाँ ! मैंने दी है थाने  पर भी रिश्वत,
न देता, कैसे बनता 'पास पोरट' ?

हो रिश्वतखोर या आतंकी,नक्सल,
वे दुश्मन देश के है यह हकीक़त.

''गयाराम'',  आ गया सत्ता की ख़ातिर,
है 'खंडित' 'झाड़' की हर शाख़ आह़त.

बदलते जा रहे पैमाने* देखो,            [*मापदंड]
उसे अपनाया जिसमे है सहूलत*.       [*सुविधा]    

जो चित में जीते, पट में भी न हारे,
इसी का नाम है यारो सियासत.

'यथा' अब 'स्थिति' भाती है क्योंकर? 
कभी सुनते थे हरकत में है बरकत.

मोहब्बत का सबक उनसे* भी सीखा,     [*शाहजहाँ]
दिलो में लेके जो* आए थे नफ़रत.         [*मुग़ल] 

है दुश्मन घर में, बाहर भी हमारे,
न संभले गर तो हाथ आयेगी वहशत.

रखा था 'गुप्तता' की जिनको ख़ातिर,
उसी ने बेच डाली है अमानत.
 
गरीबी की अगर रेखा न होती,
चमकती कैसे नेताओं की किस्मत.

वो PC हो मोबाइल या के टी वी,
नहीं मिलती है अब आँखों को राहत.

फसानो में है गुम, माज़ी के क्यों हम?
ज़माना ले रहा है देखो करवट.

फअल* शैतानी है जबकि हमारे,        [*कर्म] 
पढ़े जाते है किस पर हम ये लअनत !

ब्लोगिंग पर ही कुछ बकवास कर ले,
जो चल निकले तो मिल जाएगी शोहरत. 
mansoorali hashmi

Saturday, April 24, 2010

आडम्बर

अजित वडनेरकर जी,
 आज[२४-०४-१०/shabdon ka safar]  फिर आपने प्रेरित  किया है , आडम्बर के लिए, विडम्बना के साथ खेलना पड़ रहा है:-
__________
I [मैं]  P ह L ए 
==========

आ ! डम्बर-डम्बर खेले,
वो मारेगा तू झेले , 


जो हारेगा वो पहले,
ज़्यादा मिलते है ढेले*      [*पैसे]


देखे  है ऐसे मेले,
बूढ़े भी जिसमे खेले!


आते है छैल-छबीले,
बाला करती है बेले ,     


मैदाँ वाले तो  नहले,
परदे के पीछे दहले.


जब बिक न पाए केले*    [*केरल के]
वो बढ़ा ले गए ठेले.


"मो"हलत उनको जो "दी" है,
उठ तू भी हिस्सा लेले.  


-mansoor ali hashmi 
http://aatm-manthan.com 

Wednesday, April 21, 2010

क्यों?/Why?


क्यों?


ब्लॉगर भी  ज़हर फैला रहा है!
जो बोया है वो काटा जा रहा है.

धरम-मज़हब का धारण नाम करके ,
भले लोगों को क्यों भरमा रहा है.

अदावत, दुश्मनी माज़ी की बाते,
इसे फिर आज क्यों दोहरा रहा है.

सहिष्णु बन भलाई है इसी में,
क्रोधी ख़ुद को ही झुलसा रहा है.

हिफाज़त कर वतन की ख़ैर इसमें,
तू बन के बम, क्यों फूटा जा रहा है.

न  भगवा ही बुरा,न सब्ज़-ओ-अहमर*,
ये रंगों में क्यों बाँटा जा रहा है.

बड़ा अल्लाह , कहे भगवान्, कोई;
क्यूँ इक को दो बनाया जा रहा है. 

मिले तो दिल, खिले तो फूल जैसे,
मैरा तो बस यही अरमाँ रहा है.

*अहमर=लाल 
-मंसूर अली हाश्मी 

Monday, April 12, 2010

नि:शब्द



नि:शब्द!

[अजित वडनेरकर जी  की अ-कविता रूपी कविताओं से किंक्रतव्यविमूढ़ 
 होकर............]

प्रयोग करके शब्दों के ब्रह्मास्त्र चल दिये,
अर्थो का क़र्ज़ लाद के अब चल रहे है हम.

