अच्छा तो हम
चलते है !
बयानों को वो अपने ख़ुद उगलते है, निगलते है,
सभी को मौक़ा मिल जाता यहाँ कुछ कर दिखाने का,
हमारे 'अर्थ' की अब है व्यवस्था ग़ैर हाथो में ,
उसे निबटा के रस्ते में , ये घर आकर
निबटते है.
उलटते है, पलटते है, अदलते है, बदलते है,
जहां सत्ता का
सुख मिलता, उसी जानिब फिसलते है.
बयानों को वो अपने ख़ुद उगलते है, निगलते है,
ये बेपेंदी के लौटे है, यहाँ से
वां लुढ़कते है.
सभी को मौक़ा मिल जाता यहाँ कुछ कर दिखाने का,
जो अनशन कर
नहीं पाए वो अब उपवास करते है.
उछाल आये जो डॉलर में तो रुपया पानी
भरता है,
बिगड़ जाता बजट तब, तेल के जब
दाम चढ़ते है.
हमारे 'अर्थ' की अब है व्यवस्था ग़ैर हाथो में ,
कोई खींचे है धागा , और हम बस
हाथ मलते है.
Note: {Pictures have been used for educational and non profit activies.
If any copyright is violated, kindly inform and we will promptly remove the picture.}
mansoor ali hashmi
9 comments:
नंगों-भूखों की नुमाइन्दगी वे करते हैं जो करोडों में खेलते हैं।
हमारे 'अर्थ' की अब है व्यवस्था ग़ैर हाथो में ,
कोई खींचे है धागा , और हम बस हाथ मलते है.
बेहतरीन!
हमारे 'अर्थ' की अब है व्यवस्था ग़ैर हाथो में ,
कोई खींचे है धागा , और हम बस हाथ मलते है.
बहुत ही बढ़िया....
समाज पर कटाक्ष अच्छा लगा
क्यों ना आज स्कूल के दिनों की तर्ज़ पर आपकी कविता के अर्थ निकाले जायें :)
(१)
अर्थात हर सुबह वो कुत्ते एक साथ जागिंग के लिए निकलते हैं और फिर जागिंग को रास्ते में निबटा कर घर में ही नित्यकर्म करते हैं !
(२)
कवि के कथनानुसार,वे ( ध्यान रहे यहां पर 'ये सारे कुत्ते' का भाव अन्तर्निहित है ) चारों दिशाओं में अवसरवादिता का प्रदर्शन करते हुए सत्ता सुख की ओर अग्रसित होते हैं !
(३)
कवि यहां पर अत्यंत रहस्मय प्रतीकात्मकता के साथ उन्हें जानवरों की तरह जुगाली करने वाला और दलबदलू कहते हैं ! ज्ञातव्य है कि कुत्ते अत्यंत स्वामीभक्त जीव होते हैं और जुगाली भी नहीं करते अतः प्रतीत होता है कि कवि ने इन पंक्तियों में कुत्तों के सहभागी और 'कुतत्व' को प्राप्त दोपायों को भी अपने धारदार चिंतन का हिस्सा बनाया है !
(४)
कवि मंसूर अत्यंत आक्रोश के साथ कुत्तों के असफल और अदक्ष दोपाया अनुचरों पर प्रहार करते हुए कहते हैं कि 'असल' में पिछड़ जाने के बावजूद वे सारे स्वनियोजित नकली क्रीडा प्रतियोगिताओं के विजेता होने का ढोंग और प्रदर्शन करते हैं ! हर मौके का फायदा उठाते हैं !
(५)
प्रस्तुत पंक्तियों में, हाशमियात निपुण कवि वैश्विक मंडी और मंदी के शानदार प्रतीकों का प्रयोग करते हुए दोपायों के बज़ट के उतार चढाव का सुन्दर वर्णन करते हैं ! यहां पर कवि का संकेत अत्यंत स्पष्ट है कि कुत्तों को इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता क्योंकि वे गाड़ियों से आना जाना नहीं करते अतः सारा भुगतान दोपायों को ही भुगतना पड़ता है , के निहितार्थ के साथ वे अपनी पंक्तियों को विराम देते हैं !
(६)
कवि कहते हैं कि अगर अर्थ ( मायने ) निकालने वाले बंदे गैर हों तो अनर्थ हो जाता है इन हालात में कुत्ते और उनके दोपाया अनुचरों को कठपुतलियों जैसा ट्रीटमेंट मिलता है और फिर वे सभी पछताने के अतिरिक्त कुछ कर भी नहीं सकते !
निष्कर्ष :
इस अदभुत और भावप्रवण कविता के जरिये कवि दोपायों(इंसानों)को कुत्तियात(पशुता)से मुक्त होने का सन्देश देते हैं !
बहुत सटीक..अली साहब भी कमाल ही करते हैं...वाह!!
@अली साहब..
मास्साब ! आपने कॉपी जांचने के बजाये शिष्य के उत्तर में ही करेक्शन कर दिया ! "नए मूल्यों" का एक और सूचक !
# 'तावील' की बातो की 'ज़ाहिरी' व्याख्या धार्मिक दृष्टिकोण से वर्जित है, आपने तो खटिया खड़ी करदी 'सफ़ेद पोशो' की.
# मगर साथ ही आपने लाज भी रख ली ..'नित्यकर्म' [ पता नहीं उसमे क्या-क्या शामिल माना है] घर में ही करवा के, नहीं तो चौपाये तो मुफ्त ही में बदनाम है.
# जहां ना पहुंचे 'हाश्मी' वहाँ पहुंचे 'अली'.
# एसी दिलचस्प टिपण्णी पाकर मैं तो धन्य हुआ. अगर ऐसे ही पाठक मिलते रहे तो "अच्छा तो हम चलते है" की जगह मेरा टाईटल होगा "लो मैं आगया".
धन्यवाद.
एम्. हाश्मी
@ मंसूर अली हाशमी साहब ,
बुनियाद से लेकर इमारत तक की डिजाइन और तामीर में फ़कत आपका इकबाल बुलंद है हमने तो बस डेंटिंग पेंटिंग का हौसला जुटाया है !
उम्मीद यही थी कि बे इजाज़त घुसपैठ बुरी ना मानी जायेगी !
अली !
Shaikh Murtaza Vakil Said:
shukriya bahut khub bola hai
jab bhi bola sach bola hai
aapne hamare dimag ka taala khola hai
shukriya again.
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