'लक्ष्मी' की चाह ने कई 'उल्लू' बना दिये !
'अठ-नम्बरी' ने बेट से छक्के छुड़ा दिये.
'राजा' ने बिना-तार* भी छेड़े करोड़ों राग, [*wireless]
'अर्थो' की सब व्यवस्था के बाजे बजा दिये.
'आदर्श हो गए है, हमारे flat* अब, [*ध्वस्त]
'ऊंचाई' पाने के लिए ख़ुद को गिरा दिये.
'दर्शन' को जिसके होते हज़ारो कतारबद्ध!
वाणी के बाण से कई मंदिर* ढहा दिये. [*अनुशासनिक आदर्श]
mansoor ali hashmi
5 comments:
वाह कविता तो क्रिकेटमयी हो गई
आदरणीय मंसूर अली हाशमी चचाजान
आदाब अर्ज़ है !
आपकी ग़ज़ल - हज़ल कोई भी रचना पढ़ें और , पढ़ते - पढ़ते अपने आप ही चेहरे पर मुस्कुराहट न आए … ऐसा हो ही नहीं सकता ।
'भज्जी' ने 'kiwi' बाल के भजिये बना दिये,
'अठ-नम्बरी' ने बेट से छक्के छुड़ा दिये
और हास्य के पीछे छुपे व्यंग्य की मारक क्षमता देखते ही बनती है ।
आपकी पिछली तमाम पोस्ट्स पढ़ने आता रहा हूं । हां, स्वास्थ्य और नेट समस्या सहित कुछ व्यस्तताओं के चलते प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं कर पाया । और सच तो यह है कि आपकी रचनाएं मूल्यांकन की सीमाओं से बहुत आगे है , नमन स्वीकारें !
… और हां , आपको सपरिवार ईद मुबारक !
- राजेन्द्र स्वर्णकार
शब्दों का अनूठा प्रयोग करना आप की खूबी बन गई है।
गहरा व्यंग ! मारक शब्द !
ईद की मुबारकबाद क़ुबूल फरमाइए !
बहुत खूब। ईद की हार्दिक शुभकामनाएं।
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