ब्लागियात-६
एक ब्लोगर की *महफ़िल में बिला इजाज़त प्रवेश कर गया [क्षमा-याचना]
ब्लॉग पर टिपयाते हुए ....
''किसीने उजड़ी हुई महफिलों में ढूंढाहै,
है बात 'गुप्त' मगर ,यह भी एक 'सीमा' है,
कसक है ,दर्द है, चाहट जो मिल नही पायी,
नया है कहने का अंदाज़ एक सलीका है।''
अपनी रचना 'साथी' परोस आया:-
''तू ही तशना-लब है साथी,
मुझे क्या पिलाएगी तू ?
तेरा जाम तो है टूटा,मुझे क्या रिझाएगी तू ?
तू बुझी हुई है ख़ुद भी,मुझे क्या जलाएगी तू?
तेरा साज़ सूना-सूना,तेरा नग़्मा ग़म-रसीदा,
तेरी ज़ुल्फ़ भी परीशाँ,तेरी बज्म वीराँ-वीराँ…यूँ लगे कि जैसे सहरा,
कोई एक पल न ठहरा,
सभी रिन्द जा चुके है, मै ही रह गया अकेला!
तू करीब आ के मैरे,तेरी तशनगी मिटा दूँ,
तू मुझे पिला दे सब ग़म, मै तुझे हयात लादूँ
तुझे आग दूँ जिगर कीतेरे हुस्न को जिला दूँ
तेरी बज़्म फ़िर सजा
तेरी ज़िन्दगी है मुझसे,
तू ही मेरी ज़िन्दगी है,
मै हूँ दीप तू है बाती, मिले हम तो रौशनी है।''
-मन्सूर अली हाश्मी
*passion से
2 comments:
wah kya baat hai mansoor ji
aap ko pahli baar padha bahut achha laga
हाशमी साहब मौलिक तो है पर मजा नहीं आया।
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