एक 'रपट' फिर लीक हो गयी,
हार किसी की जीत हो गयी.
देर से आई, ख़ैर न लायी,
कैसे भी कम्प्लीट हो गयी.
तोड़-फोड़ तो एक ही दिन की,
'सत्रह साली' ईंट* हो गयी.
संसद पर जो भी गुज़री हो,
'अमर-वालिया' meet हो गयी.
हो न सका 'कल्याण' जो खुद का,
मंदिर से फिर प्रीत हो गयी.
बड़े राम से , निकले नेता,
बिगड़ी बाज़ी ठीक हो गयी.
*ईंट= निर्माण के लिए बनायी गयी.
-मंसूर अली हाशमी
4 comments:
बहुत सुन्दर ! साथ में यह भी जोडूंगा कि जनता बेवकूफ है ! आठ करोड़ में आठ सुन्दर मस्जिदे बन जाती !
मोहतरम मंसूर अली हाशमी साहब
आदाब
दिल नशीँ है आत्म मंथन आपका
है सबक़ आमोज़ चिंतन आपका
अहमद अली बर्क़ी आज़मी
गहरा व्यंग्य किया है आपने। बधाई।
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भीड़ है कयामत की, फिरभी हम अकेले हैं।
इस चर्चित पेन्टिंग को तो पहचानते ही होंगे?
बहुत सुंदर जी!
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