Tuesday, August 9, 2011

OPTIMISM !

चल मेरे घोड़े टिक-टिक-टिक..........


'ज्ञानोक्ति' पर मिले कोटेशन से प्रेरित होकर:-


"जब आप सभी सम्भावनायें समाप्त कर चुके हों, तो याद करें - आपने सभी सम्भावनायें समाप्त नहीं की हैं।"
~ थॉमस ऑल्वा एडीसन।


संभावनाए क्षीण है, घोटाले करना छोड़ दे ,
सी-डब्ल्यू , G में जेल तो, 2 G भी भारी फ़ैल है.
करके 'खनन' पाई है अपनी कब्र ही खोदी हुई,

बुझ रहे दीपक सभी बाकी बचा न तेल है,

पढ़ के 'एडिसन' को फिर उम्मीद की जागी किरण,
'लोकपाली' गर बचाले* तो FRONTIER MAIL है.
    *[minus[-] P.M. वाला/ बस कोशिश करके  पी.एम्. बन जाओ ]

Wednesday, August 3, 2011

NON-SENSE !


बे-बात  की बात!


'कल' तो 'माज़ी' हो गया है, आज की तू बात कर,            [ माज़ी को अरबी में 'मादी' भी पढ़ते है] 
'येद्दु' से मुक्ति मिली, 'कस्साब' पर अब घात् कर.


करना क्यूँ 'अनशन' पड़े ? रफ़्तार टूटे देश की,
जन का हित जिसमे हो एसा 'लोकपाली' पास कर.

'PUT' को 'पट' पढ़ना नही और 'BUT' को बुत न बोलना,
 है  poor इंग्लिश तो प्यारे, हिंदी ही में Talk कर.

हारने* के वास्ते अब यूं चुना अँगरेज़ को!                 *[क्रिकेट में]
अब चुका सकते 'लगां' हम नोट ख़ुद ही छाप कर!!

'ग़र्क' होने से बचा, 'Obama'  उसका देश भी,
एक कर्ज़ा फिर मिला, इक और फिर 'Default'  कर!

इक 'शकुन्तल' रच रहे है, बनके 'कालीदास'*  फिर,       *[आज के राजनेता]
जिसपे बैठे है उसी डाली को ख़ुद ही काट कर.

पहले 'क़ासिद' को बिठाते सर पे थे आशिक मियाँ!
काम [com] अब करवा रहे है देखो उसको डांट [dot] कर. 
--mansoor ali hashmi 

Tuesday, July 19, 2011

ढूँदते-ढूँदते.....

             [ समीर लाल जी के लेख ......   स्पेस- एक तलाश!!!!   से प्रेरित होकर....]

ढूँदते-ढूँदते......

पत्थरों का शहर, पत्थरों के है घर,
तंग रस्ते यहाँ, आदमी तंग नज़र,
हम भी पहुंचे कहाँ घूमते-घूमते.

'चौड़े' हम और सकड़ी बड़ी रहगुज़र !   
ठेलती भीड़ है, कुछ इधर-कुछ उधर,
पार लग ही गए कूदते - कूदते.

शोर बाहर  था, सन्नाटा अन्दर मिला,
जब टटोला तो हर सिम्त पत्थर मिला.
बुझ गयी है नज़र घूरते-घूरते.

नक्श पत्थर पे तहरीर कैसे करूं?
[सब कहा जा चुका है तो अब क्या लिखू,] 
कुछ खरोचा तो, नाख़ून हुए है लहू,
थक गया मैं 'जगह'* ढूँदते-ढूँदते.        *[space]

--mansoor ali hashmi 
  
http://aatm-manthan.com


Friday, July 15, 2011

Terrorism

दहशत 

[इस गीत की तर्ज़ पर यह रचना पढ़े:- 
"आना है तो आ राह में कुछ फेर नही है,
 भगवान् के घर देर है,  अंधेर नही है."]