शब्दों के कारोबार में कंगाल हो गए,
अर्थो को बेच-बेच के अब पल रहे है हम.

शाश्वत है शब्द, ब्रह्म भी, नश्वर नहीं मगर,
अपनी ही आस्थाओं को अब छल रहे है हम.

तारीकीयों से बचने को काफी चिराग़ था,
हरसूँ है जब चरागां तो अब जल रहे है हम. 

तामीर होना टूटना सदियों का सिलसिला,
बस मूक से गवाह ही हर पल रहे है हम.

हम प्रगति के पथ पे है, ऊंची उड़ान पर,
कद्रों* की बात कीजे तो अब ढल रहे है हम.

*मूल्य [values]
mansoorali hashmi

Thursday, April 8, 2010

मुफ्त की सलाह!


मुफ्त  की सलाह!

[शब्दों का सफ़र....की आज [०८.०४.१०.] की पोस्ट 
बंद कमरों के मशवरो के स्वरूप,
फैसले जो हुए अमल करना,
शहद पर हक है हुक्मरानों का,
जो बचे उसपे ही बसर करना.

हाँ! सलाह तुमसे भी वो लेंगे ज़रूर,
वैसे तो उनके पास भी है 'थरूर',
दिल के खानों में रखना पौशीदा,
लब पे लाये!  नहीं है ख़ैर  हुजुर.

एम्बेसेडर, मुशीर बनते है,
बस वही, हाँ जो हाँ में भरते है,
उनकी तस्वीर भी पसंद नही,
जो किसी 'दूसरे' से जुड़ते है. 

-मंसूर अली हाशमी 

Saturday, April 3, 2010

बेडमिन्टन/badminton

बेड man -शन [shun ]

SO नया भी है पुराने जैसा, 
मर्ज़ उनका है ज़माने  जैसा,
अपने साथी को बदल कर दोनों,
खेल पायेंगे दीवाने जैसा!
 -मंसूर अली हाशमी

Sunday, March 28, 2010

आज कल / Now a Days


 आज कल 

ब्लोगेर्स:
छप-छपाना, न हुआ जिनको नसीब,
बज़ बज़ाते फिर रहे है इन दिनों.



खुबसूरत जब कोई चेहरा* दिखा,      [*फेसबुक पर]
टिपटिपाते फिर रहे है इन दिनों.

M F Husain :
बेच कर घोड़े भी वो सो न सके,
हिन् हिनाते फिर रहे  है इन दिनों,

रंग में ख़ुद ने ही डाली भंग थी,
तिलमिलाते फिर रहे है इन दिनों

'सोच' कपड़ो
* में  भी उरीयाँ हो गयी,      [*केनवास पर ]
मुंह छुपाते फिर रहे है इन दिनों.



तब  ब्रुश था अब है 'कातर'* हाथ में,    [*क़तर देश]
कट-कटाते फिर रहे है इन दिनों.

नंगे पाऊँ,  पर ज़मीं तो ठोस थी,
लड़खडाते फिर रहे है इन दिनों.

होश का सौदा किया था शौक़ में,
डगमगाते फिर रहे है इन दिनों.


थी  महावत, स्त्री-  गज गामिनी,
सूंड उठाये फिर रहे है इन दिनों.

राज-नीति: 
राज नारी पहलवानों* पर करे?        *[मुलायम सिंह]
बड़बड़ाते  फिर रहे है इन दिनों.


चलती गाड़ी* से उतरना पड़ गया,     *[लालू प्रसाद]
दनदनाते फिर रहे है इन दिनों.

हार नोटों का गले जो पड़ गया*,       *[मायावती]
खड़खड़ाती  फिर रही है इन दिनों.

seat की खातिर गवारा SIT भी है,      *[मोदी]
shitशिताते फिर रहे है इन दिनों.

Berth कोई खाली होने वाली है?       ?
दुम हिलाते फिर रहे है इन दिनों.

झोंपड़ी में पौष्टिक खूराक है*,             *[राहुल गांधी]
खटखटाते फिर रहे है इन दिनों.

पार्टी ने छोड़ा*, छोड़ी पार्टी,                 *[उमा भारती]
दिल मिलाते फिर रहे है इन दिनों.


