Tuesday, 30 December, 2008
मिर्ज़ा ग़ालिब तो "गालिया खाके बे मज़ा न हुआ" वाली तबियत के मालिक थे, अब जो घुघूती जी ने गालियों वाला सोपान खोला है, रोचक बनता जा रहा है. गालियों के उदगम के नए-नए क्षेत्र उजागर हो रहे है. परंपरागत के अतिरिक्त सामंतिक, मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, लिंग-भेदी वगेरह -वगेरह. मैंने भी गालियों के सन्दर्भ में अपने ब्लॉग ''यथार्थवादिता'' में धार्मिक और सामाजिक असहिष्णुता को लेकर चल रहे 'गाली-युद्ध' का ज़िक्र किया था, जो इस तरह था:
[आप-साहब, श्रीमान, जनाब, महाशय और शिष्टाचारी रूपी सारे वह शब्द हम त्याग दे जिसे बोलते समय हमारा आशय सद नही होता। सदाशयताका विलोप तो जाने कब से हो गया। क्यों न हम यथार्थवादी बन सचमुच जो शब्द हमारी सोच में है, तीखे, भद्दे, गन्दे, गालियों से युक्त, विषयुक्त परंतु कितने आनंद दायक जब हमें उसे प्रयोग करने का कभी सद अवसर प्राप्त होता है।क्यों न हम यह विष वमण कर दे, और इसे तर्क संगत साबित करने के लिये, इतिहास के गर्त मे सोये दुराचारो, अनाचारो, अत्याचारो के गढ़े मुर्दे बेकफ़न कर दे! अच्छा ही होगा, हमें बद हज़मी से भी ज़्यादा कुछ होगया है, हमारा सहनशील पाचक मेदा अलसर ग्रस्त हो गया है! और मुश्किल यह है कि हमें लगातार तीखे मिर्च-मसाले खिलाये जा रहे है-- धर्म के, दीन के, स्वर्निम इतिहास की अस्मिता के नाम पर,जबकि नैतिक पतन के इस दौर में ये शब्द अर्थ-हीन होते जा रहे है। मज़हब की अफ़ीम से , नींद आ भी जाये परन्तु 'अल्सर' तो दुरस्त नही होगा। इस अल्सर को कुरैद कर काट कर उसमें से अपशब्दो को बह लेने दो। इसमें मरने का तो डर है, परन्तु अभी जो स्थिति है उससे बेह्तर है। मैने तो सभ्य बनने की कौशिश में शिष्टाचार का जो आवरण औढ़ रखा है उसमें गालियां भी दुआए बन कर प्रवेश होती है। परन्तु अप शब्दों का मैरे पास भी टोटा नही, छोटपन दिखाने के लिये मेरा कद भी आप से कम छोटा नही। शब्दों के मेरे पास वह बाण है कि धराशायी कर दूंगा तमाम कपोल-कल्पित मान्यताओ को, वीरान इबादत गाहो को,परन्तु नमूने की कुछ ही बानगी परोस कर ही मैं यह दान-पात्र आपके बीच छोड़ना चाह्ता हूँ. इस अवसर को महा अवसर मान कर बल्कि महाभारत जान कर कूद पड़ो]
मेरा यह मानना है की गालियों के उदगम में मूलत: गुस्सा, असहिष्णुता, असंतुष्टि और असहजता ही व्याप्त होती है जिस पर मनुष्य का बस कम होता है. ऐसे में वह गाली वाला अस्त्र सहजता से प्रयुक्त हो जाता है. अगर यह सफल रहा तो सामने वाले को दबा देता है या प्रत्युत्तर में तगड़ा वार् झेलना पड़ता है. अक्सर गाली देने वाला गाली झेलने में कम ही सक्षम होते है.
परम्परानुसार, लिंग-भेद के चलते स्त्री-लिंग ही गालियों की ज़द में अधिकतर आता है, जो हमारे सामाजिक उत्थान के स्तर को दर्शाता है. इसी स्तर की स्थिति ने हमें परेशान किया है की हम ''गाली-पुराण'' पर गंभीरता से चर्चा करनेको उद्वेलित हुए है एक कमेन्ट में 'मीठी'' गाली का भी ज़िक्र आया , अच्छा लगा. यह ''मिठास'' भी मधु-मेह का precaution लेते हुए प्रयोग की जाए तो बेहतर है. यह अस्त्र कम संहारक होता है. एक दान-पात्र ऐसी मीठी गालियों के लिए मैं अपने ब्लोगर साथियो के बीच छोड़ना चाहता हूँ, इसे भर कर नवाजिश फरमाए, इसी बहाने यह बहस और कुछ दूर तक चलने दे.सभी दिखाएँ
-म.हाश्मी .