फिर आग ये अब किसने लगाई है चमन में,
गद्दार छुपे बैठे है अपने ही वतन में.

दहशत जो ये फैलाई तो तुम भी न बचोगे,
क्यों आग लगाए कोई अपने ही बदन में.

नफरत से तो हासिल कभी जन्नत नहीं होगी,
क्यूँ उम्र गुज़ारे है तू दोज़ख सी जलन में.

ज़ख्मो को बयानों से तो भरना नहीं मुमकिन,
तीरों से इज़ाफा ही तो होता है चुभन में.

'वो' क़त्ल भी करके है क्यूँ रहमत के तलबगार,
हम ढूँढ़ते फिरते है, हर इक 'हल' को अमन में. 

--mansoor ali hashmi 

Friday, July 8, 2011

बुढ्ढा होगा तेरा बाप!

बुढ्ढा होगा तेरा बाप!

बुढ्ढा होगया मैरा बाप,
टूटी लाठी मरा न सांप*,        *[भ्रष्टाचार का]
तीन बचे है* गुज़रे सात,         *[यू.पी.ए. का कार्यकाल]
अम्मा-अम्मा करके जाप.



बाक़ी अभी तलक विशवास,
बाबा-अन्ना पर है आस,
अब तो हम ख़ुद के ही दास,
न होना 'दास मलूका' उदास.
सबसे बड़ा है अपना बाप!

--mansoor ali hashmi 

Thursday, July 7, 2011

DELHI-BELLY!


देल्ही- बेल्ली !

देल्ही- बेली,
धूम मचेली.

समझ से बाहर,
'उलट' टपेली.
 
फेंकी 'मामू' ने,  
'ईमू' ने झेली.

बात-बात में,
गाली पेली.
 
'shit' बिखराई,
'sheet' है मैली.

उड़ा कबूतर!  
ख़ाली थैली.

अफरा-तफरी,
वोद्दी, येल्ली!

पढ़ी फ़ारसी,
बने है तेली.

गयी चवन्नी,
बची 'अदेली'.

'आत्ममंथन'
एक पहेली!

लिखी पोस्ट ,
और झट से ठेली.
--mansoor ali hashmi 

Friday, July 1, 2011

Keep it up......


चली-चली, चली-चली, अन्ना जी की गाड़ी चली चली....... 
[ प्रियवर राजेंद्र स्वर्णकार जी नहीं चाहते कि ब्लॉग कि गाड़ी रुके , तो एक धक्का और लगा दिया है! वर्ना  "आत्ममंथन" से हासिल कुछ नहीं हो रहा है!!!]

एक चवन्नी 'चली नहीं' और एक चवन्नी 'चली गयी' !
इन्द्रप्रस्थ की शान कभी थी, न जाने कौन गली गयी.!!

न 'काले' पर हाथ डाल पाए, न 'उजलो' को हथकड़ी पड़ी !
सधी नही बात अनशनो से , बिचारी जनता छली गयी.

हमीं तो सीना सिपर हुए थे दिलाने आज़ादी इस वतन को,
हमारी ही छातीयों पे देखो कि मूंग अबतक दली गयी.

स्वास्थ्य,रक्षा कि अर्थ अपना , हर इक में ख़ामी भरी हुई,
चरित्र ही को गहन लगा है,ये कैसी कालिख मली गयी.

बना न राशन का कार्ड अपना, न पाया प्रमाण ही जनम का,
शिकारियों के जो मुंह तलक गर न मांस , हड्डी , नली गयी. 

जो गाड़ी पटरी पे लाना है तो 'नियम' बने सख्त, ये  ज़रूरी,
इक इन्किलाब और लाना होगा जो बात अब भी टली गयी.

mansoor ali hashmi 

Monday, June 27, 2011

Hodge-Podge


अब करे तो क्या?

लगता नहीं है जी मैरा अबतो ब्लॉग में,
शब्दों में वायरस है , छुपे अर्थ fog में.

