श्री दिनेशराय द्विवेदी जी के लिव-इन रिलेशनशिप ने अच्छी हलचल पैदा की है।विषय सामयिक है,जागरूक लोगो का धयानाक्र्षित करने में सफ़ल रहा है। ऐसे ही एक विषय को विख्यात सहित्य्कार-विचारक श्री जैनेन्द्र कुमार जी जैन ने उठाया था सन 1975-76 में [धर्मयुग पत्रिका के माधयम से]। 'पत्नी बनाम प्रेयसी' के शीर्षक 'से।
उद्देशय था:- "रचनाधर्मिता से गहरे जुडे हुए प्रेरणा वाले पहलू को नये साहित्यिक संदर्भो में टटोला जा सके और उसमें से रचना प्रकिया का कोई अनखुला बिंब उजागर हो सके अथवा सामाजिक संबन्धो में किसी नयी क्रांति का संकेत मिल सके।"
प्रतिक्रिया स्वरूप पक्ष-विपक्ष में अनेक मन-भावन और आलोचनात्मक टिप्पणियों का अंबार लग गया। अत्यंत रोचक रही थी यह बहस्। इस संदर्भ में मुझे जो कहना है वह में अगले ब्लाँग के लिये बचा रखता हूँ, यहाँ तो मै कुछ प्रसिद्ध साहित्य्कारो,महानुभावो,सामाजिक चिंतको के विचारो का सारांश दे रहा हूं जिन्होने इस विषय में गहन[?] दिलचस्पी ले कर कई अनछुये पहलुओ को उजागर किया था। आज भी यह बहस प्रासांगिक है तो मै अपने ब्लाँग पर आने वाले ब्लाँगर्स [विशेषकर महिला ब्लाँगर्स] को आमंत्रण देता हूँ कि अब 33 साल बाद दोबारा [आज के बदले हुए परिप्रेक्ष्य में] अपने-अपने मत व्यक्त कर,श्रद्धांजली स्वरुप स्व… जैनेन्द्र कुमार जी के विषय [विवाद] को पुनर्जीवित करे,धर्मयुग पत्रिका को धन्यवाद देते हुए:-
1 जैनेन्द्र कुमार जैन:- लेखको को अपनी प्रेरणाओ को तरोताज़ा रखने के लिये पत्नी के साथ एक प्रेयसी भी रखना चाहिये। आदमी सिर्फ़ आदमी नही है,द्वियत्व भी है और पशुत्व भी है। प्रेम जो है वह आदमी की दिव्य्ता से जुडा हुआ संबन्ध होता है और प्रेयसी उसी दिव्य्ता का प्रतिरूप होती है। पत्नी सामाजिक्ता है, प्रेयसी दिव्य्ता है,इश्वरत्व के दर्शन प्रेयसी मे ही प्राप्त होते है।
मैरे तई दिव्य से विछिन्न कोई हो नही सकता। हाँ, यह ख़तरा है कि उस दिव्यत्व में कब आदमी का पशुत्व जुड़ जाए और दिव्यत्व चूर-चूर हो जाये। भोग का संबन्ध आते ही दिव्यता ख़त्म हो जाएगी।
2 भवानी प्रसाद मिश्र:- जैनेन्द्र्जी का कथन इस अर्थ में बिल्कुल ठीक है कि हर आदमी को जी-जान से जीने के लिये किसी एक एसी धुन की ज़रूरत है, जो उसे पत्नी और परिवार से भी ज़्यादा आकर्षक लगती हो,जिसके पास एसी धुन है, उसे भौतिक अर्थो में प्रेयसी की ज़रूरत नहीपडती।
आदर्श दुर्लभ होते है। प्रेयसी पहले दुर्लभ होती थी, अब दुर्लभ नही है। दुर्लभ पाने की इच्छा पुरुषार्थ जगाती है। क्रतित्व की दिशा में प्रेरित करती है। फ़िर प्रेम किया नही जाता , हो जाता है, अगर किसी को एसा हो जाए तो हम सब उस विवशता को समझे और बने तो सहारा दे। वह ख़ुद तो अपने को क्या समझेगा। एसा प्रत्याशित प्रेम रचता कुछ नही है, ख़ुद टूटता है, दूसरे को टोड़ता है।
3 राजेन्द्र यादव:- रचना और कला के क्षेत्र मे सबसे जीवंत,आक्रषक और प्रयोगशील व्यक्तित्व वे है जो परंपरावादी नही है,यानि मर्यादा भंजक है, मर्यादा परंपरा की रक्षक है और हर प्रतिभा ने परंपरा को नकारा है- साहित्य मे कला मे या जीवन मे।
