कुछ कर तो रहे है !
'बालाए ताक़' रखके* 'बला' टाल रहे है, *कोर्ट के निर्णय को
'अफज़ल' हो कि 'कस्साब' हो हम पाल रहे है.
'बिंदु' जो कभी थे वो हिमालय से लगे अब,
'रेखाओं' के नीचे जो है, पामाल रहे है.
बदली 'परिभाषा , मनोरंजन की तो देखो,
अब 'बार की बालाओं' को वो 'ताक' रहे है !
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बालाई पे बैठे है,कशिश भी है 'बला' की,
हम कूचा-ए-यारां की सड़क नाप रहे है.
गालो पे फ़िदा हो के तो 'बलमा' वो बने थे,
रूख्सार के 'बल'*, 'बालो' से अब ढांप रहे है. *सिलवट
होती 'अल-बला' तो वो टल जाती दुआ से,
अब 'हार'* बन गयी है तो बस जाप रहे है! *माला
'मेहराब' तलक अब तो रसाई नही होती,
'तक' कर ही मियाँ हांप रहे, काँप रहे है !
Note: {Pictures have been used for educational and non profit activies.
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--mansoor ali hashmi
5 comments:
पूरी गम्भीरता से अर्ज कर रहा हूँ - शब्दों के अर्थ के मामले में आप नायाब हैं। आप कक्षाऍं शुरु करने पर विचार करें। कक्षाओं का मतलब छोटे बच्चों के लिए नहीं - लिखने/पढनेवालों के लिए और जिज्ञासुओं के लिए।
अरे बैरागीजी , मैं खुद 'अजित मास्साब' की कक्षा का एक विद्यार्थी हूँ, जो उनके दिए हुए 'शब्दों' को 'वाक्यों' में प्रयोग करने का प्रयास भर करता हूँ.....वो भी डरते-डरते कि कहीं कुछ 'अनर्थ' न हो जाए. और इधर आपने तो मेरे 'अर्थो' को गंभीरता से भी ले लिया है...........खुदा खैर करे !
-म. हाश्मी
वाक़ई बला का रियाज़ किया है आपने शब्दों पर और नवाज़ा है सफ़र को ।
हमारी खुशक़िस्मती होगी कि जब तक ये सफ़र चले, आपकी शायरी भी पुरअसर इसके साथ चले । आप जैसे बड़े लोग जब सफ़र को नवाज़ते हैं तो ख़ाक़सार का हौसला बढ़ता है । नवाज़िश...करम...शुक्रिया...मेहरबानी
अजित जी, आपकी मेहनत शब्दोँ को जीवंत बना देती है. और खुद
शब्द ही ये तकाज़ा करने लगते है कि उन्हें प्रयुक्त कर लिया जाये.
अपने आस-पास ही के और कम महत्व् के लगते शब्दों का जो रोचक इतिहास आप सदियों की गर्त झाड़ कर ढूँढ लाते है , वह एक भागीरथ प्रयास है जिसके लिए आप धन्यवाद और बधाई के पात्र है.
♥
'मेहराब' तलक अब तो रसाई नही होती,
'तक' कर ही मियां हांप रहे, कांप रहे है
हा हाऽऽ… हा…
:)
हंसते हंसते लिखना आसान नहीं है मेरे लिए …
तीसरी कोशिश में अब जा'कर लिख पा रहा हूं … … …
आदरणीय चचाजान मंसूर अली हाशमी जी
आदाब अर्ज़ !
सस्नेहाभिवादन !
आप भी बस आप ही हैं … कोई नहीं लिख सकता आपकी तरह
गालो पे फ़िदा हो के तो 'बलमा' वो बने थे,
रूख्सार के 'बल' , 'बालो' से अब ढांप रहे है
क्या कहने है आपके अंदाज़ के !
…और क्या कहने है तमाम अश्'आर के !
मंगलकामनाओं सहित…
-राजेन्द्र स्वर्णकार
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