Saturday, August 14, 2010

समुन्द्र पार से शौहर का ख़त

समुन्द्र पार से शौहर का ख़त 


इन दिनों  पच्चीस साल बाद दो बारा इस मुल्क 'कुवैत' में पहुँच कर लग रहा है कि जहाँ तक आप्रवासियों की स्थिति है अधिक कुछ भी नहीं बदला, जबकि ये देश अब अपनी तरक्की के चरम पर है. ७० के दशक में एक पाकिस्तानी शायर [नाम अब याद नहीं रहा है] जो ख़ुद भी अप्रवासी थे ने यह  नज़्म लिखी थी जो उस वक़्त यहाँ के एक स्थानीय अखबार अरब टाईम्स [इं[ग्लिश/उर्दू]  में छपी थी.अप्रवासियो की व्यथा बयान करती हुई . मैंने भी अपनी श्रीमती को इरसाल करदी थी, नतीजतन वतन वापसी की राह आसान हो गयी थी......पेश कर रहा हूँ:-
तुम्हारा नामा-ए उल्फत मुझे कल मिल गया प्यारी
पढ़ी जब लिस्ट चीज़ों की कलेजा हिल गया प्यारी
वही तकरार तोहफों की वही फरमाइशें सबकी
लिखी है गोया ख़त में सिर्फ तुमने ख्वाहिशें सब की
सभी कुछ लिख दिया तुमने किसी ने जो लिखाया है
फलां ने ये मंगाया है, फलां ने वो मंगाया है.

कभी सोचा भी है तुमने रूपे केसे कमाता हूँ
कड़कती धूप सहता हूँ पसीने में नहाता हूँ
मगर तुम हो कि, रिश्तेदारियां मल्हूज़ रखती हो
लुटा कर अपने ही घर को इन्हें महफूज़ रखती हो
जो पैसा पास हो रिश्ते भी सोये जाग जाते है
बुरा जब वक़्त आता है तो फिर सब भाग जाते है.

मैं पहुंचूंगा तो फिर तुम देखना असली लुटेरो को
गले मिलते है कैसे  देखना फसली बटेरो को 
पहुँच जाएंगे ये सब लोग झूठी चाह में ऐसे
भंडारा बंटने  वाला हो किसी दरगाह में जैसे
कोई कैसे कहे ये बात इन मौक़ा परस्तो से 
रूपे लगते नही इस मुल्क में किबला दरख्तों पे 

तुम्हारी ख्वाहिश ऎसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले
मगर कहना खुदा लगती कभी नाकाम हम निकले?
कहा तुमने मुझे जो कुछ वही कुछ कर दिया मैंने 
तुम्हारे अगले पिछलो को भी अब तो भर दिया मैंने
मुझे 'कुवैत'  आके , अब तो दसवां साल है प्यारी
वतन से दूर हूँ कब से शिकस्ता हाल है प्यारी.

मगर तुम हो कि बस फिर भी यही तकरार करती हो
करो इक और एग्रीमेंट यही इसरार करती हो 
हवास ज़र की खुदा जाने कहाँ ले जायेगी हमको
ख़ुशी मिल जुल के रहने की ना मिलने पाएगी हमको
मैरे भी दिल में आता है मैरी इज्ज़त करे बच्चे
थका हारा जो लौटू, मिरी खिदमत करे बच्चे.

मै होता हूँ जो घर पे तो बहुत तस्वे बहाते है
मिरे जाते ही वो कमबख्त गुलछर्रे उड़ाते है
जिसे बिजनेस करना था जुवारी बनता जाता है
बनाना था जिसे पायलट शिकारी बनता जाता है
मिरे ही अपने बच्चे मुझसे यूं अनजान रहते है
बजाए मुझको अब्बू के वो मामूजान कहते है.

खुदा के वास्ते प्यारी यहाँ से जान छुड़वादो 
मिरी औलाद को लिल्लाह, मिरी पहचान करवादो
तुम अपने आप को देखो जवानी ढलती जाती है
तुम्हारी काली ज़ुल्फों में सफेदी बढ़ती जाती है 
 फ़िराक-ओ-हिज्र के सदमे को पत्थर बन के सहती हो
सुहागन हो के भीतुम हैफ! बेवा बनके रहती हो.

हुवा चलना भी अब दुशवार ढांचा बन गया हूँ मैं 
कभी सोना था पांसा, आज तांबा बन गया हूँ मैं
लुटाना छोड़ कर दौलत , किफ़ायत भी ज़रा सीखो
बहुत कुछ बन गया घर का क़नाअत भी ज़रा सीखो
दुआ करना रिहा जल्दी तुम्हारा ख्स्म* हो जाए
सजा ये मुल्क बदरी कि, मिरी अब ख़त्म हो जाए


*शौहर 

4 comments:

Udan Tashtari said...

जिसने भी लिखी हो, गज़ब चीज पढ़वा गये आप...बहुत जबरदस्त. आभार.

अजित वडनेरकर said...

सचमुच मार्मिक चीज़ है। मेहरबानी कर शायर का नाम भी याद कर लें....

दिनेशराय द्विवेदी said...

बधाई!
बहुत खूबसूरत और यथार्थ की जमीन पर लिखी गयी है। मुझे पूरी नज्म में जाने क्यों कबीर याद आते रहे।

Sulabh Jaiswal "सुलभ" said...

मेरा सौभाग्य... जो मैंने आज ब्लॉग खोला.
इतनी बेमिसाल पोस्ट.... !!!!
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कुवैती शायर को सलाम. आगे से अपने अनुभव के पिटारे हम से इसी तरह बांटते रहे.
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और हाँ, आपने मेरे ग़ज़ल के जवाब में जो दुआएं दी है, शुक्रिया अदा करने को लफ्ज़ नहीं हैं.

आपका
सुलभ