विवाह मर्यादा है,जीवन की एक विशिष्ट और स्वीक्रत पद्धति है,लेकिन किसी भी जीवन-पद्धति मे रहना और उसे स्वीकार करना दो अलग बाते है। हम मे से कितने मर्यादाए तोड़ कर दूसरी और चले जएंगे,यह तो समय ही बताएगा, हाँ, उन्हे लांघने की कोशिश या कम से कम लांघने की बात सोचते तो हम सभी है।
यदि नारी को पत्नी बन कर जीवित रहना है और पुरुष को सिर्फ़ पति ही नही बना छोड़ना है, तो सहने और बर्दाश्त करने की शहीदाना मुद्रा से नही,समझदारी और अन्डर्स्टेन्डिंग के धरातल पर कुछ परिवर्तनो और 'छूटो' को स्वीकार करना होगा। कितनी बेतुकी स्थिति है हि पुरुष की जिन विशिष्टाओ से आक्रषित हो कर नारी उसके निकट आती है, पत्नी बनकर पहला शिकार इन्हे ही बनाती है,कभी जान-बूझकर कभी उस और से उदासीन बनकर्। नतीजे मे वह अलग और उंचा व्यक्ति सिर्फ़ एक अच्छा या बुरा पति हो कर रह जाता है। युद्ध का अंत प्राय: एक की मौत मे होता है… पति या कलाकार्… जो बच रह्ता है वह दूसरे की लाश ही ढोता है।
बौद्धिक और मानसिक स्तर पर संसार का कोई एक व्यक्ति दूसरे की ज़रूरत हमेशा पूरी नही कर सकता। हम अपनी ये ज़रूरते टु्कड़ो-टुकड़ो मे ही तलाश करते रहते है- कुछ पुस्तको से, कुछ दोस्तो से और कुछ अपने भीतर डूबकर । अपने भीतर को भी कही बाहर से ही सींचना , सम्रद्ध करना पड़ता है। उंट की तरह शाश्वत टंकी ले कर कोई कलाकार नही चलता। अन्यथा वह शिघ्र ही चुक जाती है
4 भारत भूषण अग्रवाल:- घर मे पत्नी रोती रहे और पुरुष पर-स्त्री के साथ आनंद लूटता रहे - यह सिद्धांत तो विशुद्ध सामंती है। हमारे ज़मीदार और सेठ प्रबंधित विवाह से असंतुष्ट हो कर यही करते आये है। किसी ज़माने मे तो वेश्यागमन या रखैल रखना प्रतिष्ठा की बात थी। क्या जैनेन्द्र्जी हमारे समाज को फ़िर से उधर ले जाना चाह्ते है? वस्तुत: जैनेन्द्र्जी के चिन्तन मे नारी का पद नर से कुछ घटिया है,जिसे मै सामन्तवाद का अवशेष मानता हूँ। आज की नारी पुरुष को कोई एसा विशेषाधिकार नही दे सकती जैसा जैनेन्द्र्जी ने परिकल्पित किया है, और जहाँ तक पुरुष का संबंध है उसने तो एसी स्थिति न कभी सहन की है और न शायद कभी भविष्य मे सहन कर पएगा।
5 राजेन्द्र अवस्थी:- जैनेन्द्र्जी का वक्तव्य अत्यंत भ्रामक है। आरंभ से अंत तक पहुंचते-पहुंचते वह 'इहलोक' का न हो कर 'परलोक' का हो गया है। यानि उसमे ईश्वरीय तत्व दिव्य्ता जैसी चीज़े देखी गयी है! भोग मे हिंसा, बिना सह्चर्य का प्रेम और 'प्रेमिका' रखने का समर्थन करते हुए भी अपनी 'कुलीनता' की चिंता, मैरी द्रष्टि मे किसी भी नारी के साथ एक ख़ासा मज़ाक है। वास्तव मे विवाह के कुछ वर्षो तक पत्नी भी प्रेमिका ही होती है।उसके बाद धीरे-धीरे दरार पैदा होती है, एकरसता से ऊब आने लगती है और सामाजिक रूप से सुरक्षित 'नारी''पुरुष की उपेक्षा करने लगती है। इन सबका फ़ल यह होता है कि पत्नी, प्रेमिका से अलग हो जाती है।
