प्रेरणा/पकोड़ा !
डाँ। माथुर को आज क्लिनिक आधा घन्टा देरी से जाना था, सुनीता का यही आग्रह था। तीन कप चाय और 8-10 पकौड़े बनाने के सम्बंध में जितनी चिन्तित सुनीता दिखी,उससे डाँ माथुर के आश्चर्य में वृद्धि ही हुई। उसे ये बात तो समझ में आ रही थी कि सुनीता के साहित्य लेखन का प्रेरक आज पहली बार घर पर आ रहा था, बल्कि डाँ माथुर ही के आग्रह पर सुनीता ने उसे आज नाश्ते पर निमंत्रण दिया था। आठ बजने में यानि निश्चित समय में अभी पन्द्रह मिनट बाकी थे। घण्टी बजी, सुनीता सहज ही दरवाज़े की तरफ़ लपकी……दूध वाला था। डाँ माथुर मन में बोले ये तो मेरी प्रेरक वस्तु लाया! दो मिनिट बाद पुन: घन्टी बजी, सुनिता उठते-उठते रह गयी, फ़ोन की घन्टी थी, किसी मरीज़ के फ़ोन की। आठ में पांच कम पर पुण: दरवाज़े की घंटी बजी। डाँक्टर ने अब उठना अपनी ज़िम्मेदारी समझा--सब्ज़ी वाला था, डाँ माथुर उसे क्लिनिक पर मिलने का कहने ही वाले थे कि सुनीता आगे बढ़ कर बोल पड़ी, "आईय-आईये" डाँ माथुर ने आश्चर्य चकित भाव से सुनीता को देखा! नयी वेश-भूषा में सुसज्जित आगन्तुक को सोफ़े पर बैठाते हुए पति से बोली,
"आप है श्री राजेश कुमार्।" नमस्ते का आदान-प्रादान हुआ। "चकित हुए ना", अब सुनीता पति से संबोधित थी। "आठवीं तक राजेश मेरा सह्पाठी रहा है, मेरा कलम दोबारा कुछ न रचता अगर इसने उस निबंध प्रतियोगिता में मेरा होसला न बढ़ाया होता, जब क्लास के सारे बच्चे हँस पड़े थे और राजू अकेला ताली बजा रहा था; इतनी ज़ोर से कि सब की हँसी दब गयी।" "किस बात पर?" के जवाब में सुनीता ने बताया कि वह हड़बड़ाहट में ‘बंदर-अदरक’ वाला मुहावरा उल्टा बोल गयी थी।
सब्ज़ी की ठेला गाड़ी पर खड़े-खड़े ग्लास से चाय पीने के आदी राजेश को कीमती चाइनीज़ कप-सॉसर थामने के लिये दोनो हाथ व्यस्त रखते हुए चाय पीने का मज़ा कम ही आ रहा था। उस कीमती वस्तु को संभालने की कौशिश में उसके हाथो की हल्की सी कंपन और उससे उत्पन्न संगीत डाँ माथुर का धयान आकर्षित किये बग़ैर न रह सकी। डाँक्टर माथुर को सुनीता की प्रेरणा ने शायद निराश ही किया था। उनकी कल्पना में उच्च स्तर की साहित्य रचने वाली उसकी पत्नी का 'प्रेरक' [या प्रेमी] भी कोई 'शाह्कार' ही होगा मगर यह ठेले पर सब्ज़ी बेचने वाला राजू ?, शाकाहार निकला। किसी भी सूरत उनके गले नही उतर रहा था। चाय का आखरी घूंट गले से उतारते हुए डाँ माथुर ने यह सोचा फ़िर उस तीखी हरी मिर्च का वह टुकड़ा जो पहले इन्होने अपने पकोड़े में से निकाल लिया था, उठा कर चबा लिया! चाय की मिठास य प्रेरणा के इस अनुपयुक्त लगे पात्र के प्रसंग से उत्पन्न कड़वाहट को दबाने के लिये?
अब डाँ माथुर पर अन्तर्मन से यह दबाव भी था कि घर आये मेहमान से कुछ बातें भी करे, औपचारिक ही सही, आखिरकार एक सवाल बना ही लिया- "राजेशजी आप को साहित्य में तो रूचि होगी ही? "जी हाँ, मै ब्लाँग लिखता हुँ। ''अरे, बापरे!'' यह बोलते हुए अपना सिर थामने के लिये डाँ माथुर ने अपने दोनो हाथ उपर तो उठाये मगर सुनीता से नज़र मिलते ही उसके डर से या सज्जनता वश, अपने उठे हुए हाथो को बाल संवारने के काम में लाते हुए वापस टेबल पर ले आये, धीरे…से। राजेश ख़ामोश ही रहा, उसको शायद डाँ साहब की आश्चर्य मिश्रित टिप्पणी समझ में नही आयी थी। इधर, सुनीता को यह अच्छा लग रहा था कि डाँ माथुर ने स्वयं ही राजेश से बात की शुरुआत की, अब वह निश्चिंत थी कि उसे अधिक बोलना नही पड़ेगा! सुनीता की नज़रों में अपने लिये प्रसंशा देख, डाँ माथुर ने ख़ुद ही बात आगे बढ़ाई, "क्या प्रिय विषय है आपका?" ''सहकार'' राजेश ने उत्तर दिया, "यही सोचता हूँ, यही लिखता हूँ, यही जीता हूँ।
एक तरफ़ तो डाँ माथुर राजेश की इस दार्शनिक सोच पर चकित थे, दूसरी तरफ़ उनका दिमाग़ शब्दों की दूसरी ही गणित में उलझा हुआ था। वह मन ही मन दुहरा रहे थे---शाहकार- शाकाहार- सह्कार ! वह बोल भी पड़ते, सुनीता के गुस्से का डर न होता तो। इस उधेड़-बुन में अगला सवाल यही बन पड़ा कि छपवाते कहाँ हो? "कही नही, ख़ुद के लिये लिखता हूँ, ख़ुद ही पढ़ता हूँ।" , राजेश का विनम्र जवाब था। अब सुनीता पहली बार बोली, "अरे! राजेश, तुमने पहले कभी बताया नही?''
राजेश का जवाब लम्बा न हो यह सोचते हुए, उसके उत्तर देने से पहले ही डाँ माथुर ने जैसे आख़री सवाल के तौर पर पूछ लिया, "भाई कुछ सुनाते भी जाओ।"
"आपका आग्रह है तो सुनिये:-
ज़िन्दगी गर नाव है तो,
हो सके पतवार बन जा,
शाहकारो की बहुलता,
हो सके 'सह्कार' बन जा।“
'बहुत बढ़िया' का कमेन्ट देते हुए डाँ माथुर पानी के बहाने उठ खड़े हुए, राजेश ने भी आझा चाह ली, सुनीता बचे हुए एक पकोड़े पर हाथ साफ़ कर रही थी।
-मन्सूर अली हाशमी