'न' होने का होना.....!
'शून्य' से संसार की रचना हुई.
कहकशां दर कहकशां खुलते गए,
क्या अजब ये देखिये घटना हुई.
आदमी- सूरज बना, औरत- ज़मीं,
इस तरह से आमदे 'चंदा' हुई.
सिलसिला दर सिलसिला ये ज़िन्दगी,
ज़िन्दगी की चाह में पुख्ता हुई.
बढ़ गयी आबादी, ताकत भी बढ़ी,
फिर खुराफातें यहाँ बरपा हुई.
रंगों, मज़हब, नस्ल के झगडे हुए,
ज़हर फैला, खूँ की बरखा हुई.
फिर तलाशे ज़िन्दगी तारो में है!
'ज़िन्दगी', लो ! एक मृग-तृष्णा हुई.
एक सपने की हकीक़त ये रही,
इक हकीक़त आज फिर सपना हुई.
'कुछ नहीं थे' ये तसल्ली फिर भी है..........
mansoorali hashmi
11 comments:
:)
बेहद फिलासॉफिकल ! बहुत खूबसूरत पेशकश ! सोचने को मजबूर करती हुई !
आदमी सूरज बना .औरत ज़मीं
इस तरहां से आमदे' चंदा ' हुई
सुभान अल्लाह क्या लिखते हैं आप
बहुत खूबसूरत रचना है। इस की तारीफ के लिए शब्द नहीं हैं।
बहुत उम्दा रचना.
मैं यूँ ही नहीं कहता था, "मंसूर अली हाशमी" क्यों किसी ख़ास शख्सियत का नाम है.
सूक्ष्म दृष्टिकोण, अनुभवी रचना.
एक बेहद उम्दा ग़ज़ल !!! इंसानियत को समर्पित!!!
बहुत ही बेहतरीन!
बहुत खूबसूरत रचना।
अच्छी कविता लिखी है आपने .......... आभार
कुछ लिखा है, शायद आपको पसंद आये --
(क्या आप को पता है की आपका अगला जन्म कहा होगा ?)
http://oshotheone.blogspot.com
बहुत बढ़िया
शून्य में बड़ी सम्भावना है। बहुत रचनात्मकता!
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