Saturday, June 25, 2011

Illusion !


उसको मैं कैसा समझता था, वो कैसा निकला !

जितना बाहर था वो उतना ही अन्दर निकला,
जो  कलंदर नज़र आता था, सिकंदर निकला.

शांत एसा था कि  तल्लीन 'ऋषि' हो जैसे, 
और  बिफरा तो 'सुनामी' सा समंदर निकला.

यूं 'उछल-कूद' की आदत है सदा से उसमे, 
उसके पुरखे को जो खोजा तो वो बन्दर निकला.

'साब' बाहर है, मुलाकात नहीं हो सकती,
'Raid'  आई तो बिचारा वही घर पर निकला.

उम्र  भर जिसको संभाले रखा हीरे की तरह,
वक्ते मुश्किल जो निकाला तो वो पत्थर निकला.



हम 'अनुबोम्ब' तो रखते ही है, फौड़ेंगे उसे,
'भिनभिनाता हुआ, इक पास से 'मच्छर' निकला. 



mansoor ali hashmi 

6 comments:

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून said...

.... इस मच्छर की तो :)

वीना श्रीवास्तव said...

जितना बाहर था वो उतना ही अन्दर निकला,
जो कलंदर नज़र आता था, सिकंदर निकला.

बहुत खूब जनाब...

दिनेशराय द्विवेदी said...

मंसूर भाई, आप का जवाब नहीं। तंज निखरता जा रहा है। बहुत महीन व्यंग्य तक जा रहे हैं आप।

अजित वडनेरकर said...

वाक़ई, दिनेशजी सही कह रहे हैं। एकदम सहमत हूँ। इस ग़ज़ल में
सचमुच कमाल की तंजनिगारी है। कायम रखिए इस विधा में लिखना।

Udan Tashtari said...

बहुत कटीला!!

डॉ० डंडा लखनवी said...

सारगर्भित पोस्ट के लिए बधाई।