Sunday, September 5, 2010

वेदना

वेदना

[पंकज सुबीर जी के दिये तरही ग़ज़ल के मिसरे  "फलक पे झूम रही सांवली घटाएं है" पर मौसम का तकाज़ा पूरा करने वाले कोई रूमानी अशआर नहीं बन पड़े, जाने क्यूँ वेदना के स्वर ही फूटते रहे और ऐसा ही कुछ कह पाया, और इसिलए वहां ले जाने की हिम्मत भी नहीं हुई, यहाँ तो प्रस्तुत कर ही दूँ!]

हवा-हवा सी ये क्यूँ आज की हवाएं है,
दग़ा-दग़ा सी ये क्यूँ आज की वफाएं है.

ठगी-ठगी सी लगे आज है ये बहने क्यूँ?
उदास-उदास सी क्यूँ आज इनकी माँएं है.

मुकाम उनका घरों में इसी से तय होगा,
दहेज़ कितना है जो अपने साथ लाएं है.

सितम ज़रीफी के याँ भी पिटाई होती है,
लगा के सौ ये मगर एक ही गिनाये है.

सज़ा-सज़ा सी लगे है ये ज़िन्दगी क्यूँकर,
वफ़ा के शहर में अपने भी क्यूँ पराये है.

4 comments:

Manish aka Manu Majaal said...

छुपा लेतें है दर्द, वो इस अदा से 'मजाल',
हैं मुस्कुरा देते , जब अन्दर से उठती आहें है !

जैसा मूड हो, वैसा ही लिखे, विचारों से जबरदस्ती बहुत महँगी पड़ सकती है

दिनेशराय द्विवेदी said...

बहुत खूब!

नीरज गोस्वामी said...

मुकाम उनका घरों में इसी से तय होगा,
दहेज़ कितना है जो अपने साथ लाएं है.
भाई जान आपने इस ग़ज़ल को तरही पर न भेज कर तमाम पढने वालों के साथ ना इंसाफी की है...इतनी खूबसूरत ग़ज़ल वहां नहीं शाया नहीं हुई इसका मलाल रहेगा...खैर आपने इसे अपने यहाँ लगा कर बेहतर काम किया है...बहुत सारी दाद कबूल करें...
नीरज

उम्मतें said...

मदमस्त हाथियों की तरह रौंदने वाली घटाओं से वेदना के तार जम कर खींचे हैं आपने !

बल्कि तार तार ...:)