6 डाँ लक्ष्मी नारायण लाल:- यह निहायत बचकाना, भावुक मन क अत्यंत रूमानी ख़्याल है कि रचनाकार के लिये साहित्यधर्मा के लिये प्रेयसी आवश्यक है। उस प्रेयसी को सुन्दरी से ले कर दिव्य तक, चाहे जितना खींचे,रचे,सजाये पर बात एक औरत या ज़्यादा से ज़्यादा इश्क़ तक ही सीमित रह जाती है। रचनाकार जब रचना नही कर पाता तब मूड की बाते करने लगता है। इसी मूड को ही तब वह प्रेयसी का दिव्य स्वरूप बनाने लगता है और यही से तब वह औरत को दर्जे से गिराकर या तो पैर की जूती वेश्या बनाकर य तो उसे देवी बना कर उसे लूटना,खसोटना,शोषण करना शुरु करता है। मै समझता हूँ कि रचनाकार के लिये उसका तसव्वुर ही उसकी प्रेमिका है। स्त्री हमारे यहाँ प्रेमिका या प्रेयसी भी कहाँ है? वह तो केवल एक भूख
7 गंगा प्रसाद विमल:- जैनेन्द्रजी का वक्तव्य काफ़ी दिल्चस्प है,किन्तु उनके द्वारा प्रस्तावित समस्या विचारणीय नही है, कम से कम आज के लिये वह विचारणीय नही है।क्योंकि आज रचना के लिये प्रेरणा का आधार तथाकथित प्रेम अनिवार्य नही । एक बेमानी अर्थहीन तनाव मनुष्य को सहज बनाने के बजाय अपराधी बना डालता है। मनुष्य की मुक्ति का रास्ता,आर्थिक मुक्ति के रास्ते से जुड़ा है। स्त्री को प्रेरणा मानने वली द्रष्टि पहले उसे भोग की वस्तु मान कर चलती है। प्रेरणा स्त्री को भुलावे मे रख्नने,छलने का औज़ार है। प्रेम और प्रेरणा अगर कोई चीज़ होती है तो वह एकदम निजी प्रायवेट चीज़ होती है।
८- इंदु जैन:- प्रेयसी और पत्नी, अपने संदर्भ मे सीधी बात करूँ तो प्रेमी और पति - इन दोनो शब्दो को बहुत रूढ़, सीमित और पूर्वनिर्धारित अर्थो मे जकड़ कर जैनेन्द्रजी ने बात कही है। प्रेम उन्गलियो की चुनचुनाहट तक दिव्य्ता क आभास कराये और भोग तक पहुंच कर सहचर्य की ऊब या अतिपरिचय या दुष्करता मे परिणत हो जाये-मैनही मानती। द्वंद्व रचना के लिये अनिवार्य है। पति और प्रेमी के बीच द्वंद्व मे रह कर उस से रचना दुहना सबसे सहज और आसान हुआ करता है। लेकिन यह अनिवार्य नही है-यह ज़रूरी बिल्कुल नही। प्रेमी होते हुए भी प्रेम पति से ही किया जा सकता है, लेकिन प्रेमी के होने से वैवाहिक संबन्धो मे पूर्णता आयेगी ही, जैसा जैनेन्द्र्जी कह्ते है- तो वह ज़रूरी नही। प्रेमिका या प्रेमी का होना मनुष्य की आवश्यकता 'साइकी''से संबन्धित है, इसकी अतर्प्ति मे भी ही जीवाणु है, जितने इसकी तर्पति मे।
9 सौमित्र मोहन:- जैनेन्द्रजी के वक्तव्य मे एक पुर्वस्थापना यह भी है कि प्रेयसी होने से द्वंद्व तो ज़रूर होगा, लेकिन उससे "विवाह संस्था विकास पाएगी", यानि जैनेन्द्रजी विवाह संस्था को किसी न किसी रूप मे अनिवार्य मानते है, मैरी बुनियादी असहमति इसी पूर्वस्थापना से है। इसमे शक नही की रोमांस की शुरूआत मे आप उंग्ली छू कर कांप जाते है, पर एसा केवल पहली बार होत है। इसकी पुनराव्रत्ति नही होती। एक या दूसरे के साथ लगातार रहते चले जाना कुंठित करता है। बेहतर यह है कि लेखक इन दोनो से भागे। किसी भी औरत को ढोना कष्टकर होता है; "मै हर समय एक यंत्रणा से गुज़रता हूँ चुने जाने की"।
10 मनोहर श्याम जोशी:-पूछा जा सकता है कि पत्नी ही को प्रेयसी क्यों न मान लिया जाए। लेकिन पत्नीत्व मे अप्रस्तुति, अनुपस्थिति और अप्राप्य का वह बोध कहाँ से आयेगा जो प्रेम का आधार है,जो मिल गयी जो मिलती ही जायेगी, उसे दिव्य प्रेमिका कैसे कहे!