होने लगा शुमार अब लिखना भी रोग में,
किस्मत अब आजमाए चलो अपनी योग में. 

हम ढूँढते नहीं इसे अपनों या ग़ैर में,
अब तो सिमट गयी है वफाए भी Dog में.

पहले तलाशे मोक्ष का साधन ही त्याग था,
अब खोजा जा रहा है उसे सिर्फ भोग में.

था सच का बोल बाला तो झूठे थे शर्मसार,
शर्मो हया बची है अब गिनती के लोग में 

mansoor ali hashmi 

Saturday, June 25, 2011

Illusion !


उसको मैं कैसा समझता था, वो कैसा निकला !

जितना बाहर था वो उतना ही अन्दर निकला,
जो  कलंदर नज़र आता था, सिकंदर निकला.

शांत एसा था कि  तल्लीन 'ऋषि' हो जैसे, 
और  बिफरा तो 'सुनामी' सा समंदर निकला.

यूं 'उछल-कूद' की आदत है सदा से उसमे, 
उसके पुरखे को जो खोजा तो वो बन्दर निकला.

'साब' बाहर है, मुलाकात नहीं हो सकती,
'Raid'  आई तो बिचारा वही घर पर निकला.

उम्र  भर जिसको संभाले रखा हीरे की तरह,
वक्ते मुश्किल जो निकाला तो वो पत्थर निकला.



हम 'अनुबोम्ब' तो रखते ही है, फौड़ेंगे उसे,
'भिनभिनाता हुआ, इक पास से 'मच्छर' निकला. 



mansoor ali hashmi 

Friday, June 24, 2011

Reincarnation !!!


हड़बड़ी ही हड़बड़ी !


फिर जनम होगा - न होगा बात जब ये चल पड़ी,*   
सौ ब्लॉगर कूद आये, मच गयी है हड़बड़ी .

'आस्तिक' की बात को लेकर परीशाँ  'नास्तिक,
एक को दूजे में दिखने लग गयी है गड़बड़ी.

'मुस्कराहट' मुझको अपनी इस तरह महँगी पड़ी,
दाँत चमकाने कि ख़ातिर COLGATE लेनी पड़ी.  

पासपोर्ट बनवाना भी मुझको बहुत महंगा पड़ा ,
शाला से थाने तलक जब रिश्वते देनी पड़ी !

दोस्तों 'टिप्याना' भी मुझको तो रास आया नहीं,
कितनी ही कविताए मैरी आज तक सूनी पड़ी.

चित्र अपने ब्लॉग पर तकलीफ का बाईस बना,
याद 'दादा जान' आये, देखी जब दाढ़ी मैरी !

खूबसूरत लेख था, सूरत से लगती जलपरी,
कद्दू से मोटी वो निकली, लगती थी जो फुलझड़ी. 


* http://zealzen.blogspot.com/2011/06/blog-post_22.html?showComment=1308888740834#c3518290395088571464
 

mansoor ali hashmi 

Tuesday, June 21, 2011

Pandora of Knowledge !!!


ज्ञान का सोपान 


अपना-अपना ध्यान रख लीजे,
मिल रहा मुफ्त 'ज्ञान' रख लीजे.

सुगबुगाहट 'अपातकाल' सी फिर, 
बंद अपनी ज़ुबान  रख लीजे.

चाँद दिखलाते 'वो' हथेली पर,
'दूर-द्रष्टा' है 'मान' रख लीजे.

इतनी नजदीकियां नहीं अच्छी,
फासला दरमियान रख लीजे.

'फैसला' जिस जगह पे बिकता हो,
नाम उसका 'दुकान' रख लीजे.

जाने कब तोड़ना पड़े अनशन,
साथ में खान-पान रख लीजे.

योग तो बाद में भी कर लेंगे,
पहले लिख कर बयान रख लीजे. 

'सूद' से गर परहेज़  करते है,
 नाम उसका 'लगान' रख लीजे.

