Saturday, November 5, 2011

Hiccup


हिचकियाँ !



अजित वडनेरकर जी की आज की पोस्ट

 से प्रभावित होकर, जो हिचकियाँ आ रही है उससे "आत्म-मंथन' को तो 
प्रभावित होना ही था:-


याद इतना कर रहा है कौन आज !     

'हिचकियाँ ही हिचकियाँ' आती रही.


# 'हिचकिचाते' ,'सिमट' वो जाते थे,
फिर भी हम को बहुत वो भाते थे,
अब जो आकर पसर गए है वो,
देखिये हम 'सिमटते' जाते है.
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# ले के 'हिचकी' वो सब 'डकार'  गया 
गीला-सूखा सभी उतार गया,
'हाथ धोकर' ही जैसे आया था !
हाथ फिर धोये और पधार गया !! 
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# 'बेहिचक' होके वो लताड़ गया,
उसका खाया-पिया बिगाड़ गया,
सर पे टोपी लगी थी अन्ना की,
'लोक्पाली' से डर 'लबाड़' गया.
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# उसने पूछी है बात दिल की मेरी,
मैं 'हिचकते' रहा; कहूँ, न कहूँ ? 
एक 'हिचकोला' खाके बस जो रुकी,
वो उतरली; मैं, अब रुकू के चलू ?

#  बिसरो की जो याद दिलादे 'हिचकी' है,
'श्वास' का जो व्यवधान बतादे हिचकी है,
बातो से तो दावा होश का करता है,
चढ़ी है कितनी इसका पता दे ,हिचकी है.

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-मंसूर अली हाश्मी 

Friday, November 4, 2011

Broken Heel


केले का छिलका 



 आज उसका बैंक में ड्यूटी पर जाने का पहला दिन था. लोकल ट्रेन से उतर कर पुलिया के रास्ते से बैंक तक जाने का एक मात्र और सीधा रास्ता अपेक्षाकृत कम ट्रेफिक वाला और सूना था.  होटले और कुछ छोटी दुकाने खुली हुई थी. वह कुछ क़दम ही चली थी कि रास्ते के बीच पड़े हुए केले के छिलके पर उसकी नज़र गयी. अचानक रुक कर जो वह छिलका उठाने को झुकी तो उसकी ऊंची एड़ी की सेंडिल जवाब दे गयी. गिरने से तो उसने ख़ुद को बचा लिया लेकिन एक सेंडिल की एड़ी चटक गयी. अब उसके पास दूसरी सेंडिल भी उतार कर हाथ में लेने के अलावा कोई चारा न था. दोनों सेंडिल उठाने के बाद उसने आस-पास नज़र डाली कि कोई देख तो नहीं रहा है, कुछ चलते हुए राहगीर और ठहरे हुए लोगो का अपनी और ध्यान आकृषित देख वह खिसिया सी गयी. चाह कर भी वह टूटी हुई एड़ी उठाने का साहस न जुटा सकी. हाँ, केले के छिलके पर क्रोध भरी नज़र अवश्य डाली जिसके कारण यह मुसीबत सामने आई.
अब वह नंगे पांव पहला डग भरती इसके पहले ही सामने से आकर एक स्कूटर ठीक उसके पास रुका. चालक नौजवान ने कहा, "बैठिये, कहाँ जाना है आपको?" युवती बैठने लगी तो वह बोला, "एड़ी भी ले लीजिये, वापस लग जायेगी."  आदेशात्मक लहजा था, उसकी बात मानते ही बनी, मगर उसने अब साथ में केले का छिलका भी उठा लिया और सड़क किनारे फेंक दिया. राहगीरों और होटल के बाहर खड़े लोगों का देखना अब उसे नहीं खल रहा था. वह झट से स्कूटर पर सवार हो गयी जैसे किसी परिचित के साथ जा रही हो. स्कूटर आगे बढ़ाते हुए युवक ने पूछा, "मेडम कहाँ तक जाना है ?"  "इसी सड़क के अंत तक जहां मेरा बैंक है, परन्तु..."
"नंगे पांव वहां नहीं जा सकती", युवक ने उसकी बात पूरी करदी. 
"जी हाँ, और आज तो ड्यूटी पर मेरा पहला दिन ही है, मैं वहां तमाशा बन जाउंगी."
मरम्मत की कोई दुकान आस-पास नज़र नहीं आ रही थी, जूतों की कोई बड़ी दुकान भी अभी खुली हो; एसा नहीं लगता था.  किसी छोटी दुकान पर स्लीपर मिलने के चांस थे. एसी ही एक दुकान के सामने उसने स्कूटर रोक दी और स्लीपर खरीद ली, ताकि खुले पांव न चलना पड़े. युवक ने जाने की इजाज़त चाही. बैंक खुलने में अभी  भी १५ मिनिट की देर थी. युवती ने उसे पास ही दिख रहे एक रेस्टोरेंट में चाय की दावत दे डाली.. चाय पीते  समय ही दोनों ने एक दूसरे के नाम जाने. "काम" ? "मेरी ख़ुद की ही लेडिस जूतों की एक दुकान है."
"तो फिर एक लड़की को जो बैंक में सर्विस करने जा रही हो , स्लीपर क्यूँ दिलवा दिये?" 
"बात दरअस्ल यह है कि जहां आपकी सेंडिल टूटी,  ठीक उसके सामने ही मेरी दुकान है, मैं दुकान खोलने ही के लिए वहां पहुंचा था कि आपको इस हालत में पाया. अब ऐसे में अपनी ही दुकान पर आपको कुछ खरीदने की ऑफर देता तो ये ठीक वैसा ही होता जैसे पंक्चर बनाने वाले ने कीले बिखेर कर ट्यूब पंक्चर करवा दिया हो और फिर मेरा तो यह ख़याल था कि आपको अपने घर या  कहीं पहुंचना ही है तो पहुंचा दूँ , फिर अपनी दुकान खोल लूंगा."
लता, महमूद की बात पर दिल खोल कर हंसी फिर बोली, "चलो तो अब चलते है, मैं सेंडिल वही से खरीदूंगी."  महमूद झट से बोंल पड़ा, "नहीं-नहीं, आस-पड़ोस वाले सब देख रहे थे, अब आपको वापस लेकर गया तो जाने क्या-क्या बातें होगी, मैं शादी-शुदा आदमी हूँ." 
फिर वह लता को वही छोड़, दुकान जाकर उसकी साईज़ की सेंडिल ला कर समय से लता को बैंक पहुंचा दिया.

