"कोई पत्थर से न मारे मैरे दीवाने को"---इंटर-नेट
[अन्तर्जाल और ब्लोगिन्ग पर लेखकीय ज़िम्मेदारी का ज़िक्र पढ़ कर- दिनेशराय द्विवेदीजी की आज की पोस्ट से प्रेरित होकर]
अन्तर्जाल पर अन्तर्द्वन्द के शिकार लोगो की सन्ख्या का तेज़ी से बढ्ना!अन्तर्जाल की कामयाबी ही तो है।स्वयँ का परिचय करवाने को लालायित लोग अगर ये ज़िद न रखे किउन्हे फ़ौरन ही साहित्य्कार का दर्जा मिल जाये, तो वे अधिक सहज हो जाएंगे,दिल की बात ज़्यादा खुल कर कह पाएंगे।
जब आप 'जाल' मे फ़ंसे हुए ही है, तो लाचारी है कि,कुछ पत्थर भी झेलने पड़ जाए।ये फ़ंसने का चुनाव भी तो आप ही ने किया है,आपथोड़ा धीरज धर जाए।
क़ैद की शर्ते [साहित्य का तक़ाज़ा] तो पूरा करना पड़ेगा,उचित शब्दो का प्रयोग कर, संयमित भी होना पड़ेगा,जब तक कि अंतर्द्वंदों से मुक्त, साहित्य के असीमित आकाश मे,उन्मुक्त होकर, ''उड़न-तश्तरी''* बन निर्बाध गति से उड़ान भर सको……
*समीर लालजी
-मन्सूर अली हाश्मी
Tuesday, June 30, 2009
Monday, June 29, 2009
गुलचीं से फरयाद
''खुशफहमी'' समीर लालजी के दुःख पर [२८.०६.०९ की पोस्ट पर]
चिडियों को अच्छा न लगा,
आपका वातानुकूलित बना रहना,
वें सोचती थी; गुस्साएगे आप,
निकल आयेंगे बगियाँ में,
जब कुछ फूल नष्ट होने पर भी आप न गुस्साए,
और न ही बाहर आये,
तब वे ही गुस्सा गयी.....
वें मिलने आप से आई थी,
फूलो से नहीं,
आपने गर्मजोशी नहीं दिखाई,
अनुकूलित कमरे में,
मन में भी ठंडक भर ली थी आपने.
ऎसी ही उदासीनता का शिकार,
आज का मनुष्य हुआ जा रहा है,
अपना बगीचा उजड़ जाने तक.
काश! चिडियाएँ,
हमारा व्यवहार समझ पाती.
-मंसूर अली हाशमी
litrature, politics, humourous
Between the Lines
Thursday, June 11, 2009
Between The Lines
अजित वडनेरकरजी की आज की पोस्ट "शब्दों का सफर" पर ' हज को चले जायरीन' पढ़ कर...
सवारी शब्दों पर
सफ़र दर सफ़र साथ चलते रहे ,
श-ब-द अपने मा-अ-ना बदलते रहे.
पहाड़ो पे जाकर जमे ये कभी,
ढलानों पे आकर पिघलते रहे.
कभी यात्री बन के तीरथ गए,
बने हाजी चौला बदलते रहे.
धरम याद आया करम को चले,
भटकते रहे और संभलते रहे.
[निहित अर्थ में शब्द का धर्म है,
कि सागर भी गागर में भरते रहे.
''अजित'' ही विजीत है समझ आ गया,
हर-इक सुबह हम उनको पढ़ते रहे.]
-मंसूर अली हाशमी
सवारी शब्दों पर
सफ़र दर सफ़र साथ चलते रहे ,
श-ब-द अपने मा-अ-ना बदलते रहे.
पहाड़ो पे जाकर जमे ये कभी,
ढलानों पे आकर पिघलते रहे.
कभी यात्री बन के तीरथ गए,
बने हाजी चौला बदलते रहे.
धरम याद आया करम को चले,
भटकते रहे और संभलते रहे.
[निहित अर्थ में शब्द का धर्म है,
कि सागर भी गागर में भरते रहे.
