कमज़ोरी
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mansoorali hashmi द्वारा 3 दिसंबर, 2008 10:51:00 AM IST पर पोस्टेड #
उनका आंतक फ़ैलाने का दावा सच्चा था,
शायद मेरे घर का दरवाज़ा ही कच्चा था।
पूत ने पांव पसारे तो वह दानव बन बैठा,
वही पड़ोसी जिसको समझा अपना बच्चा था।
नाग लपैटे आये थे वो अपने जिस्मो पर,
हाथो में हमने देखा फूलो का गुच्छा था।
तौड़ दो सर उसका, इसके पहले कि वह डस ले,
इसके पहले भी हमने खाया ही गच्चा था।
जात-धर्म का रोग यहाँ फ़ैला हैज़ा बनकर,
मानवता का वास था जबतक कितना अच्छा था।
-मंसूर अली हाशमी
13 comments:
अब इन फूलों के गुच्छों को फेंक देना चाहिए।
bahut sahi kaha hamara darwaza kachha tha,bahut achhi rachana badhai.
"मानवता का वास था जबतक कितना अच्छा था"
Manavata kaa vaas hota to accha tha... Mujhe to lagta hai yeh rog bada purana ho chala... Mariz ke dam ke saath hi niklega
बहुत सटीक सहमत हूँ .
बहुत सही कहा मन्सूर साहब । मैं आपकी दुकान की तलाश में दो बार भुट्टा बाजार के चक्कर लगा चुका हूं । आपसे मिलने की इच्छा है । मुमकिन हो तो मोबाइल नम्बर 98270 61799 पर घण्टी दीजिए ।
बिलकुल मानवता को ही पुनर्स्थापित करने की जरूरत है।
सही कहा मन्सूर साहब !
what a brilliant thought.....
salute to your words
बहुत ही जागरूक कविता, जो आँखें खोल दे.
ब्लॉग्स पण्डित
शायद मैरे घर का दरवाज़ा ही कच्चा था।
बहुत खूब!!
It's so good & nice. so, i'm going to publish in DAINIK PRASARAN, Ratlam.
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Ratlam.
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उनका आंतक फ़ैलाने का दावा सच्चा था,
शायद मैरे घर का दरवाज़ा ही कच्चा था।
bahut khoob janab. ham jaise naye blaogaro ke liye aapka srajan bahut prerak hai.
kabhi bhopal aaye to ek baar bataye.
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