गालो पे अपने ख़ुद ही तमांचा जड़े हुए !
स्तम्भ* वसूलयाबी के दफ्तर बने हुए ! *[प्रजातंत्र के चारों स्तम्भ]
महसूस कर रहे है हम, खुद को ठगे हुए।
होना था शर्मसार जिन्हे अपनी भूल पर,
उनके ही दिख रहे है अब सीने तने* हुए। *[कम नहीं, ५६ इंची ]
अब 'आम आदमी' की सनद भी तो छिन* गयी, *[राजनैतिक पार्टी छीन गई]
पहचान खो के मूक अब दर्शक बने हुए।
ढलते है समाचार अब चैनल की मिलो में,
सच्चाई की ज़ुबान पर ताले लगे हुए।
धुंधला रही है अम्नो-सुलह की इबारते,
धर्म-ओ-अक़ल की आँखों पे जाले पड़े हुए।
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--mansoor ali hashmi
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