''अजित'' ही विजीत है समझ आ गया,
हर-इक सुबह हम उनको पढ़ते रहे.]
-मंसूर अली हाशमी
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Comments[given]
Tuesday, May 19, 2009
उल्टी गिनती …
उल्टी गिनती
चुनाव नतीजे के पश्चात्……"अब विश्लेशन करना है" प्रस्तुत है,
क्रप्या पिछ्ली रचना "अब गिनती करना है" के सन्दर्भ मे देखे…
सोच में किसके क्या था अब यह गिनती करली है,
शौच में क्या-क्या निकला यह विश्लेशन करना है।
सिर पर बाल थे जिसके, वह तो बन बैठे सरदार,
औले गिर कर फ़िसल गये, विश्लेशन करना है।
'वोट' न मिल पाये, ये तो फिर भी देखेंगे,
'वाट' लगी कैसे आखिर! विश्लेशन करना है।
सब मिल कर सैराब करे यह धरती सबकी है,
फ़सल पे हो हर हाथ यह विश्लेशन करना है।
'अपने ही ग्द्दार', यही इतिहास रहा लेकिन,
'कौन थे ज़िम्मेदार', यही विश्लेशन करना है…।
-मन्सूर अली हाश्मी
चुनाव नतीजे के पश्चात्……"अब विश्लेशन करना है" प्रस्तुत है,
क्रप्या पिछ्ली रचना "अब गिनती करना है" के सन्दर्भ मे देखे…
सोच में किसके क्या था अब यह गिनती करली है,
शौच में क्या-क्या निकला यह विश्लेशन करना है।
सिर पर बाल थे जिसके, वह तो बन बैठे सरदार,
औले गिर कर फ़िसल गये, विश्लेशन करना है।
'वोट' न मिल पाये, ये तो फिर भी देखेंगे,
'वाट' लगी कैसे आखिर! विश्लेशन करना है।
सब मिल कर सैराब करे यह धरती सबकी है,
फ़सल पे हो हर हाथ यह विश्लेशन करना है।
'अपने ही ग्द्दार', यही इतिहास रहा लेकिन,
'कौन थे ज़िम्मेदार', यही विश्लेशन करना है…।
-मन्सूर अली हाश्मी
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Between the Lines
Friday, May 8, 2009
अब गिनती करना है......
अब गिनती करना है......
अजित वडनेरकर जी की आज की पोस्ट 'पशु गणना से.चुनाव तक' .....से प्रभावित हो कर:-
बोल घड़े में डाल चुके अब गिनती करना है ,
पोल खुलेगी जल्दी ही, अब गिनती करना है.
सब ही सिर वाले तो सरदार बनेगा कौन?
दार पे चढ़ने वालों की अब गिनती करना है.
एम् .पी. बन के हर कोई उल्टा [p.m.] होना चाहें,
किसकी लगती वाट, अब गिनती करना है.
जल धरती का सूख रहा, हम बौनी कर बैठे!
फसल पे कितने हाथ? अब गिनती करना है.
देख लिया कंधार , अब अफज़ल को देख रहे,
दया - धरम फिर साथ?, अब गिनती करना है!!!
-मंसूर अली हाश्मी
अजित वडनेरकर जी की आज की पोस्ट 'पशु गणना से.चुनाव तक' .....से प्रभावित हो कर:-
बोल घड़े में डाल चुके अब गिनती करना है ,
पोल खुलेगी जल्दी ही, अब गिनती करना है.
सब ही सिर वाले तो सरदार बनेगा कौन?
दार पे चढ़ने वालों की अब गिनती करना है.
एम् .पी. बन के हर कोई उल्टा [p.m.] होना चाहें,
किसकी लगती वाट, अब गिनती करना है.
जल धरती का सूख रहा, हम बौनी कर बैठे!
फसल पे कितने हाथ? अब गिनती करना है.
देख लिया कंधार , अब अफज़ल को देख रहे,
दया - धरम फिर साथ?, अब गिनती करना है!!!
