Friday, January 28, 2011

'वो-ही-वो'


[अली सय्यद साहब के ब्लॉग  "उम्मतें'' पर ..

तू ही तू : तेरा ज़लवा दोनों जहां में है तेरा नूर कौनोमकां में है.....


में स्त्री गौरव  गाथा का ज़िक्र  पढ़ कर मुझे भी अपनी  'वो-ही-वो'  याद आगई और ये रच गया है....  ]  

'वो-ही-वो'

[राज़ की बातें] 

रात को वो मैरे बिस्तर पर सोती है,
दिन में; मैं उसके बिस्तर पर सोता हूँ,
दोनों बिस्तर अलग ठिकानों पर लगते,
खर्राटे फिर भी डर-डर के भरता हूँ .
वो पढ़ती * रहती; मैं लिखता रहता हूँ!     *[धार्मिक किताबे]
वो छुपती है और मैं 'छपता' रहता हूँ. 

थक गए घुटने तो अब  कुर्सी  पाई ,
वर्ना अब तक चरणों में रहती आयी !
वो तो मैं ही कुछ ऊंचा अब सुनता हूँ,
चिल्लाने की उनको आदत कब भायी !
वो रोती तो  मैं हंस देता था पहले,
अब वो हंसती और मैं रोता रहता हूँ.



नही हुए बूढ़े, लेकिन अब पके हुए है,
55-62  सीढ़ी चढ़ कर थके हुए है ,
पहले आँखों से बाते कर लेते थे,
अबतो चश्मे दोनों जानिब चढ़े हुए है.
नज़र दूर की अब मैरी कमज़ोर हुई तो,
बस 'वो-ही-वो' हर सू अब तो दिखा किये है.

-मंसूर अली  हाश्मी 

12 comments:

Sulabh Jaiswal "सुलभ" said...

Haashmi Sir,
Dil ko chhu gayi aapki ye "Raaz kee Baate"

उम्मतें said...

हाहाहा...ज़बरदस्त !

ये चश्मे भी खूब...बढ़ती उम्र के इश्क का भरम रखते हैं :)

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

राज़ अब राज़ न रहा। बहुत बढिया।

---------
जीवन के लिए युद्ध जरूरी?
आखिर क्‍यों बंद हुईं तस्‍लीम पर चित्र पहेलियाँ ?

वीना श्रीवास्तव said...

पहले आँखों से बाते कर लेते थे,
अबतो चश्मे दोनों जानिब चढ़े हुए है.
नज़र दूर की अब मैरी कमज़ोर हुई तो,
बस 'वो-ही-वो' हर सू अब तो दिखा किये है.

क्या बात है जनाब...बहुत खूब

अजित वडनेरकर said...

बस 'वो-ही-वो' हर सू अब तो दिखा किये है.

बहुत खूब ...

Irfanuddin said...

very nice n expressive lines janab..... waah!!!
”poor sanyiaa”@APNIBOLI

Anonymous said...

indu puri goswami - बहुत खूब सर ! चलिए अब ही सही वो -ही-वो हर सू नजर आते हैं,आपकी नज्म में मुझे जाने क्यों रूहानी खूबसूरत इबादत दिखती है जैसे कोई अपने ईश्वर की बात कर रहा हो.जमीनी होते हुए भी जमीनी नही लगती ये नज्म.9:56 pm

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार said...

आदरणीय चचाजान
आदाब अर्ज़ है !

आज आपने
आदरणीया चचीजान का दीदार भी करवा दिया , शुक्रिया ! उन्हें मेरा सलाम !

रचना बहुत प्यारी निराली है हमेशा की तरह , आपके अंदाज़ , रुतबे और पहचान के मुताबिक ।

मुबारकबाद ! हार्दिक बधाई ! मंगलकामनाएं !
- राजेन्द्र स्वर्णकार

डॉ० डंडा लखनवी said...

जानदार और शानदार प्रस्तुति हेतु आभार।
बहुत उम्दा नज़्म कही है आपने तहे दिल से शुक्रिया।
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कृपया पर्यावरण संबंधी इस दोहे का रसास्वादन कीजिए।
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शहरीपन ज्यों-ज्यों बढ़ा, हुआ वनों का अंत।
गमलों में बैठा मिला, सिकुड़ा हुआ बसंत॥
सद्भावी-डॉ० डंडा लखनवी
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दिनेशराय द्विवेदी said...

वाह!!!!!!
'वो-ही-वो' हर सू अब तो दिखा किये है.

नीरज गोस्वामी said...

भाई जान...आप गज़ब के इंसान हैं...इतना कमाल का लिखते हैं के क्या कहें...हम में और आपमें उम्र का महज़ दो साल का ही फर्क है (हम छोटे हैं आपसे) इसलिए आप जो लिखते हैं वो सट से खोपड़ी के दरवाज़े तोड़ता हुआ अन्दर घुस जाता है....इस उम्र में सबी दास्ताँ एक सी ही हो जाती है...बहुत मजा आया आपकी रचना पढ़ कर...मुझे जिंदादिल लोग बेहद पसंद हैं और आप तो माशा अल्लाह कमाल हैं...दुआ करता हूँ हमेशा यूँ ही हँसते मुस्कुराते रहें...


नीरज

Smart Indian said...

बहुत बढिया!