अस्ल से बढ़ के सूद लाएगा,
क़र्ज़ दीजे, पठान रख लीजे.

गांधीवादी ! तो बनिए बन्दर से,
बंद मुंह, आँखे, कान रख लीजे.

यादे माज़ी में गुम रहो बेशक,
साथ कुछ वर्तमान रख लीजे.

है अंदेशा बहुत भटकने का,
साथ गीता-कुरान रख लीजे.

बात ललुआ से कर रहे है आप,
साथ में पीकदान रख लीजे.

बन ही जायेगा 'लोकपाली बिल'  
कुछ यकीं कुछ गुमान रख लीजे.

'गल' न कर छूट जाएगी 'गड्डी',
झट से अपना 'समान' रख लीजे.

है हर इक दायरे से ये बाहर,
मुफ्त मिलता है 'दान' रख लीजे.

देश हित में सफ़र ! मुबारक हो,
साथ में खानदान रख लीजे.

वोट पैसो से अब नहीं मिलता,
साथ में पहलवान रख लीजे.

२०-२० का ये ज़माना है,
घर के नीचे दुकान रख लीजे.

mansoor ali hashmi 

Friday, June 17, 2011

Fasting...!


अनशन ही अनशन 

सच की पगड़ी हो रही नीलाम है,
'भ्रष्ट' को अब मिल रहा इनआम है.

अब 'सियासत' अनशनो का नाम है,
देश से मतलब किसे! क्या काम है?

तौड़ कर अनशन भी शोहरत पा गया ,
एक* मर कर भी रहा गुमनाम है!          [*निगमानंद]

दूसरे अनशन की तैयारी करो,
गर्म 'लोहे' का यही पैग़ाम है.

'अन्शनी' में सनसनी तो है बहुत,
'फुसफुसा' लेकिन मगर अंजाम है. 

'आग्रह सच्चाई का'  करते रहो,
झूठ तो, नाकाम है-नाकाम है.

स्वार्थ को ऊपर रखे जो देश के,
दूर से उनको मेरा प्रणाम है.

-- मंसूर अली हाश्मी 

Monday, June 6, 2011

क्यूँ चारो तरफ फैला है भरम?


क्यूँ  चारो तरफ फैला है भरम?

'अन्ना' पे करम, 'बाबा' पे सितम ,
'अम्मा' इस तरह करना न ज़ुलम!

'पैसा' है सनम, 'योगा' से शरम,
'मन'* है तुझको कैसा ये भरम ?           [*PM]

'भगवे' से हुआ ख़तरा पैदा,
'शलवार'* ने रखली 'उनकी' शरम.        *[बाबा रामदेव]

रक्षा करना थी देश की जब,
'आँचल' को बना डाला परचम.

स्वागत करके लाये थे जिसे,
छोड़ा उसको हरि  के द्वारम.

'अनशन' करने से रोको नही,
'सेवा' करना ही जिनका 'धरम'.
-- mansoor ali hashmi 

Monday, May 30, 2011

Shining Age


कैसा ये ज़माना है !

गोरो को भगाया अब "काले"* को बुलाना है,           *[धन]
इस देश के बाहर भी इक अपना ख़ज़ाना है.

लिस्ट हमने भिजायी है, हम 'DRONE' नहीं करते ,
'कस्साबो' को हमने तो मेहमान बनाना है.

'फिफ्टी' या 'ट्वेंटी' हो ये टेस्ट [Taste!]  हमारा है,
पैसा हो जहां ज़्यादा,उस सिम्त ही जाना है.

ये भी तो सियासत है, सत्ता से जो दूरी हो,
'केटली' को गरम रखने '[सु] शमा' को जलाना है.

ये दौरे ज़नाना है, माया हो कि शीला हो,
ममता को ललिता को अब सर पे बिठाना है.

'बॉली' न यहाँ 'वुड' है,अफवाहों का झुरमुट है,
लैला की  ये बस्ती है, मजनूं का ठिकाना है.

