उसको मैं कैसा समझता था, वो कैसा निकला !
जो कलंदर नज़र आता था, सिकंदर निकला.
शांत एसा था कि तल्लीन 'ऋषि' हो जैसे,
और बिफरा तो 'सुनामी' सा समंदर निकला.
यूं 'उछल-कूद' की आदत है सदा से उसमे,
उसके पुरखे को जो खोजा तो वो बन्दर निकला.
'साब' बाहर है, मुलाकात नहीं हो सकती,
'Raid' आई तो बिचारा वही घर पर निकला.
उम्र भर जिसको संभाले रखा हीरे की तरह,
वक्ते मुश्किल जो निकाला तो वो पत्थर निकला.
हम 'अनुबोम्ब' तो रखते ही है, फौड़ेंगे उसे,
'भिनभिनाता हुआ, इक पास से 'मच्छर' निकला.
mansoor ali hashmi
6 comments:
.... इस मच्छर की तो :)
जितना बाहर था वो उतना ही अन्दर निकला,
जो कलंदर नज़र आता था, सिकंदर निकला.
बहुत खूब जनाब...
मंसूर भाई, आप का जवाब नहीं। तंज निखरता जा रहा है। बहुत महीन व्यंग्य तक जा रहे हैं आप।
वाक़ई, दिनेशजी सही कह रहे हैं। एकदम सहमत हूँ। इस ग़ज़ल में
सचमुच कमाल की तंजनिगारी है। कायम रखिए इस विधा में लिखना।
बहुत कटीला!!
सारगर्भित पोस्ट के लिए बधाई।
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