-मंसूर अली हाश्मी 
http://mansooralihashmi.blogspot.in

Wednesday, March 24, 2010

क्रिकेट की गिरगिट

आदरणीय दिनेश रायजी,
सादर नमस्कार,
महेंद्र नेह जी कि शानदार रचना पर एक गुस्ताखाना हज़ल हो गयी है. दरअस्ल आई.पी.एल  मेच देखते-देखते यह पढ़ना-लिखना कार्यरूप ले रहा था.
आपको इस बात का इख्तियार देता हूँ कि इस सठियाई हुई रचना को सिरे से ख़ारिज करदे, edit  करदे या approve करदे. आपका जवाब मिलने पर यह
पब्लिश होगी या रद्द.
क्रिकेट की  गिरगिट
 :
चंचल किशोरियां है,आँखों में मस्तियाँ है,
हाथो में फूल नकली ,छतियाँ धड़कतियां है.

मैदान में खिलाड़ी,दर्शक से खेलती ये ,
क्रिकेट पीछे-पीछे , अगली ये पंक्तियाँ है.

क्रिकेट के गणित से लेना न कुछ है देना,
चोक्को  को लात देकर ,छक्के पकड़तियां है.

सौष्ठव शरीर होवे, मैदान इसलिए है,

मन रंजनो कि खातिर कितनी उछल्तिया है,
 
 उत्साह वर्धनी है, कुछ है कि कामिनी है,
दुस्साहसी भी इनमे, किसकी ये गलतियाँ है.

-mansoorali hashmi
http://aatm-manthan.com



[अरे! बहुत अच्छी बनी है। आप इसे प्रकाशित कीजिए।]
 -दिनेशराय द्विवेदी:{note: आपकी मंजूरी भी public  करदी है- आपको सठियाने में भी ज्यादा साल नहीं बचे!}

Tuesday, March 23, 2010

कुछ तो है नाम में!

कुछ तो है नाम में!
 
नाम से धाम* जुड़े उससे तो पहचान मिले,
नाम से काम जो जुड़ जाये तो सम्मान मिले,
 
श्री बन जाये मति उसको श्रीमान मिले.
'काम' हो जाये सफल उससे तो संतान मिले.
 
मिलते-मिलते ही मिला करती है शोहरत यारों,
नाम ऊंचा उठे; 'स्वर्गीय' जो उपनाम मिले.
 
नाम बदले  से बदल जाती है तकदीर भी क्या?
भूल* कर बैठे तो 'बाबा' से क्यों इनआम मिले!
 
नाम बदनाम भी होते हुए  देखे  हमने,
ख़ाक होते हुए इंसानों के अरमान मिले.
 
*धाम=स्थान
* भूल= CST को  VT कहने  की
-मंसूर अली हाश्मी
http://aatm-manthan.com

Sunday, March 21, 2010

पड्ताल/INVESTIGATION

पड्ताल/INVESTIGATION



नाम मे रखा क्या है!

कौन तू बता क्या है?


’मन’ है तू सही लेकिन,

’सुर’ मे ये छुपा क्या है.


कौन है तेरा मालिक?

सब का वो खुदा क्या है!


त्रिशूल, चान्द या क्रास,

हाथ पे गुदा क्या है?




फ़िर से तू विचार ले,

नाम से बुरा क्या है.




धर्म से भला है कुछ,

धर्म से बुरा क्या है?


-मन सुर अली हाशमी


http://aatm-manthan.com

Wednesday, March 17, 2010

गो-डाउन [going down]

गो-डाउन [going down]  
[अजित वडनेरकरजी की आज{१७-०३-१०} की पोस्ट  गोदाम, संसद या डिपो में समानता से प्रेरित होकर]

''माल'' हमने ''चुन'' के जब  पहुंचा दिया गोदाम में.
शुक्रिया का ख़त मिला; ''अच्छी मिली 'गौ' दान में.



पंच साला ड्यूटी देके लौटे, साहब हाथ में,
''दो'' के लगभग  के वज़न की बैग थी सामान में.

कोई भंडारी बना तो कोई कोठारी बना,
वैसे तो ताला मिला है, उनकी सब दूकान में.

कितनी विस्तारित हुई 'गोदी' है अब हुक्काम की
शहर पूरा 'गोद  में लेना' सुना एलान में.

