Tuesday, March 25, 2014

मज़हब को राजनीति में उलझा रहे है आज !

मज़हब को राजनीति में उलझा रहे है आज !


'हर', हर तरह के नुस्ख़े वो अज़मा रहे है आज ,
घर घर में उनका ज़िक्र हो वो चाह रहे है आज। 

हर-हर जो हो रही है तो इतरा रहे है आज 
'रथ' पर जो थे 'सवार' वो पछता रहे है आज !

इज़ज़त 'हरण' हुई है बुज़ुर्गो की और  वाँ ,
हर-हर, नमो-नमो भी जपे जा रहे है आज। 

भाषा वही है - बदली परिभाषा आजकल , 
'हर' शिव -या- मोदी ? कौन ये बतला रहे है आज 
 
'हर'* बांटने का काम न कर दे कही ए दोस्त,       *अंक गणित का 'हर'
नक़लो - असल का भेद वो* समझा रहे है आज     *जसवंतसिंघ जी 
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Wednesday, March 19, 2014

मतदान करके देश का 'राजा' तू ही बना !

मतदान करके देश का 'राजा' तू ही बना !

एक 'दाग़दार' ही को चुना अपना रहनुमा,
'बेहतर' क्या इनके पास नही कोई था बचा?

तफ़रीक़ * सोच ही में तो शामिल रही सदा,         *भेदभाव [इंसानों के बीच}
किस सिम्त देखे मुल्क़ का बढ़ता है कारवाँ !

माज़ी को भूल जाने का मौक़ा कहाँ दिया ,
फिर इक सितम ज़रीफ़ को अगुवा बना दिया !
अपने किये पे जो कि पशेमाँ * नही हुवा,                 *शर्मिन्दा 
जो 'राजधर्म' भी नही अपना निभा सका। 

कहते है उसने अपने 'गुरु' को दिया दग़ा ,
कैसे वो अपने देश का कर पायेगा भला ?
अपने वतन का ऐसा ही क्या ताजदार हो !
'कुत्ते का पिल्ला' आदमी को जिसने कह दिया ?











लगता है कि गुरु ने भी अब कस ली है कमर,
सिखलायेंगे सबक़ उसे, खोदी थी जिसने क़ब्र 
अब तो बदल लिया है अखाड़ा चुनाव का, 
'भोपाल' जा रहे है वो तज 'गांधी  का नगर' i  .  

इस बार ये 'चुनाव नही इम्तेहान है 
तहज़ीब 'गंगा-जमनी' ही भारत की शान है 
'जनमत' इसे खंडित न करे ये ही दुआ है ,
अच्छा जहान से मेरा हिदुस्तान  है। 
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  --mansoor ali hashmi 

Monday, March 10, 2014

दाढ़ी की दाद दीजिये तिनका छुपा लिया!

दाढ़ी की दाद दीजिये तिनका छुपा लिया!






तुमने ये कैसे राज़ से पर्दा उठा दिया 
मोहित जो ख़ुद पे है उसे दर्पण दिखा दिया !

सिखलाये जिस 'गुरु' ने थे आदाबे 'सियासत'
'मंज़िल' क़रीब आई तो "धत्ता बता दिया"
बातें तो दिलफरेब है, अंदाज़ खूब है
दुश्मन को दोस्त दोस्त को दुश्मन बना दिया। 

थकते नही है यार अब कहते नमो-नमो 
बिल्ली ने जिसके भाग्य में छींका गिरा दिया !         

अब रैफरी बने हुए चेनल्स आजकल 
लड़ने से पहले जीत का तमग़ा दिला दिया। 

'आचार संहीता' ने जो लाचार कर दिया  
फिर एक 'इंक़िलाब' का नारा लगा दिया। 

जम्हाई ली थी, तोड़ी थी, आलस अभी-अभी 
किस नामुराद ने उसे फिर से सुला दिया !

