"छिनरा कोई, छिनाल, छलावा लगे कोई "
'छिनाल' पर बहस रुकने क नाम नही ले रही, ख़ूब 'छीछालेदार' हो रही है, तथाकथित बुद्धिजीवी साहित्यकारों की. 'छत्तीस' के आंकड़े वालो को भिड़ने का ख़ूब अच्छा बहाना मिल गया है. 'छाती' ठोंक कुछ 'छुट-भय्ये' भी मैदान में कूद पड़े है. ख़ूब 'छकिया' रहे है एक-दूजे को. इतने 'छक्के' तो T-20 में भी नहीं लगे थे. 'छलनी' जितने 'छिद्र' निकल आये है हमारी साहित्यिक संस्कृति में, जिसकी गरिमा पर गहन चिंतन करते हम अघाते नही. एक सभ्य ! व्यक्ति के 'छिनाल' शब्द प्रयुक्त कर लेने पर सभी को जैसे 'गाली-गलौच' की 'छूट' सी मिल गयी है.
'छद्मरूप' धारी टिप्पणी कर्ता भी ख़ूब मज़ा ले रहे है, इस भिड़ंत का. अजीब मन: स्थिती हो रही है इन दिनों, हिंदी साहित्य पढ़ने, मनन करने पर भी शर्म सी महसूस हो रही है. क्या कोई गंभीर साहित्यकार या साहित्य के शुभ-चिन्तक आगे आकर इस 'छिनाली' संस्कृति से हिंदी साहित्य को मुक्त करवाएगा ?
-मंसूर अली हाश्मी
2 comments:
:)
ऐसे तो न थे हम!
ऐसा लगता था की हम ऐसे नहीं है। असलियत तो अब सामने आई है
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