ब्लागियात -१
आत्म-मंथन टाइटल में मैंने ब्लॉग को हलके-फुल्के परिभाषित किया था. थोड़ा विचार किया तो कई पहलू सामने आए. क्यों न हम इस विचार-धारा को ब्लागियात कह कर पुकारे ? यह भी एक द्रष्टिकोण बन चुका है अपनी बात ' जस की तस्' कह देने का. एक नयी शब्दावली भी जन्म ले रही है, blogism की ...ब्लागियात की!
ब्लॉग में प्रयुक्त अक्षर 'ब', 'ल' और 'ग' से छेड़-छाड़ की है....जस का तस् लिखे देता हूँ :-
बे-लाग हो ब्लॉग तो लोगों को लगेगा,
उतरेगा यूं गले की निगलते ही बनेगा,
बातें गुलाब की हो या गल-बहियों की रातें,
ग़ालिब भी हमें एक ब्लॉगर ही लगेगा।
कहाँ-कहाँ पे छुपा है ब्लॉग ढूँदेंगे,
जहाँ-जहाँ भी छपा है ब्लॉग ढूँदेंगे,
महक की सिम्त बढेंगे गुलाब ढूँदेंगे,
छुपे हुए कई रुस्तम जनाब ढूँदेंगे !
किसी ने ढूँद लिया इसको अपने ही दिल में,
किसी को तिल में मिला है किसी को महफ़िल में,
किसी ने पहाड़ भी खोदा तो कुछ नही पाया ,
किसी ने पा लिया बस एक छोटे से बिल में।
किसी को जड़ में मिला है किसी को हलचल में,
किसी ने नैन में पाया किसी ने डिम्पल में,
किसी को जल में मिला है किसी को जंगल में ,
किसी को युग भी लगा कोई पा गया पल में।
-मंसूर अली हाश्मी
1 comment:
वाह क्या बात है, बहुत खूब मजा आ गया। आप तो मजेदार लिखते है।
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