11 रामधारी सिंह दिनकर:- मुझे न अपनी पत्नी ने प्रेरित किया और न अपनी संगति मे आने वाली किसी नारी ने। लेखक जब वन का वर्णन कर रहा होता है , तो वह किसी एक वन का वर्णन कभी नही होता उसमे उन तमाम वनो का चित्रण होता है,जिन्हे लेखक ने देखा है, जिन्हे लेखक ने पढ़ा है।
समापण वक्तव्य:-
जैनेन्द्रजी:- प्रेम शब्द से यौवनोचित यौन चित्र जिनके मन मे उदय पाता हो, उनसे मुझे
कुछ नही कहना है। मैरे निकट प्रेम उस प्रस्पराक्रषण तत्व के लिये सगुण संझा है,जिस पर सचराचर समस्त सर्ष्टि टिकी है। निगुण भाषा मे उसी को ईश तत्व कह लीजिये। व्यवहार और वर्तमान मे ही मनुष्य समाप्त नही है। उसे आगे के लिये जीना होता है। और इस काम मे सपना मदद करता है- अर्थात, यथार्थ के धरातल को ऊपर उठाना हो, तो उस अभिष्ट के लिये आदर्श की आवश्यकता पड़ती है।
उन्नति की दिशा यही है कि विवाह से दंपति पर एक दूसरे को अधिकार उतना नही जितना क्रतव्य मिले। अर्थात दोनो एक दूसरे के पहरेदार नही,विश्वस्त साथी हो। इस भूमिका पर आयेंगे तो देखेंगे कि पति-पत्नी और प्रेमी-प्रेमिका मे एक उदार सहानुभुतिपूर्ण अस्तित्व बन आता है। ये चारो रूप सभ्यता के आरंभ से जन्मे है तो अंत तक चलने वाले है। फ़िर उसके बीच अनबन को उचित और अनिवार्य बनाए रखना कौनसी बुद्धिमानी है?बीच मे उदाराश्यता का ही संबध है जो समाज को सपन्न और समुन्नत बनायेगा। किसी श्रेयार्थ या परमार्थ के फ़ेर मे काम और प्रेम के इस मूल प्रश्न से मुंह मोड़ना और हठात दूस्ररी नैतिक अथवा लौकिक व्यस्त्तताओ को ही सार्थक माने रखना आंतरिक पलायन जैसा ही होगा। समाज का शायद एक बड़ा संभ्रात वर्ग है,जो सतह पर इन प्रश्नो को लाने से डरता है। उस डर के नीचेही रोग बढ़ता और सड़ता है। इसलिये मुझे तनिक भी पछतावा नही कि आपके पत्र [धर्मयुग] ने उसे रंगीन बनाकर उछाला है। उसकी सर्थकता और उपयोगिता किन्तु रंगीन लोगो तक ही सीमित नही है, हर विचारशील के लिये वह संगत विचारणीय और विवेचणीय है।
परिसमापन
इलाचन्द्र जोशी:- जैनेन्द्र्जी की यह बात इस द्रष्टि से कुछ नइ नही है कि क्या पूर्वी और क्या पाश्चात्य देशो के प्राचीन,मधययुगीन और अर्वाचीन रोमांटिक साहित्य के रचनाकारो ने अपनी क्रतियो मे पत्नी की उपहास्पद या उपेक्षित स्थिति दिखाकर प्रेयसियो को जिस रूप मे सिर-माथे चढ़ाया है,उससे पत्नी का स्थान रोमांटिक संसार मे स्वत: स्पष्ट हो जाता है। धिक्कार है उस प्रेरणा को जो पत्नी को ठुकरा कर उसके संपूर्ण अस्तित्व ही को झुटला कर, उसे पग-पग