घोटाले किये लेकिन, 'आदर्श' नहीं छोड़ा,
मकसद ये 'बुलंदी' पर, बस हमको तो जाना है.

निर्णय  ही 'अनिर्णय' है; इस वास्ते संशय है, 
ये कैसा ज़माना है! कैसा ये ज़माना है!!
-mansoor ali hashmi 

Saturday, May 21, 2011

2 G SPECTRUM


2 G स्पेक्ट्रम 


'कनी' - मोझी, मोड़ी भी, मोई कहाए,
'triple'  नाम पाए; 'तिहाड़ी'' को जाए,
बहुत अपने 'पापा' से इनआम पाए,
फिर इक दिन वो सारे के सारे गंवाए, 
थी 'राजा' की सत्ता तो 'बलवा' भी भाए
पुरी संग सब मिलके हलवा भी खाए,
अब आटे में घाटा है क्या दिन ये आए,
जो भरना है पेट अब,तो चक्की चलाए!!!

-Mansoor ali hashmi

Thursday, May 12, 2011

A Parody




शमशाद बेगम और किशोर कुमार का गाया 'नया अंदाज़' फिल्म का एक गीत, जिसे फिल्माया गया है किशोर और मीना कुमारी पर... ये गीत उन गीतों में से एक है, जो उझे बचपन की याद दिलाते हैं.]

Meri neendon mein tum (Kishore Kumar)

BUZZ  पर आज किशोर-शमशाद  का यह गीत [मेरी नींदों में तुम, मेरे ख़्वाबों में तुम] सुन, उस धुन पर यह बन गया है:-


सीधी होती नहीं टेढ़ी कुत्तो की दुम,
गाढ़ कर के रखो कितने बरसो ही तुम.

एड फिल्मो में तुम, आई.पी.एलो  में तुम,
हम खरीदार है, जो भी बेचोगे तुम.

चढ़ रही है ग़रीबी  की रेखा इधर,
माल इस देश का बाहरी बैंको में गुम.

"न किशोरी खनक है न शम्शादी सुर,
मस्त सब हो रहे शीला-मुन्नी पे झूम."

-मंसूर अली हाश्मी 


Wednesday, May 11, 2011

कुछ भी तो नहीं देखा !


कुछ भी तो नहीं देखा !

 'बिजली' से पंखो को भी चलते देखा,
'पंखो' से ही बिजली  को बनते देखा.

'लादेनो-सद्दाम' बनाने वालो के,
हाथो ही हमने 'उनको' मरते देखा.

बोतल से आज़ाद किये जिन जिसने भी,
बिल आख़िर
उससे ही डरते देखा.

पाल रखा था; दूध पिलाते थे जिसको,
अपने ही मालिक को भी डसते देखा.

'अंग्रेज़ो' को मार भगाया था जिसने,
'अंग्रेज़ी' ही पर उनको मरते देखा.  

नफरत की बुनियादों पर तामीर हुई!
एसी दीवारों को हमने गिरते देखा.

हाँ! हम ही मिलकर 'सरकार' बनाते है,
'सरदारी' में अपनी ही चलते देखा!

-mansoor ali hashmi 

Friday, April 22, 2011

माले मुफ्त - दिले बेरहम!


माले मुफ्त - दिले बेरहम!

संतोष जिसे है उसे थोड़ा भी 'घणा' है,
जो ज़ोर से बाजे है वही थोथा चना है.

आकाश को छूती हुई क्यूँ तेरी अना* है,    *[Ego]
तू खाक का पुतला है तू मिटटी से बना है.


'बाबा' के 'चमत्कार' हवाओं में दिखे है! 
कहते है पवन पूत भी वायु से जना है.

वायु में बवंडर है तो धरती में है कंपन,
'रामू' तो यह कहते है कि 'डरना भी मना है'.

