"कोई पत्थर से न मारे मैरे दीवाने को"---इंटर-नेट
[अन्तर्जाल और ब्लोगिन्ग पर लेखकीय ज़िम्मेदारी का ज़िक्र पढ़ कर- दिनेशराय द्विवेदीजी की आज की पोस्ट से प्रेरित होकर]
अन्तर्जाल पर अन्तर्द्वन्द के शिकार लोगो की सन्ख्या का तेज़ी से बढ्ना!अन्तर्जाल की कामयाबी ही तो है।स्वयँ का परिचय करवाने को लालायित लोग अगर ये ज़िद न रखे किउन्हे फ़ौरन ही साहित्य्कार का दर्जा मिल जाये, तो वे अधिक सहज हो जाएंगे,दिल की बात ज़्यादा खुल कर कह पाएंगे।
जब आप 'जाल' मे फ़ंसे हुए ही है, तो लाचारी है कि,कुछ पत्थर भी झेलने पड़ जाए।ये फ़ंसने का चुनाव भी तो आप ही ने किया है,आपथोड़ा धीरज धर जाए।
क़ैद की शर्ते [साहित्य का तक़ाज़ा] तो पूरा करना पड़ेगा,उचित शब्दो का प्रयोग कर, संयमित भी होना पड़ेगा,जब तक कि अंतर्द्वंदों से मुक्त, साहित्य के असीमित आकाश मे,उन्मुक्त होकर, ''उड़न-तश्तरी''* बन निर्बाध गति से उड़ान भर सको……
*समीर लालजी
-मन्सूर अली हाश्मी
5 comments:
सहज होना ही तो सब से बड़ी बात है।
आभार कहता चलूँ. :)
सही फ़रमा रहे हैं
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विज्ञान । HASH OUT SCIENCE
बहुत सच्ची बात कही है...
नीरज
लोग यह भी भलिभांति जान लें कि लोकप्रिय होना और साहित्यकार होना दोनों अलग बात हैं साहित्य में भी ऐसे लोग हैं जो लोकप्रिय तो हैं लेकिन साहित्य कार नहीं यह एक लम्बी साधना है और इसे साधना कठिन है .लोगों को यह भी समझना है कि वे लोकप्रिय होने के लिये भी "कुछ भी" न लिखें
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