है वही नक्कार खाना और तूती की सदा,
आ रही है देखिये क्या खुश नवां इलहान में.*

*अब संसद में भी औरतो की दिलकश आवाज़े अधिक ताकत से गूंजने और सुनाई देने की संभावनाएं बढ़ रही है.

-मंसूर अली हाश्मी
http://aatm-manthan.com




Friday, March 12, 2010

ज़ुबाँ/ Tongue



ज़ुबाँ / tongue / लेंगुएज 

दो धारी तलवार ज़ुबाँ  है,
करवाती तकरार ज़ुबाँ  है.

मिलवादे तो यार ज़ुबाँ है.
चढ़वादे तो दार* ज़ुबाँ है.

भली-भली जो चीज़े देखे,
रसना भी है,लार ज़ुबाँ है.

नंगे और भूखे* लोगों की,
कुरता भी शलवार ज़ुबाँ  है.**

मीठा-मीठा गप-गप करती,
कडवे पे थूँकार ज़ुबाँ है.

बक-बक, झक-झक करती रहती,
कौन कहे लाचार ज़ुबाँ है? 

जीभ जिव्हा पर क्यों न चढ़ती?
थोड़ी सी दुशवार ज़ुबाँ है.

अंग्रेजी पर टंग[tongue] बैठी है,
किसकी ये सरकार ज़ुबाँ है.

लप-लप, लप-लप क्यों करती है?
पाकी या फूँफ्कार ज़ुबाँ है.

शब्द अगर न साथ जो देवे,
आँख की  एक मिच्कार[winking] ज़ुबाँ है.

समग्रता का यहीं तकाज़ा,
हिंदी ही दरकार ज़ुबाँ है.

दिल की बातें बयाँ करे जो ,
एक यही गमख्वार ज़ुबाँ है.

बटलर भी हिटलर बन जाए!
कितनी अ- सरदार ज़ुबाँ है.

बहरो की सरकार अगर हो,
कितनी ये लाचार ज़ुबाँ है!

गूँगो की सरकार बने तो,
'कान' की पहरेदार ज़ुबाँ है.

बहरे-गूंगे जब मिल बैठे,
फिर तो बस दिलदार ज़ुबाँ है.

सच भी झूठ यही से निकले,
एक ही  common द्वार ज़ुबाँ है.

अपनी डफली, राग भी अपना,
आज बनी व्यापार ज़ुबाँ है.

ख़ुद को ही सुनती रहती है,
किसकी परस्तार ज़ुबाँ है?

नीब-जीभ* सब कलम* हो गए,
Net पे अब गुफ्तार ज़ुबाँ है.

कैंची की माफक चलती है,
अपनी तो ''घर-बार'' ज़ुबाँ है.

झूठ-सांच का फर्क मिटाती,
कैसी ये फनकार ज़ुबाँ है.

* दार= फांसी का तख्ता 
*भूखे-नंगे= साधन हीन
** ज़ुबान की मदद से ही अपनी कमिया छुपा लेते है.

* नीब-जीभ = ink-pen में लगने वाली 
* क़लम =कलम करना /काटना/ख़त्म हो जाना. 
-मंसूर अली हाश्मी 

Tuesday, February 23, 2010

कानून, प्रशासन और आम आदमी...

कानून, प्रशासन और आम आदमी...


अंधे
कुए में झाँका तो लंगड़ा वहां  दिखा,
पूछा, की कौन है तू यहाँ कर रहा है क्या?
बोला, निकाल दो तो बताऊँगा माजरा,
पहले बता कि गिर के भी तू क्यों नही मरा?

मैं बे शरम हूँ, मरने कि आदत नही मुझे,
अँधा था मैरा दोस्त यहाँ पर पटक गया,
मुझको निकाल देगा तो ईनाम पाएगा!
शासन में एक बहुत बड़ा अफसर हूँ मैं यहाँ.