अब 'कूक' न नगमे है न वो बादे सबा है!
जब फूल न शाख़े है; न फ़ल है न तना है.


अब 'मुफ्त' का खा कर जो हुआ कब्ज़ तो सुन लो,
जुल्लाब लगा देती जो पत्ती; वो 'सना'* है.      *[?]

--mansoor ali hashmi 

Sunday, April 10, 2011

एक अण्णा हज़ार बीमार


एक अण्णा  हज़ार बीमार   

सौ है बीमार एक अनार है आज,
सरे फेहरिस्त भ्रष्टाचार है आज.

छोड़ गुलशन निकल पड़ा आख़िर,  
गुल को खारों पे इख्तियार है आज.

मरता, करता न क्यां! दहाढ़ उठा!
हौसला कितना बेशुमार है आज.

हक़ परस्ती की बात करता है !
कोई 'मंसूर' सू -ए- दार है आज?

दरिया बिफरा ज़मीं में कम्पन है,
क्यों फ़िज़ा इतनी बेक़रार है आज.

गिरती क़द्रें है; बढ़ती महंगाई,
मुल्क में कैसा इन्तिशार है आज !

दंगा 'सट्टे' पे, जाँ 'सुपारी' एवज़ !
फिर छपा एक इश्तेहार है आज.

जिस्म बीमार; रूह अफ्सुर्दः
इक मसीहा का इंतज़ार है आज. 

'अक्लमंदों' का अब कहाँ फुक्दान*     *[कमी]
एक धूँदो मिले हज़ार है आज. 

-mansoor ali hashmi

Saturday, March 26, 2011

कुंबा है मेरा देश, मैं सरदार इसका हूँ!


कुंबा है मेरा देश, मैं सरदार इसका हूँ!

घोटाला हो गया है? मुझे कुछ पता नही !
पैमाना भर गया है? मुझे कुछ पता नही !

लाखो करोड़ कम है? कुछ और लिजीयेगा!
खाली हुआ खज़ाना ? मुझे कुछ पता नही !

कुछ 'LEAK'  हो गया है,कुछ और 'LEAK' होगा.
टपके गा कौन अबकी  ? मुझे कुछ पता नही !

अब 'चि' भी बोल उठे है, "उत्तर नहीं पसंद",
'उसका निजी ख्याल' , मुझे कुछ पता नही ! 

'बाबा' को दिख रहा है; 'काला' क्यूँ हर तरफ?
'बा' से करो सवाल, मुझे कुछ पता नही !



अब 'जेटली' की केटली में आ रहा उबाल,
"मौक़ा परस्ती" क्या है? मुझे कुछ पता नही! 

मंसूर अली  हाश्मी 

Saturday, March 5, 2011

सत्यम, शिवम्, सुन्दरम !


सत्यम, शिवम्, सुन्दरम ! 

चारो तरफ गड़बड़म ,
हर एक दिशा में भरम.

शासक है मनमोहनम ,
सत्ता बड़ी प्रियत्तम .

'मोदीललित' अद्रश्यम,
लांछित कई 'थोमसम'.  

संस्थाए 'क्वात्रोचियम',
'अफ़साने'* सब दफनम.     *[जो अंजाम तक न पहुँच सके]

'करमापयी' शरणम,   
'माल' भयो गच्छ्म.

कानून जब बेशरम, 
सोच भयी नक्सलम.

झूठम, कुरूप, रावणम,
सत्यम,शिवम् सुन्दरम.

http://mail.google.com/mail/?ui=2&ik=e17413e790&view=att&th=12e8a493acc298b1&attid=0.2&disp=inline&realattid=f_gkxp8dxo1&zw

राजेंद्र  स्वर्णकार जी के स्वर में...








-मंसूर अली हाश्मी


Monday, February 28, 2011

....कि मैं बेज़ार बैठा हूँ!



कुलदीप गुप्ताजी  की रचना ...."कविता की समाधि"    http://kuldipgupta.blogspot.com/  से प्रेरित....

