अजित वडनेरकरजी की आज की पोस्ट "शब्दों का सफर" पर ' हज को चले जायरीन' पढ़ कर...
सवारी शब्दों पर
सफ़र दर सफ़र साथ चलते रहे ,
श-ब-द अपने मा-अ-ना बदलते रहे.
पहाड़ो पे जाकर जमे ये कभी,
ढलानों पे आकर पिघलते रहे.
कभी यात्री बन के तीरथ गए,
बने हाजी चौला बदलते रहे.
धरम याद आया करम को चले,
भटकते रहे और संभलते रहे.
[निहित अर्थ में शब्द का धर्म है,
कि सागर भी गागर में भरते रहे.
''अजित'' ही विजीत है समझ आ गया,
हर-इक सुबह हम उनको पढ़ते रहे.]
-मंसूर अली हाशमी
4 comments:
साहब, बहुत ख़ूब
बहुत खूब लिखा है आपने। मुबारकबाद कुबूल फरमाएं।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
बहुत ख़ूब,आप का ब्लाग अच्छा लगा...बहुत बहुत बधाई....
हाशमी साहब,
आपकी इन भावनाओं की अभिव्यक्ति तो टिप्पणी के रूप में ही पढ़ ली थी, इस रूप में भी इसे देख लिया।
सफर में साथ चलने का
शुक्रिया बहुत बहुत..
Post a Comment