-मंसूर अली हाश्मी
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Friday, April 24, 2009
Untold...!
रिहाई के बाद- वरूण
# होश में ही बक रहा हूँ, सुन लो अब,
लाल गुदरी का हूँ, मैं लाला नही हूँ।*
* [बक रहाहूँ जुनूँ में क्या-क्या कुछ,
कुछ न समझे खुदा करे कोई।]-ग़ालिब
#- मेहरबानी वह भी कांटो पर करूँ?
पाऊँ के ग़ालिब का मैं छाला नही हूँ।*
*कांटो की ज़ुबा सूख गयी प्यास से यारब,
एक आब्ला-ए- पा रहे पुर-खार में आवे।]- ग़ालिब
-मंसूर अली हाश्मी.
# होश में ही बक रहा हूँ, सुन लो अब,
लाल गुदरी का हूँ, मैं लाला नही हूँ।*
* [बक रहाहूँ जुनूँ में क्या-क्या कुछ,
कुछ न समझे खुदा करे कोई।]-ग़ालिब
#- मेहरबानी वह भी कांटो पर करूँ?
पाऊँ के ग़ालिब का मैं छाला नही हूँ।*
*कांटो की ज़ुबा सूख गयी प्यास से यारब,
एक आब्ला-ए- पा रहे पुर-खार में आवे।]- ग़ालिब
-मंसूर अली हाश्मी.
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Sunday, April 12, 2009
A True Lie/सच्चा झूठ
सच्चा झूठ
एक बत्ती कनेक्शन दिए है,
जिनके घर में न जलते दीये है.
चाक कपडे, फटे पाँव लेकिन,
होंठ हमने मगर सी लिए है.
हम न सुकरात बन पाए लेकिन,
ज़हर के घूँट तो पी लिए है.
सच की सूली पे चढ़ के भी देखा,
मरते-मरते मगर जी लिए है.
हाथ सूँघों हमारे ऐ लोगों,
हमरे पुरखो ने भी 'घी' पिये है.
'सच्चे-झूठो' की हमने कदर की,
'कुछ' मिला है तो 'कुछ' तो दिए है.
-मंसूर अली हाश्मी
एक बत्ती कनेक्शन दिए है,
जिनके घर में न जलते दीये है.
चाक कपडे, फटे पाँव लेकिन,
होंठ हमने मगर सी लिए है.
हम न सुकरात बन पाए लेकिन,
ज़हर के घूँट तो पी लिए है.
सच की सूली पे चढ़ के भी देखा,
मरते-मरते मगर जी लिए है.
हाथ सूँघों हमारे ऐ लोगों,
हमरे पुरखो ने भी 'घी' पिये है.
'सच्चे-झूठो' की हमने कदर की,
'कुछ' मिला है तो 'कुछ' तो दिए है.
-मंसूर अली हाश्मी
Friday, April 10, 2009
OFTEn /अक्सर
अक्सर
में अक्सर कामरेडो से मिला हूँ ,
में अक्सर नॉन -रेडो से मिला हूँ. [जिन्हें अपने ism [विचार -धारा से सरोकार नही रहा]
केसरिया को बना डाला है भगवा,
में अक्सर रंग-रेजो से मिला हूँ. [रंग-भेद/धर्म-भेद करने वाले]
मिला हूँ खादी पहने खद्दरो से,
में अक्सर डर-फरोशो से मिला हूँ. [ अल्प-संख्यकों को बहु-संख्यकों से भयाक्रांत रखने वाले]
मिला हूँ पहलवां से, लल्लुओं से,
में अक्सर खुद-फरेबो से मिला हूँ. [दिग्-भर्मित]
मिला हूँ साहबो से बाबूओ से,
में अक्सर अंग-रेजो से मिला हूँ.
न मिल पाया तो सच्चे भारती से,
वगरना हर किसी से में मिला हूँ.
*
अक्सर*= यानी बहुधा , सारे के सारे नही ! यह व्याख्या भी कानून-विदो के संगत की सीख से एहतियातन
अग्रिम ज़मानत के तौर पर कर दी है - वरना , ब्लागर डरता है क्या किसी से?