[तुम वह जो टीला देख रहे हो
वह कविता की समाधि है।
कविता जो कभी वेदनाओं का मूर्त रुप हुआ करती थी
उपभोक्तावाद की संवेदनहीनता ने
उसकी हत्या कर दी है।]

.....कि मैं बेज़ार बैठा हूँ!

कविता की  समाधि का जिसे टीला कहा तुमने,
उसी टीले की  इक जानिब पे मैं भी आ के बैठा हूँ,
मुझे तो ये 'समाधी' एक 'कलमाडी' सी लगती है,
 कईं घोटाले इसमें दफ्न, मैं बेज़ार बैठा हूँ.

कई 'आदर्शी टॉवर' तो, 'बड़े स्पेक्ट्रम' इसमें,
छिपे बैठे कई 'अफज़ल-असीमानंद' है इसमें,
कई 'राजा' की गद्दी है, कई 'बाबा' के आसन है,
किसी 'lady' का मोबाईल किसी मुन्नी  का  गायन है.

उछलता sex है और sense मे आई गिरावट है,
न तुम संवेदना धूँदो, बनावट ही बनावट है,
इरादों मे बुलंदी है न जज़बो मे हरारत है,     
न सच्चा है कोई मजनूं  न लैला मे शराफत है.

विवाह भी एक प्रोफेशन ही बनता जा रहा है अब,
लगा क्या है? मिला कितना? ये सोचा जा रहा है अब,
'उपजती' नारी है या नर ये जांचा जा रहा है अब,
पसंदीदा नहीं गर शै  तो बेचा जा रहा है अब.

कवि हूँ  मैं न शायर हूँ, मुफ़त छपता ब्लॉगर हूँ,
न रचना से मैरी संगीतो- सूरत ही उभरती है,
जो गिर्दो -पेश मे दिखता वही लिख मारता हूँ मैं,
संवेदनहीन टीला बनके मैं ख़ुद पे ही बैठा हूँ.
   
mansoorali hashmi

Thursday, February 24, 2011

पुन---- र्जनम दिवस [22 फरवरी]

पुन----  र्जनम  दिवस   [22 फरवरी] 


हो गए तिरसठ के अब ; छप्पनिया अपनी मेम है,
जंगली  बिल्ली थी कभी; अब तो बिचारी Tame है.

सर सफाचट; दुधिया दाढ़ी में बरकत हो रही,
स्याह ज़ुल्फे उसकी अबतक; जस की तस है, same है.

यूं तो अब भी साथ चलते है तो लगते है ग़ज़ब,
'वीरू'* सा मैं भी दिखू हूँ; वो जो लगती 'हेम' है.     *[धर्मेन्द्र] 

याद एक-दो मुआशिके* ही रह गए है अब तो बस,      *[प्रेम प्रसंग]        
सैंकड़ो G.B. की लेकिन अबतक उसकी RAM है.

सर भी गंजा हो गया  मेकअप पे उनके खर्च से ,
बाकी अब तो रह गया L.I.C.  Claim  है.

सोचता हूँ कुछ कमाई करलू 'गूगल ऐड' से,
चंद चटखो से मिले कुछ  Pence  तो क्या shame है.

P.C.  अब माशूक है; टीचर भी, कारोबार भी,
अब गुरु, अहबाब, महबूबा तो लगते Damn है.

रहता चांदनी चौक में; रतलाम का वासी हूँ मैं,
इन दिनों करता ब्लोगिंग, हाश्मी surname है.

-मंसूर अली  हाश्मी 

Wednesday, February 9, 2011

वो....ग्ग्या....


वो....ग्ग्या....   

फिर आज इक दिन खो गया,
9 - 2 - 11 हो गया,
लौटा नही है, जो गया.

लो,  नौ-दो-ग्यारह* हो गया,       
पेचीदा कानूनों में फंस,
निर्णय ही देखो खो गया!    