पर अपमानित,तिरस्क्रत कर और निहायत ज़लील करके लेखक एक ज़ालिम प्रेयसी द्वारा ही प्राप्त कर सकता हो। सभ्यता के प्रारम्भिक काल से लेकर आज तक पत्नी का समाज मे जो अपूर्व गौरवपूर्ण और अखंड गरिमामय स्थान रहा है- क्या पूर्वी और क्या पश्चिमी देशो मे- वह आज की विभिन्न प्रकार की झूठी और सच्ची सामाजिक,साहित्यिक, राजनीतिक वैझानिक क्रंतियो [या भ्रांतियो] के युग मे भी समाज मे अक्षुणण है,[आज के विश्व व्यापी 'लिब मूवमेंट' के बावजूद]। कोई भी आवारा तूफ़ानी शक्ति उसे डिगा नही सकी। केवल सभ्य और सुसंस्क्रत देशो की ही बात नही कह रहा हूँ,असभ्य और अर्द्ध विकसित देशो और जातियो मे भी आदिम प्रक्रति ने पत्नी की परिवार की अपार करुणामयी सेविका की वही गरिमा किसी सार्थक योजना द्वारा स्वंय सिद्ध रूप से सुरक्षित रखी है। आप कैसे ही दुस्साहसी और प्रगतिशील विचारक क्यो न हो, मूल प्रकर्ति के अनादि और अंतहीन बंधन को काट कर अपना अस्तित्व किसी भी हालत मे कायम नही रख सकते। मैरा एक विनम्र सुझाव है, आज के विश्व व्यापी 'लिब मूवमेंट' के युग मे केवल भारतीय पत्नियाँ ही नही, संसार भर के तथाकथित उन्नत देशो की पत्नियाँ बर्बरयुगीन दासता से भी विकट विवशता की जिस स्थिति मे अपना जीवन बिता रही है और निरंतर अपने तप और त्याग द्वारा परिवार और समाज को एकदम अर्थहीन विश्रंखला की स्थिति से उबारते चले जाने के 'थैंकलैस' काम मे अपने को बिना किसी शिकायत के खपाती चली जा रही है,वह अपनी निपट मूर्खता,अशिक्षा या दूसरी किसी विवशता के कारण नही अपनी प्रक्रतिगत विशेषता के कारण कर रही है, तब उनके बीच मे प्रेयसियो को स्थापित करके उन्हे उद्वेलित क्यो किया जाये, इसमे क्या तुक है? यदि लेखको का मस्तिष्क आज के युग मे इस कदर जड़ हो चुका है कि पत्नी की सेवा से उसमे चेतना ही नही आ पाती, तो भाई साहब आप लोग सब इतने बड़े लेखक है, क्यो इन बेचारी पत्नियो को प्रेयसियां बन जाने की प्रेरणा या टरेनिंग नही दे पाते? यदि आप मे इतनी भी शक्ति नही है तब आप के लेखन को वह गौरव क्यो दिया जाये कि आपकी लेखकीय क्रपा के प्रति अनुग्रहित हो कर जनता आपके लिये प्रेयसियां जुटाने का कष्ट उठाये? मैरा तो एक सरल नुस्खा है, आप लोग चाहे तो इसे अपना कर देख ले। मैरा कहना है कि आप पत्नी ही एसी स्त्री को बनाये,जिसे आप विवाह के पहले ही अपनी प्रेयसी बनाकर परख चुके है। समापण्………!…………?
11 comments:
प्रिया मनोहर भइया
बहुत अच्छा लिखा हैं आपने !
प्रिया मनोहर भइया
बहुत अच्छा लिखा हैं आपने !
