[ समीर लाल जी के लेख ...... स्पेस- एक तलाश!!!! से प्रेरित होकर....] ढूँदते-ढूँदते...... |
पत्थरों का शहर, पत्थरों के है घर,
'चौड़े' हम और सकड़ी बड़ी रहगुज़र !
नक्श पत्थर पे तहरीर कैसे करूं?
http://aatm-manthan.com
तंग रस्ते यहाँ, आदमी तंग नज़र,
हम भी पहुंचे कहाँ घूमते-घूमते.
ठेलती भीड़ है, कुछ इधर-कुछ उधर,
पार लग ही गए कूदते - कूदते.
शोर बाहर था, सन्नाटा अन्दर मिला,
जब टटोला तो हर सिम्त पत्थर मिला.
बुझ गयी है नज़र घूरते-घूरते.
[सब कहा जा चुका है तो अब क्या लिखू,]
कुछ खरोचा तो, नाख़ून हुए है लहू,थक गया मैं 'जगह'* ढूँदते-ढूँदते. *[space]
--mansoor ali hashmi
4 comments:
चौड़े' हम और सकड़ी बड़ी रहगुज़र
-हा हा!! क्या खूब नजर डाली मंसूर साहब!! :)
शानदार!
बात तो दमदार है ही, सदा की तरह
शिल्प भी कमाल का है।
नहीं ढूँढा किसी को
तो मिल गए तुम
मिल जाता न जाने कौन-कौन
ढूँढते-ढूँढते
आपकी यह रचना जोरदार तो है ही, तीन पंक्तियोंवाली ऐसी रचना उर्दू संसार में यदा-कदा ही देखने को मिली। सचमुच में शिल्प कमाल का है।
तंग होती जा रही है आज हमारी सोच , जिसमें अपनों के विचारों का भी समावेश नहीं ! अहंकार हमारा पषित होकर हमें गुब्बारे की तरह फुला रहा है ! लेकिन इस फूले हुए गुब्बारे का अस्तित्व है ही कितनी देर का ??
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