Thursday, April 15, 2010
'सतरंगी यादों के इंद्रजाल: एक ब्लोगर जिनके अंदाज निराले हैं.
litrature, politics, humourous
Introduction by Sulabh jaiswal
Monday, April 12, 2010
नि:शब्द
नि:शब्द!
[अजित वडनेरकर जी की अ-कविता रूपी कविताओं से किंक्रतव्यविमूढ़
होकर............]
अर्थो का क़र्ज़ लाद के अब चल रहे है हम.
शब्दों के कारोबार में कंगाल हो गए,
अर्थो को बेच-बेच के अब पल रहे है हम.
शाश्वत है शब्द, ब्रह्म भी, नश्वर नहीं मगर,
अपनी ही आस्थाओं को अब छल रहे है हम.
तारीकीयों से बचने को काफी चिराग़ था,
हरसूँ है जब चरागां तो अब जल रहे है हम.
तामीर होना टूटना सदियों का सिलसिला,
बस मूक से गवाह ही हर पल रहे है हम.
हम प्रगति के पथ पे है, ऊंची उड़ान पर,
कद्रों* की बात कीजे तो अब ढल रहे है हम.
*मूल्य [values]
mansoorali hashmi
mansoorali hashmi
Thursday, April 8, 2010
मुफ्त की सलाह!
मुफ्त की सलाह!
[शब्दों का सफ़र....की आज [०८.०४.१०.] की पोस्ट
सलाह मश्वरा से सुलह सफाई तक .........से प्रभावित] |
बंद कमरों के मशवरो के स्वरूप,
फैसले जो हुए अमल करना,
शहद पर हक है हुक्मरानों का,
जो बचे उसपे ही बसर करना.
हाँ! सलाह तुमसे भी वो लेंगे ज़रूर,
वैसे तो उनके पास भी है 'थरूर',
दिल के खानों में रखना पौशीदा,
लब पे लाये! नहीं है ख़ैर हुजुर.
एम्बेसेडर, मुशीर बनते है,
बस वही, हाँ जो हाँ में भरते है,
उनकी तस्वीर भी पसंद नही,
जो किसी 'दूसरे' से जुड़ते है.
-मंसूर अली हाशमी
litrature, politics, humourous
Dirty Politics
Saturday, April 3, 2010
बेडमिन्टन/badminton
बेड man -शन [shun ]
SO नया भी है पुराने जैसा,
मर्ज़ उनका है ज़माने जैसा,
अपने साथी को बदल कर दोनों,
खेल पायेंगे दीवाने जैसा!
-मंसूर अली हाशमी
litrature, politics, humourous
sportsmanship
Sunday, March 28, 2010
आज कल / Now a Days
आज कल
ब्लोगेर्स:
छप-छपाना, न हुआ जिनको नसीब,बज़ बज़ाते फिर रहे है इन दिनों.
खुबसूरत जब कोई चेहरा* दिखा, [*फेसबुक पर]
टिपटिपाते फिर रहे है इन दिनों.
M F Husain :
बेच कर घोड़े भी वो सो न सके,
हिन् हिनाते फिर रहे है इन दिनों,
रंग में ख़ुद ने ही डाली भंग थी,
तिलमिलाते फिर रहे है इन दिनों
'सोच' कपड़ो* में भी उरीयाँ हो गयी, [*केनवास पर ]
मुंह छुपाते फिर रहे है इन दिनों.
तब ब्रुश था अब है 'कातर'* हाथ में, [*क़तर देश]
कट-कटाते फिर रहे है इन दिनों.
नंगे पाऊँ, पर ज़मीं तो ठोस थी,
लड़खडाते फिर रहे है इन दिनों.
होश का सौदा किया था शौक़ में,
डगमगाते फिर रहे है इन दिनों.
थी महावत, स्त्री- गज गामिनी,
चलती गाड़ी* से उतरना पड़ गया, *[लालू प्रसाद]
दनदनाते फिर रहे है इन दिनों.
हार नोटों का गले जो पड़ गया*, *[मायावती]
-मंसूर अली हाश्मी
रंग में ख़ुद ने ही डाली भंग थी,
तिलमिलाते फिर रहे है इन दिनों
'सोच' कपड़ो* में भी उरीयाँ हो गयी, [*केनवास पर ]
मुंह छुपाते फिर रहे है इन दिनों.
तब ब्रुश था अब है 'कातर'* हाथ में, [*क़तर देश]
कट-कटाते फिर रहे है इन दिनों.
नंगे पाऊँ, पर ज़मीं तो ठोस थी,
लड़खडाते फिर रहे है इन दिनों.
होश का सौदा किया था शौक़ में,
डगमगाते फिर रहे है इन दिनों.
थी महावत, स्त्री- गज गामिनी,
सूंड उठाये फिर रहे है इन दिनों.