रक्खा था दिल के पास ही अक़लो शऊर को,
नादान दिल ने उसको भी मजनूं बना दिया। 

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-- mansoor ali hashmi 

Monday, March 3, 2014

कैसे अपने रहनुमा है !

कैसे ये अपने रहनुमा है !

'ख़ास' बनने को चला था,
'आम' फिर 'बौरा' गया है। 

'आदमी' की तरह ये भी,
मुस्कुराकर छल रहा है। 

फल की आशाएं जगा कर,
फूल क्यों मुरझा गया है !

छाछ को भी फूँकता है,
दूध से जो जल चूका है। 

जल चुकी थी ट्रैन, घर भी,
उठ रहा अबतक धुँआ है। 

'चाय' बेचीं थी कभी, अब 
'दल' से भी दिखता बड़ा है।  

'आज्ञाकारी'* माँ का लेकिन,        *राजकुमार 
'भाषा' किसकी की बोलता है? 

'फेंक' तो सब ही रहे है,
'झेल' वोटर ही रहा है। 

'जीत' के मुद्दे थे जो भी,
हो गए अब 'गुमशुदा'* है।      *मंदिर/महंगाई 
--mansoor ali hashmi 

Thursday, February 27, 2014

कुछ काम कर अक़ल का !







कुछ काम कर अक़ल का !

आ फायदा उठाले, मौसम है 'दल-बदल' का,
'फड़ ले'* तू आज 'थैली', क्या है भरोसा कल का।       *[पकड़ ले ]

'सायकल' हुई है पंक्चर, कम तैल 'लालटेन' में,
अब देखे ज़ोर  चलता, 'पंजे' का या 'कमल' का। 

जब मुफ्त मिल रहा था नाहया-निहलाया सबको,
टोंटी /टोपी बदल गयी अब, क्या है भरोसा नल का। 

बारह महीने अब तो बरसात हो रही है,
फिर किसलिए यहाँ पर होता अभाव जल का ?

'त्रिशंकु' अबकि 'संसद' बनती हुई सी लगती,
आ जाए न ज़माना , फिर से उथल-पुथल का। 

'बच्चे' तो 'पांच' अच्छे, खुशहाल हो के भूखे,
'गिनती' में बढ़ न जाए, कोई अगल-बग़ल का !

सामान कर लिया है, सौ-सौ बरस का हमने, 
ये जानते हुए भी , कुछ न भरोसा पल का। 
--mansoor ali hashmi 

Tuesday, February 25, 2014

गालो पे अपने ख़ुद ही तमांचा जड़े हुए !







गालो पे अपने ख़ुद ही तमांचा जड़े हुए ! 

स्तम्भ* वसूलयाबी के दफ्तर बने हुए !    *[प्रजातंत्र के चारों स्तम्भ]
महसूस कर रहे है हम, खुद को ठगे हुए। 

होना था शर्मसार जिन्हे अपनी भूल पर,
उनके ही दिख रहे है अब सीने तने* हुए।   *[कम नहीं, ५६ इंची ]

अब 'आम आदमी' की सनद भी तो छिन* गयी,  *[राजनैतिक पार्टी छीन गई] 
पहचान खो के मूक अब दर्शक बने हुए। 

ढलते है समाचार अब चैनल की मिलो में,
सच्चाई की ज़ुबान पर ताले लगे हुए। 

धुंधला रही है अम्नो-सुलह की इबारते,
धर्म-ओ-अक़ल की आँखों पे जाले पड़े हुए। 
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--mansoor ali hashmi 

Monday, February 24, 2014

ये 'नमी' 'शब्' की भी मासूम है आँसू की तरह




ये 'नमी' 'शब्' की भी मासूम है आँसू की तरह 

अधखिले फूल पे शबनम की ये ठहरी हुई बूँद,
देखे ! गिरती है कि सूरज की तपिश से उड़कर,
पहुँच आकाश में; करती है सफ़र फिर से शुरू 
इक नई भोर में कोहरे पे सवारी कर के 
इक नए फूल पे गिरने की तमन्ना लेकर
किसी आँगन में जहां .......... 