[आप-साहब, श्रीमान, जनाब, महाशय और शिष्टाचारी रूपी सारे वह शब्द हम त्याग दे जिसे बोलते समय हमारा आशय सद नही होता। सदाशयताका विलोप तो जाने कब से हो गया। क्यों न हम यथार्थवादी बन सचमुच जो शब्द हमारी सोच में है, तीखे, भद्दे, गन्दे, गालियों से युक्त, विषयुक्त परंतु कितने आनंद दायक जब हमें उसे प्रयोग करने का कभी सद अवसर प्राप्त होता है।क्यों न हम यह विष वमण कर दे, और इसे तर्क संगत साबित करने के लिये, इतिहास के गर्त मे सोये दुराचारो, अनाचारो, अत्याचारो के गढ़े मुर्दे बेकफ़न कर दे! अच्छा ही होगा, हमें बद हज़मी से भी ज़्यादा कुछ होगया है, हमारा सहनशील पाचक मेदा अलसर ग्रस्त हो गया है! और मुश्किल यह है कि हमें लगातार तीखे मिर्च-मसाले खिलाये जा रहे है-- धर्म के, दीन के, स्वर्निम इतिहास की अस्मिता के नाम पर,जबकि नैतिक पतन के इस दौर में ये शब्द अर्थ-हीन होते जा रहे है। मज़हब की अफ़ीम से , नींद आ भी जाये परन्तु 'अल्सर' तो दुरस्त नही होगा। इस अल्सर को कुरैद कर काट कर उसमें से अपशब्दो को बह लेने दो। इसमें मरने का तो डर है, परन्तु अभी जो स्थिति है उससे बेह्तर है। मैने तो सभ्य बनने की कौशिश में शिष्टाचार का जो आवरण औढ़ रखा है उसमें गालियां भी दुआए बन कर प्रवेश होती है। परन्तु अप शब्दों का मैरे पास भी टोटा नही, छोटपन दिखाने के लिये मेरा कद भी आप से कम छोटा नही। शब्दों के मेरे पास वह बाण है कि धराशायी कर दूंगा तमाम कपोल-कल्पित मान्यताओ को, वीरान इबादत गाहो को,परन्तु नमूने की कुछ ही बानगी परोस कर ही मैं यह दान-पात्र आपके बीच छोड़ना चाह्ता हूँ. इस अवसर को महा अवसर मान कर बल्कि महाभारत जान कर कूद पड़ो]
मेरा यह मानना है की गालियों के उदगम में मूलत: गुस्सा, असहिष्णुता, असंतुष्टि और असहजता ही व्याप्त होती है जिस पर मनुष्य का बस कम होता है. ऐसे में वह गाली वाला अस्त्र सहजता से प्रयुक्त हो जाता है. अगर यह सफल रहा तो सामने वाले को दबा देता है या प्रत्युत्तर में तगड़ा वार् झेलना पड़ता है. अक्सर गाली देने वाला गाली झेलने में कम ही सक्षम होते है.
परम्परानुसार, लिंग-भेद के चलते स्त्री-लिंग ही गालियों की ज़द में अधिकतर आता है, जो हमारे सामाजिक उत्थान के स्तर को दर्शाता है. इसी स्तर की स्थिति ने हमें परेशान किया है की हम ''गाली-पुराण'' पर गंभीरता से चर्चा करनेको उद्वेलित हुए है एक कमेन्ट में 'मीठी'' गाली का भी ज़िक्र आया , अच्छा लगा. यह ''मिठास'' भी मधु-मेह का precaution लेते हुए प्रयोग की जाए तो बेहतर है. यह अस्त्र कम संहारक होता है. एक दान-पात्र ऐसी मीठी गालियों के लिए मैं अपने ब्लोगर साथियो के बीच छोड़ना चाहता हूँ, इसे भर कर नवाजिश फरमाए, इसी बहाने यह बहस और कुछ दूर तक चलने दे.सभी दिखाएँ
-म.हाश्मी .
2 comments:
मंसूर भाई,
बहुत अच्छा लिखा है। पर पंक्तियाँ टूट रही हैं। इन्हें संपादित कर ठीक कर दें।
mithi gali bhi hoti hai waah ,bahut achha likha hai.
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