शिक्षा:- इस कहानी से यह शिक्षा मिलती है कि - कभी जूते कि दुकान के सामने केले का छिलका नहीं फेंकना चाहिए !

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mansoor ali hashmi 

Sunday, October 16, 2011

Silent Cry !


शौरे खमोशा !
   'येद्दु' Indoor, 'रथ'  है outdoor,
      एक इस छोर , एक है उस छोर,
      गाड़ी आगे बढ़े तो अब कैसे ?  
      दोनो जानिब ही लग रहा है ज़ोर !



   'अन्ना' खामोश, 'आडवानी' मुखर,
     एक बैठे है, एक मह्वे सफर,
     इक* पिटे, दूजे* को भी; लगता डर,
     आई 'आज़ान' अल्लाहो-अकबर !  

 * प्रशान्त भूषण,  * केजरीवाल



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-Mansoor ali Hashmi

Monday, October 3, 2011

QUATRAIN



"चोक्के"

आज  के 'दैनिक भास्कर' , समाचार पत्र की सुर्खी से प्रेरित;-  


आधी ! भी 'क्लीन चिट' अभी मिलती है यहाँ पर,
'अम्मा' हो मेहरबान तो 'अंबानी' को राहत.
'प्रणब' हो कि 'पी.सी' कोई 'दिग्गी' हो कि 'गहलोत',  
एक शर्ते 'वफादारी' है बस, पाने को 'चाहत'. 
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घोटाले बढ़े देश में, और फैली  है दहशत,
'बाबा' भी निकल आये है अब छोड़ के 'कसरत',
अब एक नया 'गांधी' भी बेदार हुआ है,
पाले हुए कितने ही है 'पी. एम्.' की हसरत.
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अब देखो बदलता है... कब ऊंट ये करवट !
'चारे'* की तो रहती है, हरएक को ही ज़रूरत,         *सत्ता सुख 
कौशिश में लगे है कि उलट फेर तो हो जाए,
उम्मीद के हो जाएगी हरकत से ही बरकत.
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अब कूँए को उल्टा के बना डाला है टंकी,
रस्सी की ज़रूरत नहीं, होते नहीं पनघट,
गगरी, न डगर सूनी, न गौरी की मटक है,
'बाइक' पे भटकते फिरे बेचारे, ये नटखट.
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-मंसूर अली हाश्मी 

Friday, September 30, 2011

Genius !


ये तो नही चमचागिरी ! 




उसने कहा करता है क्या ? 
मैंने कहा, ब्लागिरी....

उसने कहा मिलता है क्या?
मैंने कहा शोहरत बढ़ी!

उसने कहा लिखता है क्या?
मिथ्या ही सब, मिथ्या गिरी!

उसने कहा पढ़ता है कौन?
मैंने कहा 'उड़न-तश्तरी !

उसने कहा सीखा भी कुछ?
मैंने कहा दादागिरी!

उसने कहा "भैया प्रणाम" !
मैंने कहा बला टली!!

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--mansoor ali hashmi 

Jab Bloggers Met


जब ब्लोगर Met


खो गए थे मेले में !
मिल गए अचानक  फिर,
इक नई ही दुनिया में,
बनके अबकि आभासी !!

रोज़ मिल भी जाते है,
बात हो भी जाती है,
अपने ही ब्लागों पर,
सारे लोग प्रवासी.