शब् की जागी हुई दोशीज़ा* - खड़ी , अलसाई            *[सुन्दर युवती ]
जिसके गालो पे भी बूंदे दिखी शबनम की तरह 
अधखिले फूल के सन्मुख थी वो फरयाद कुना। 

....  ओस की बूँद का उस फूल पे आकर गिरना 
और दोशीज़ा का फिर पलकों से अपनी चुनना ! 
महवे हैरत हुआ दो बूँदो को मिलते देखा !!
दोनों क़तरों में समाया हुआ दरया देखा !!!









Friday, February 14, 2014

'गर्दभ पुराण'








 'गर्दभ पुराण' :

[दुनिया भर में सर्वाधिक प्रचलित खिताब है गधा। इतना ज्यादा कि चौपाये गधे अल्पमत में हैं और दोपाये गधे बहुमत में।

बुरी मुद्रा, अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है।  - अजित वडनेरकर Facebook  पर]


#  वेलेंटाईन की शाम, और आयी 'गधो'* की याद !    [*प्यार के दुश्मन]
    प्रोपोज़ करने वाला था 'सुर' दे गया जवाब ,
    'मन' को मसोस रह गया सुन 'ढेंचू' की आहट 
    ए  दुश्मनाने प्यार हो ख़ाना तेरा ख़राब। 

-'मन' 'सुर'  हाश्मी 

एक दूसरे संदर्भ में:  :

#  चुन कर तो हम ने भेजे थे अच्छे भले से लोग,  
    'काम' उनके देख लगते है वो तो 'गधे' से लोग !
    मशहूर थी  'दुलत्ती' अब अज़माते हाथ है,
    क्यों हम ने भेज डाले * है  ? ये बे-पढ़े से लोग।        [*संसद में]   

--mansoor ali hashmi 

Monday, February 10, 2014

अरे ! अरे !

[शब्दों का सफर  अरे...अबे...क्यों बे......... प्रेरणामयी पोस्ट  अजित वडनेरकर द्वारा  ………… ]


अरे ! अरे !

#  क्या बात कह रहे हो मियाँ ? तुम अरे ! अरे !
    याँ लग गई है वाट कबहु से खड़े-खड़े। 
    सौ-सौ निबट लिए है पे नम्बर नहीं लगा,
    तुम हो कि कह रहे हो, "मियाँ हट परे-परे",

#  पहले गया निकट, वो पलट आया उलटे पाँव  
    लिक्खा हुआ ट्रैन पे देखा प. रे. , प. रे.  

#  हम 'आर्यजन' है बात न करते 'अरे', 'वरे'
    शब्दों के धन में अपने तो मोती, रतन जड़े। 

#  'शब्दों' का ये 'सफ़र' हुआ जारी है फिर से दोस्त,
    'चल बे', 'अजित' के साथ फिर हो ले, हरे-भरे।  

-Mansoor ali hashmi 

Saturday, January 11, 2014

तब और अब !





तब  और अब ! 

[दुनिया को तका करते थे जोशो खरोश से]
 




आँखे झुकी हुई है अब भोंहों के बोझ से,
पैशानी की सलवट से, फ़िक्रो से, सोच से।
 










लहरो पे सवारी भी किया करते थे अक्सर,
क्यों ख़ौफ़ज़दा अब हुए दरया की मौज से ?

अब फ़िक्र  calories की हमको सताती है,
पहले तो सारी चीज़ ही खाते थे शौक़ से। 
 
रंगीन ख्वाब देखना, था अपना मशगला,
अब स्वप्न भी आते है तो, आते है दोष से 

अब लूटना ही देश को; भक्ति है, धर्म है, 
लाये कहाँ से नेता 'भगत' से या 'बोस' से ?

तब तो ग़लत हुआ था मगर आज ज़रूरत,
नक़ली 'महात्माओं'  की ख़ातिर इक 'गोडसे' !  
 
--mansoor ali hashmi