तुमको ही डूब मरने का जज ने कहा था क्या?
कानून से बड़ा कोई अंधा हो तो बता?
अच्छा तो ले के आता हूँ ;चुल्लू में जल ज़रा,
एक ''आम आदमी'' हूँ, मुझे काम है बड़ा......!


mansoor ali hashmi

Friday, February 19, 2010

आखिर में

शब्दो से माला-माल कर रहे  अजित जी, की आज [१८-०२-१०] की ''शब्दों का सफ़र'' पर  प्रेरणा दायक पोस्ट से प्रभावित:-
 


माल बनता है मल ही आखिर में,
'आज' बनता है 'कल'* ही आखिर में.

धन पशु है; पशु भी धन ही है,
चल भी होता अचल ही आखिर मे.
 
महंगी होती गई अगर ऊर्जा,
जीतेगी सायकल ही  आखिर में.

नेता कितना बड़ा भी हो लेकिन,
जीत जाता है दल ही आखिर में.

गर्म होकर फरार हो ले भले,
वाष्प  होता है जल ही आखिर में.

जीतता सा लगे भले हमको,
हार जाता है छल ही आखिर में.

बाजपाई सा अब कहाँ ढूंदे,
सबसे अव्वल,अटल ही आखिर में.

दिल पे पत्थर रखे कोई कब तक,
नैना होते सजल ही आखिर में.

''मालखाना'' है कोतवाली में,
जो बचेगा वो ''खल'' है आखिर में.

सर्द रिश्तो में प्यार हो मौजूद,
बर्फ जाती पिघल ही आखिर में,


mansoorali hashmi

Tuesday, February 16, 2010

MHhashmi's Scrapbook Tubely - 100% Free Online Dating Service

MHhashmi's Scrapbook Tubely - 100% Free Online Dating Service

ठेकेदार !

बिन बुलाया कोई मेहमान न चलने दूँगा,
पाक-ओ-कंगारू है बयमान न चलने दूँगा.

मैं किसी और की दूकान न चलने दूँगा,
नाम में जिसके जुड़े 'खान' न चलने दूँगा.

याँ जो रहना है वडा-पाँव ही खाना होगा!
इडली-डोसा, पूरबी-पकवान; न चलने दूँगा.

घाटी लोगों की जमाअत का भी सरदार हूँ मैं,
पाटी वालो का हो अपमान! न चलने दूँगा.

सिंह सी हुंकार भरू; शेर ही आसन है मैरा,
कोई 'ललूआ' बने यजमान, न चलने दूँगा.

इकड़े-तिकड़े जो न सीखोगे; तो ऐसी-तैसी!
बोले 'मानुस' को जो इंसान* न चलने दूँगा.

मैरे अपने को मिले 'राज'; चला लूंगा मगर,
'रोमी' पाए कोई सम्मान! न चलने दूँगा.

valentine पे करो प्यार तो पूछो मुझसे,
love में 'किस' करने का अरमान न चलने दूँगा.

'प्यार के दिन'* पे पिटाई की परिपाटी है!,
'तितलियाँ फूल पे क़ुर्बान' न चलने दूँगा.

यह जो 'ठेका' है मैरे नाम का हिस्सा ही तो है,
मै किसी और का फरमान! न चलने दूँगा.

'सामना' कर नहीं पाओ तो दिखाना 'झंडे',
घर मैरा! ग़ैर हो सुलतान, न चलने दूँगा.

बिन-ब्याहों* को सियासत में न लाना लोगों,
'मन विकारों से परेशान'*, न चलने दूँगा.

रोक दो! शायरी; बकवास नहीं सुनता मैं,
'कोंडके'* सा न हो गुण-गान, न चलने दूँगा.

इंसान=गैर मराठी भाषी शब्द,
प्यार का दिन=valentine day,
बिन-ब्याहे=अटल,मोदी,माया,उमा,
राहुल....
मन विकारों से परेशान= frustrated.

-मंसूर अली हाशमी

http://mansooralihashmi.blogspot.com


Wednesday, February 10, 2010

ठेकेदार !

ठेकेदार !

बिन बुलाया कोई मेहमान न चलने दूँगा,
पाक-ओ-कंगारू है बयमान न चलने दूँगा.

मैं किसी और की दूकान न चलने दूँगा,
नाम में जिसके जुड़े खान न चलने दूँगा.

याँ जो रहना है वडा-पाँव ही खाना होगा!
इडली-डोसा, पूरबी-पकवान; न चलने दूँगा.

घाटी लोगों की जमाअत का भी सरदार हूँ मैं,
पाटी वालो का हो अपमान! न चलने दूँगा.