झंडे का वंदन हो गया,
आज़ाद पाके ख़ुद को फिर, 
जागा ज़रा, फिर सो गया.


प्रतिष्ठा अपनी धो गया !
हंगामा मत बरपा करो,
जो हो गया सो हो गया.

'पिरामिडो' के देश का,
वो तो 'इकत्तीस मारखां'     [Ruling since 31 years]
देखो तो फिर भी रो गया.

--mansoorali hashmi

Tuesday, February 8, 2011

बड़ा 'कल' से तो है 'पुर्ज़ा'


बड़ा 'कल' से तो है 'पुर्ज़ा'  

यथा राजा; तथा प्रजा,
यहाँ कर्ज़ा, वहां कर्ज़ा.


दिवाल्या हो के तू घर जा,
चुकाता कौन याँ कर्ज़ा.

प्रकृति  ने नियम बदले !
वही बरसा, जो है गरजा.

नई रस्मो के सौदे है,
नगद 'छड', कार्ड* ही धर जा.   [*Credit]

अभी तक 'दम' है 'गांधी' में,
जो जीना है तो यूं मरजा.

जो अंतरात्मा मुर्दा,
डुबो दे जिस्म क्या हर्जा?

कुंवा है इक तरफ खाई,
जहां चाहे वहां मुड़ जा.

न दाया देख न बायाँ 
जहां सत्ता, वही मुड़ जा.

है 'BIG SPECTRUM' दुनिया,
जो जी में आये वो कर जा.

भले जन्नत हो क़दमो में,
है दूजा ही तेरा* दर्जा.      *[औरत]

=====================

"आधिकारिक सूचना"

करे गर बात हक़* की तो,       [ *अधिकार/ R.T.I. ]
तू पीछे उसके ही पड़ जा,
खुलासा होने से पहले,
'अदलिये'* से भी  तू जुड़ जा.     [*Judiciary ]

mansoorali hashmi

Friday, January 28, 2011

'वो-ही-वो'


[अली सय्यद साहब के ब्लॉग  "उम्मतें'' पर ..

तू ही तू : तेरा ज़लवा दोनों जहां में है तेरा नूर कौनोमकां में है.....


में स्त्री गौरव  गाथा का ज़िक्र  पढ़ कर मुझे भी अपनी  'वो-ही-वो'  याद आगई और ये रच गया है....  ]  

'वो-ही-वो'

[राज़ की बातें] 

रात को वो मैरे बिस्तर पर सोती है,
दिन में; मैं उसके बिस्तर पर सोता हूँ,
दोनों बिस्तर अलग ठिकानों पर लगते,
खर्राटे फिर भी डर-डर के भरता हूँ .
वो पढ़ती * रहती; मैं लिखता रहता हूँ!     *[धार्मिक किताबे]
वो छुपती है और मैं 'छपता' रहता हूँ. 

थक गए घुटने तो अब  कुर्सी  पाई ,
वर्ना अब तक चरणों में रहती आयी !
वो तो मैं ही कुछ ऊंचा अब सुनता हूँ,
चिल्लाने की उनको आदत कब भायी !
वो रोती तो  मैं हंस देता था पहले,
अब वो हंसती और मैं रोता रहता हूँ.



नही हुए बूढ़े, लेकिन अब पके हुए है,
55-62  सीढ़ी चढ़ कर थके हुए है ,
पहले आँखों से बाते कर लेते थे,
अबतो चश्मे दोनों जानिब चढ़े हुए है.
नज़र दूर की अब मैरी कमज़ोर हुई तो,
बस 'वो-ही-वो' हर सू अब तो दिखा किये है.

-मंसूर अली  हाश्मी 

Thursday, January 27, 2011

post blog on mobile

MY POSTS PUBLISHED AT FOLLOWING SITE WILL NOW BE  AVAILABLE ON MOBILES TOO.
http://aatm-manthan.com          

--
mansoorali hashmi
mobile no.  09893833286