-मंसूर अली हाशमी
में अक्सर कामरेडो से मिला हूँ ,
में अक्सर नॉन -रेडो से मिला हूँ. [जिन्हें अपने ism [विचार -धारा से सरोकार नही रहा]
केसरिया को बना डाला है भगवा,
में अक्सर रंग-रेजो से मिला हूँ. [रंग-भेद/धर्म-भेद करने वाले]
मिला हूँ खादी पहने खद्दरो से,
में अक्सर डर-फरोशो से मिला हूँ. [ अल्प-संख्यकों को बहु-संख्यकों से भयाक्रांत रखने वाले]
मिला हूँ पहलवां से, लल्लुओं से,
में अक्सर खुद-फरेबो से मिला हूँ. [दिग्-भर्मित]
मिला हूँ साहबो से बाबूओ से,
में अक्सर अंग-रेजो से मिला हूँ.
न मिल पाया तो सच्चे भारती से,
वगरना हर किसी से में मिला हूँ.
*
अक्सर*= यानी बहुधा , सारे के सारे नही ! यह व्याख्या भी कानून-विदो के संगत की सीख से एहतियातन
अग्रिम ज़मानत के तौर पर कर दी है - वरना , ब्लागर डरता है क्या किसी से?
-मंसूर अली हाशमी
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Politics-Ideological crisis
S H O E S
उड़ती हुई गाली
निशाना चूक कर भी जीत जाना,
अजब अंदाज़ है तेरा ज़माना.
चलन वैसे रहा है ये पुराना,
मसल तब ही बनी है ''जूते खाना''.
बढ़ी है बात अब शब्दों से आगे,
अरे Sir ! अपने सिर को तो बचाना.
कभी थे ताज ज़ीनत म्यूजियम की,
अभी जूतों का भी देखा सजाना.
कभी इज्ज़त से पहनाते थे जिसको#,
बढ़ी रफ़्तार तो सीखा उडाना.
शरम से पानी हो जाते थे पहले,
अभी तो हमने देखा मुस्कुराना.
# जूतों का हार बना कर
-मंसूर अली हाशमी
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Dirty Politics
Thursday, April 2, 2009
One Over
एक ओव्हर {यानि ६ अलग-अलग बोल}
१-तब गलत बोल बुरे होते थे,
अब गलत ball बड़े होते है,
२-तब 'पलट बोल' के बच जाते थे,
अब तो '' पलटे '' को छका [sixer] देते है .
३-अब तो बोलो की कदर ही क्या है,
तब तो सिर* पर भी बिठा लेते थे.
४-बोल - noBall में घटती दूरी,
जैसे गूंगो के बयाँ होते है.
५-तारे* बोले तो ग्रह [वरुण] चुप क्यों रहे?
घर के बाहर भी गृह [cell] होते है.
६-dead बोलो पे भी run-out* है,
थर्ड अम्पायर [तीसरा खंबा]* कहाँ होते है?
*[नरीमन कांट्रेक्टर-इंडियन कैप्टेन]
* बड़े नेता
* बच निकलना
*न्याय-पालिका
मंसूर अली हाशमी
१-तब गलत बोल बुरे होते थे,
अब गलत ball बड़े होते है,
२-तब 'पलट बोल' के बच जाते थे,
अब तो '' पलटे '' को छका [sixer] देते है .
३-अब तो बोलो की कदर ही क्या है,
तब तो सिर* पर भी बिठा लेते थे.
४-बोल - noBall में घटती दूरी,
जैसे गूंगो के बयाँ होते है.
५-तारे* बोले तो ग्रह [वरुण] चुप क्यों रहे?
घर के बाहर भी गृह [cell] होते है.
६-dead बोलो पे भी run-out* है,
थर्ड अम्पायर [तीसरा खंबा]* कहाँ होते है?
*[नरीमन कांट्रेक्टर-इंडियन कैप्टेन]
* बड़े नेता
* बच निकलना
*न्याय-पालिका
मंसूर अली हाशमी
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