सिंह सी हुंकार भरू; शेर ही आसन है मैरा,
कोई 'ललूआ' बने यजमान, न चलने दूँगा.

इकड़े-तिकड़े जो न सीखोगे; तो ऐसी-तैसी!
बोले 'मानुस' को जो इंसान* न चलने दूँगा.

मैरे अपने को मिले 'राज'; चला लूंगा मगर,
'रोमी' पाए कोई सम्मान! न चलने दूँगा.

valentine पे करो प्यार तो पूछो मुझसे,
love में किस करने का अरमान न चलने दूँगा.

'प्यार के दिन'* पे पिटाई की परिपाटी है!,
'तितलियाँ फूल पे क़ुर्बान' न चलने दूँगा.

यह जो 'ठेका' है मैरे नाम का हिस्सा ही तो है,
मै किसी और का फरमान! न चलने दूँगा.

'सामना' कर नहीं पाओ तो दिखाना 'झंडे',
घर मैरा! ग़ैर हो सुलतान, न चलने दूँगा.

बिन-ब्याहों* को सियासत में न लाना लोगों,
 'मन विकारों से परेशान'*, न चलने दूँगा.

रोक दो! शायरी; बकवास नहीं सुनता मैं,
'कोंडके'* सा न हो गुण-गान, न चलने दूँगा.

इंसान=अमराठी भाषी शब्द, 
प्यार का दिन=valentine day,
 बिन-ब्याहे=अटल,मोदी,माया,उमा,राहुल....
मन विकारों से परेशान= frustrated.

-मंसूर अली हाशमी

Sunday, January 31, 2010

शीत युद्ध/cold war

खान idiots है, टाइगर genie ?, yes!
दोनों मुंबई से प्यार करते है.........!
जब भी मौक़ा मिला बिना चूके,
एक दूजे पे वार करते है.

-मंसूर अली हाश्मी  


Saturday, January 9, 2010

हॉट/HOT



[HOT...HOTTER....HOTTEST........
   Heartthrob Ranbir Kapoor  is India's Most Desirable Man
    in ZOOM Top 50 list.   -T.O.India 8jan.2010]


अबतो पुरुष भी HOT है, बाज़ार की शै है, 
जिंसों के कारोबार में बिकना भी तो तय है.
तअरीफ* ही बदल गयी लिंगो के भेद की,
जो दोनों काम आ सके कहलाते गै है.

*परिभाषा

Friday, January 8, 2010

नुस्ख़ा

नुस्ख़ा

बढ़े ठंडक ! तो इतना काम कर जा ,
'अमर' बन, इस्तीफा देकर गुज़र जा.

बदल ले भेष*, ग़ालिब कह गए है,
तू खुद अपना ही तो 'कल्याण' कर जा.

'नदी' की 'त'रह बहना खुश नसीबी,  [N D T]
तकाज़ा उम्र का लेकिन ठहर जा.

करे 'आशा'ए तेरी 'राम' पूरी,
ज़रा तू 'लालसाओं' से उभर जा.

*भेष= पार्टी
-मंसूर अली हाशमी

 

Friday, January 1, 2010

लेखा-जोखा

 लेखा-जोखा
फिर नए साल ने दस्तक दी है,
सर्द झोंको ने भी कसकर दी है.

अपनी तकदीर हमें लिखना है,
कोरे सफ्हात की पुस्तक दी है.

बा मुरादों ने दुआए दी तो,
ना मुरादों ने छक कर पी है.

'तेल-आंगन' से न निकला फिर भी,
 हाद्सातों ने तो  करवट ली है.

बर्फ की तरह पिघलती क़द्रें,*
संस्कारों से जो नफरत की है.

ना  मुरादों की खुदा ख़ैर करे,
बा मुरादों ने तो बरकत ली है.

'शिब्बू, 'सौ रन' भी बना ही लेंगे,
कसमें खाने की जो किस्मत ली है.

गर्म* को सर्द बनाने वाले,
'कोप'* भाजन हुए, मोहलत ली है.
telangana 

कद्रें= मूल्य, गर्म=ग्लोबल वार्मिंग, कोप= कोपनहेगन.

-मंसूर अली हाशमी