कटी पतंग
[शब्दों का सफ़र पर अजित वडनेरकरजी कि आज कि पोस्ट मांझे की सुताई
से चकरी व् मांझा उधार ले कर .......]
अभी हाल ही में कटी थी पतंग,
पुराना था मंझा लगी जिस पे ज़ंग,
थी सत्ता कि चाहत बड़ी थी उमंग,
नतीजो ने उनका उड़ाया है रंग.
है अपने सभी तो नज़र क्यों हो तंग,
ज़ुबानो-इलाकों में क्यों छेड़े जंग,
जो सदियों में जाकर मिली है हमें,
उस आज़ादी में अपनी डाले क्यों भंग.
खिलाड़ी से फिर एक टकरा गए,
सुनी बात उसकी तो चकरा गए,
डराने भी आये वो ''ठकरा'' गए,
बयानों में अपने ही जकड़ा गए.
मंसूर अली हाश्मी