Monday, May 31, 2010

आलूबड़ा



अजित वडनेरकर जी के 'शब्दों के सफ़र'  पर आज ३१-०५-१० को ये नाश्ता मिला :-
[
इसको 'बड़ा' बन दिया इन्सां की भूख ने, 

'आलू' वगरना ज़ेरे ज़मीं खाकसार था.]


आलूबड़ा 

छोटा नही पसंद, 'बड़ा' खा रहे है हम,
खाके, पचाके 'छोटा' ही बतला रहे है हम.


घर है, न है दुकान, सड़क किसके बाप की!
'वट' वृक्ष बनके फैलते, बस जा रहे है हम.

'चौड़े' गुजर रहे है क्यों  'पतली गली' से अब!
कब से इसी पहेली को सुलझा रहे है हम.

कुछ इस तरह से कर लिया फाकों का अब इलाज,
मजबूरियों को पी लिया, ग़म खा रहे है हम.

इसको सराय मान के करते रहे बसर,
थक हार कर अखीर को घर जा रहे है हम.

mansoorali hashmi

17 comments:

kunwarji's said...

वाह!क्या बात है जी....

कुंवर जी,

दिनेशराय द्विवेदी said...

बहुत खूब, आज का नाश्ता छूट गया। वडनेरकर जी के यहाँ जाते हैं।

Rajeev Nandan Dwivedi kahdoji said...

चलिए मुख्या बात थी कि फ़ाकाकशी से पीछा छूटे !!

Sulabh Jaiswal "सुलभ" said...

छोटा नही पसंद, 'बड़ा' खा रहे है हम...

जी आगे कहने की जरूरत नहीं है. बहुत खूब कही आपने.

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

घर है, न है दुकान, सड़क किसके बाप की!
'वट' वृक्ष बनके फैलते, बस जा रहे है हम.


'चौड़े' गुजर रहे है क्यों 'पतली गली' से अब!
कब से इसी पहेली को सुलझा रहे है हम.

Bahut Sundar !

Udan Tashtari said...

बहुत खूब!! वाह!

घर है, न है दुकान, सड़क किसके बाप की!
'वट' वृक्ष बनके फैलते, बस जा रहे है हम.

डॉ० डंडा लखनवी said...

छोटा नही पसंद, 'बड़ा' खा रहे है हम,
खाके, पचाके 'छोटा' ही बतला रहे है हम.
--------------------------------
वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह, वाह।
क्या खूब बड़े पर गई है आपकी निगाह॥
अति सुन्दर.............
सद्भावी- डॉ० डंडा लखनवी

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार said...

वाह जनाब !
रचना की भूमिका ही शानदार शे'र द्वारा प्रस्तुत की है ।
"इसको 'बड़ा' बन दिया इन्सां की भूख ने,
'आलू' वगरना ज़ेरे ज़मीं खाकसार था"
आपके यहां आकर तबीअत बहल जाती है ।
हमने तो शस्वरं पर आपको सस्म्मान स्थान दिया हुआ है , कभी तशरीफ़ फ़रमाएं ।
- राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं

अरुणेश मिश्र said...

स्वादिष्ट रचना ।

अरुणेश मिश्र said...

स्वादिष्ट रचना ।

Prem Farukhabadi said...

इसको सराय मान के करते रहे बसर,
थक हार कर अखीर को घर जा रहे है हम.

बहुत सुंदर. वाह!क्या बात है

दीपक 'मशाल' said...

थक हार कर अखीर को घर जा रहे हैं हम.. उम्दा हज़ल..

Mansoor ali Hashmi said...

@दीपक मशाल
आत्म-मंथन पर तशरीफ लाने के लिए शुक्रिया. आपके प्रोफाइल से पता लगा कि आपको कस्तूरी की तलाश है, उसकी महक आप तक पहुँचाने की कोशिश.....'भद्रता'.... के ज़रिए........
http://mansooralihashmi.blogspot.com/search/label/regret

दिनेश शर्मा said...

इसको सराय मान के करते रहे बसर,
थक हार कर अखीर को घर जा रहे है हम.

वाह!

shikha varshney said...

घर है, न है दुकान, सड़क किसके बाप की!
'वट' वृक्ष बनके फैलते, बस जा रहे है हम
वाह बहुत खूब कहा है ..ब्लॉग पर ज़र्रा नवाजी का बहुत शुक्रिया.

Anonymous said...

जीवन को सत्य को बयाँ करती रचना।
---------
क्या आप बता सकते हैं कि इंसान और साँप में कौन ज़्यादा ज़हरीला होता है?
अगर हाँ, तो फिर चले आइए रहस्य और रोमाँच से भरी एक नवीन दुनिया में आपका स्वागत है।

SATYA said...

अत्यंत सुन्दर।