एक ऐसा मुद्दा उठाया है जिसमें एक ही दवा सबके काम आएगी कहा नहीं जा सकता । ये सब इतनी व्यक्तिगत बातें हैं कि पति पत्नी या साथ रहने वाले दो लोगों के अलावा कोई कुछ नहीं कह सकता । इस विषय पर कुछ भी कहने से पहले एक बात ध्यान में रहनी चाहिए कि जो बात स्वयं पर लागू करना चाहते हैं वह अपने साथी पर भी लागू होने पर कोई कष्ट नहीं होना चाहिए ।
वैसे यह सोच कि प्रेमी या प्रेयसी ही पति पत्नी को एक दूसरे से दूर करते हैं बहुत सही भी नहीं है । कोई भी चीज़ चाहे वह अपना काम, नौकरी, लेखन, टी वी या कुछ भी और यदि आपको अपने साथी से अधिक महत्वपूर्ण लगने लगे तो वह प्रेमी या प्रेमिका को भी मात दे सकता है । वैसे जबर्दस्ती कोई किसी को बाँधे नहीं रख सकता है । सारे बंधन मन के होते हैं ।
घुघूती बासूती
आप पुरानी कौडी़ संभाल कर लाए हैं, उस जमाने में पड़ी हुई है।
विवाहेतर संबंध अलग बात है और लिव-इन अलग। विवाहेतर संबंध में आप को रहना तो पति या पत्नी के साथ ही पड़ता है।
लिव-इन वह संबंध है जो बिना विवाह के या पत्नी से विवाद हो जाने पर बिना तलाक लिए या तलाक ले कर बनाया जाता है।
यहाँ इसी दूसरे संबंध की बात चल रही थी। विवाहेतर संबंधों को रोकने के लिए कौन सी सरकार सामने आने वाली है।
कुल मिला कर विवाह को केवल प्रेम और साहचर्य के आधार पर ही शुद्ध बनाए रखा जा सकता है। वरना या तो वह कैद बन जाता है। या उस का अतिचार होने लगता है।
जहाँ तक प्रेम का संबंध है जरूरी नहीं कि उस में यौनाचार भी हो।
एक ही दवा सबके काम आएगी कहा नहीं जा सकता । ये सब इतनी व्यक्तिगत बातें हैं कि पति पत्नी या साथ रहने वाले दो लोगों के अलावा कोई कुछ नहीं कह सकता ।
अच्छा मुद्दा उठाया आपने। इस मुद्दे पर बहस की जरूरत है।
Vicharon ka acha sangrah kiya hai aapne. Acha lekh.
चलवाईये बहस..बहुत शुभकामना. जरुरी मुद्दा है.
बहुत ही जबरदस्त लेख है. अत्यन्त धैर्यपूर्वक पढ़ा. पर सच कहूं तो अभी इस लेख की गहराई समझ पाने की क्षमता नहीं है. थोड़ा सा और बड़ा हो जाऊं.
जैनेन्द्र जी के कथन की 'प्रेयसी दिव्यत्व' और 'पत्नी सामाजिकता' है तो हमारे समाज के लैंगिक अनुपात के मुताबिक़ सच ये हुआ कि उनका 'दिव्यत्व' किसी दूसरे की 'सामाजिकता' ज़रूर होगा और इसी तर्ज़ पर श्रीमान दूसरे का 'दिव्यत्व' इनकी 'सामाजिकता' पर निर्भर बना रहेगा ! ....और फिर दिव्यत्व के पशुत्व में बदल जाने के खतरे तो हैं ही !
मेरी समझ में नहीं आता कि एकाधिक स्त्रियों से प्रेम / प्रेरणा / आकर्षण को हम सीधे सपाट शब्दों में क़ुबूल क्यों नहीं कर पाते ? साफ़ साफ़ क्यों नहीं कहते कि पुरुष का स्वभाव बहुगामिता का है ?
ईश्वरत्व / दिव्यत्व /प्रेरणा / के ट्रेलर कुछ यूं हुए कि साफ़गोई हमसे होती ही नहीं ! गोल मोल बातों के पीछे की सृजनधर्मिता , प्रेम और यौनाचार पर इससे ज्यादा फिलहाल क्या कहूं ?
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