ज्ञान देने  आते है,
संज्ञान लेके जाते है,
इक से एक याँ बढ़कर,
लोग सारे जज़्बाती.

पूर्वी है अगर कोई,
कोई इनमे मद्रासी,
उर्दू दां कोई है तो,
है कोई ब्रज भाषी.

हिंदी सब ही लिखते है,
बोलते भी, पढ़ते भी,
प्यार इससे करते है,
'हिंदी ब्लॉग' के वासी.

सोच है अलग सबकी,
पेशा भी जुदागाना,
भिड़ भी जाते है अक्सर,
फितरतन करामाती.

डाक्टर भी है इनमे,
सी.ए., बी.ए., एम्.ए.भी,
है कोई गृहस्थिन तो,
कोई इनमे व्यापारी.

रचता है अगर साहित्य,
ज्ञान भी यहाँ बटता,
मेल दिल के होते है,
ख़ुश रहे मुलाकाती.


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-- mansoor ali hashmi 

Thursday, September 29, 2011

Blogging Nuisance !


हंगामा कैसे बरपा करे !

लिखता मैं इसलिए हूँ कि कोई पढ़ा करे,
पढ़ता मैं इसलिए हूँ कि फिर और क्या करे!

Stamps जमा करता था,अब 'टिप्णियो' को मैं,
हो आपको भी शौक़ तो मुझको दिया करे !

उपदेश देने बैठे तो सूखे का हो शिकार,
'छीले' कोई किसी को तो दरिया बहा करे.

आघात, भावनाओं पे कोमल किया करो,
तोड़ो जो छत्ता ; डंक, मधु भी मिला करे.


लिखना जो भूल जाओ तो , गाली तो याद है,
इक देके उसके बदले में दस-दस लिया करे !




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mansoor ali hashmi 

Monday, September 26, 2011

Blogging at any cost !


लिखना ज़रूरी है !




लिखो कुछ भी; वो पढ़ने आयेंगे ही,
भले दो शब्द ; पर टिप्याएंगे ही.

समझ में उनके आये या न आये,
प्रशंसा करके वो  भर्माएंगे ही. 

जो दे गाली, तो समझो प्यार में है!
कभी इस तरह भी तड़पाएंगे ही.

न जाओ उनकी 'साईट' पर कभी तो,
बिला वजह भी वो घबराएंगे ही.

कभी 'यूँही' जो लिखदी बात कोई ! 
तो धोकर हाथ पीछे पड़जाएंगे ही.

बहुत गहराई है इस 'झील' में तो,
जो उतरे वो तो न 'तर' पाएंगे ही. 

ये बे-मतलब सा क्या तुम हांकते हो!
न समझे है न हम समझाएंगे ही !!

लगा है उनको कुछ एसा ही चस्का,  
कहो कुछ भी वो सुनने आयेंगे ही.


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--mansoor ali hashmi 

Friday, September 23, 2011

Short Cut !

कैसा ये 'काल' है !

जिस 'माल'* ने बनाया हमें 'मालामाल' है,        *पशु-धन 
किस दर्जा आज देखो तो वो पाएमाल है.

आँखे ! कि तेरी झील सी इक नेनीताल है.
गहरी है, कितनी नीली है, कितनी विशाल है.

'रथ' पर, 'ट्रेन' में कोई, कोई हवा में है* ,    *प्रचार के लिए !
है पात-पात कोई,  कोई  डाल-डाल है.

'P C'  भी अब चपेट में वाइरस की, ख़ैर  हो,
'राजा' ये कह रहा है कि सब 'सादे नाल' है. 

'रक्खा' विदेश में है,सुरक्षित हरएक तरह,
'नंबर' जो उसका गुप्त है, वो सादे नाल है. 

वो तो 'अमर' है, साथ में लोगा वड्डे-वड्डे* !   *big B
'चिरकुट' कहे कोई उसे, कोई दलाल है.

'वो' आसमानों पर है ज़मीं की  तलाश में,
हम तो ज़मीन खोद* के होते 'निहाल' है.      *खनन 

--mansoor ali hashmi

Thursday, September 22, 2011

Alas !

बे मेल !






खूँटी' मिल न पायी जब आस्था की 'टोपी' को,
'मुल्ला' की मलामत की, और कौसा 'मोदी' को.

दौर 'अनशनो' का है, त्याग कर ये रोटी को,
फिक्स कर रहे है सब, अपनी-अपनी गोटी को.

'शास्त्र' से न था रिश्ता, 'शस्त्र' लाना भूले थे,  
इक ने खींची दाढ़ी तो, दूसरे ने चोटी को.

जोड़े यूं भी बनते है, जोड़ जब नहीं मिलती,
मोटा लाये मरियल सी, दुबला पाए मोटी को.

'बड़की'* से ब्याहने जो रथ पे चढ़ने आया था,   
 लौटना पड़ा उसको साथ लेके 'छोटी' को.

* {पी.एम्. की गद्दी}
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mansoor ali hashmi