राज-नीति:
राज नारी पहलवानों* पर करे? *[मुलायम सिंह]
बड़बड़ाते फिर रहे है इन दिनों.
चलती गाड़ी* से उतरना पड़ गया, *[लालू प्रसाद]
दनदनाते फिर रहे है इन दिनों.
हार नोटों का गले जो पड़ गया*, *[मायावती]
खड़खड़ाती फिर रही है इन दिनों.
seat की खातिर गवारा SIT भी है, *[मोदी]
shitशिताते फिर रहे है इन दिनों.
Berth कोई खाली होने वाली है? ?
दुम हिलाते फिर रहे है इन दिनों.
झोंपड़ी में पौष्टिक खूराक है*, *[राहुल गांधी]
खटखटाते फिर रहे है इन दिनों.
पार्टी ने छोड़ा*, छोड़ी पार्टी, *[उमा भारती]
दिल मिलाते फिर रहे है इन दिनों.
-मंसूर अली हाश्मी
http://mansooralihashmi.blogspot.in
litrature, politics, humourous
current affairs
Wednesday, March 24, 2010
क्रिकेट की गिरगिट
आदरणीय दिनेश रायजी,
सादर नमस्कार,
महेंद्र नेह जी कि शानदार रचना पर एक गुस्ताखाना हज़ल हो गयी है. दरअस्ल आई.पी.एल मेच देखते-देखते यह पढ़ना-लिखना कार्यरूप ले रहा था.
आपको इस बात का इख्तियार देता हूँ कि इस सठियाई हुई रचना को सिरे से ख़ारिज करदे, edit करदे या approve करदे. आपका जवाब मिलने पर यह सादर नमस्कार,
महेंद्र नेह जी कि शानदार रचना पर एक गुस्ताखाना हज़ल हो गयी है. दरअस्ल आई.पी.एल मेच देखते-देखते यह पढ़ना-लिखना कार्यरूप ले रहा था.
पब्लिश होगी या रद्द.
क्रिकेट की गिरगिट
क्रिकेट के गणित से लेना न कुछ है देना,
चोक्को को लात देकर ,छक्के पकड़तियां है.
सौष्ठव शरीर होवे, मैदान इसलिए है,
मन रंजनो कि खातिर कितनी उछल्तिया है,
उत्साह वर्धनी है, कुछ है कि कामिनी है,
दुस्साहसी भी इनमे, किसकी ये गलतियाँ है.
:
चंचल किशोरियां है,आँखों में मस्तियाँ है,
हाथो में फूल नकली ,छतियाँ धड़कतियां है.
मैदान में खिलाड़ी,दर्शक से खेलती ये ,
क्रिकेट पीछे-पीछे , अगली ये पंक्तियाँ है.
क्रिकेट के गणित से लेना न कुछ है देना,
चोक्को को लात देकर ,छक्के पकड़तियां है.
सौष्ठव शरीर होवे, मैदान इसलिए है,
मन रंजनो कि खातिर कितनी उछल्तिया है,
उत्साह वर्धनी है, कुछ है कि कामिनी है,
दुस्साहसी भी इनमे, किसकी ये गलतियाँ है.
-mansoorali hashmi
http://aatm-manthan.com
-दिनेशराय द्विवेदी:{note: आपकी मंजूरी भी public करदी है- आपको सठियाने में भी ज्यादा साल नहीं बचे!}
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Entertainment
Tuesday, March 23, 2010
कुछ तो है नाम में!
कुछ तो है नाम में!
नाम से धाम* जुड़े उससे तो पहचान मिले,
नाम से काम जो जुड़ जाये तो सम्मान मिले,
श्री बन जाये मति उसको श्रीमान मिले.
'काम' हो जाये सफल उससे तो संतान मिले.
मिलते-मिलते ही मिला करती है शोहरत यारों,
नाम ऊंचा उठे; 'स्वर्गीय' जो उपनाम मिले.
नाम बदले से बदल जाती है तकदीर भी क्या?
भूल* कर बैठे तो 'बाबा' से क्यों इनआम मिले!
नाम बदनाम भी होते हुए देखे हमने,
ख़ाक होते हुए इंसानों के अरमान मिले.
*धाम=स्थान
* भूल= CST को VT कहने की
-मंसूर अली हाश्मी
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What is in a name?
Sunday, March 21, 2010
पड्ताल/INVESTIGATION
पड्ताल/INVESTIGATION
नाम मे रखा क्या है!
कौन तू बता क्या है?
’मन’ है तू सही लेकिन,
’सुर’ मे ये छुपा क्या है.
कौन है तेरा मालिक?
सब का वो खुदा क्या है!
त्रिशूल, चान्द या क्रास,
हाथ पे गुदा क्या है?
फ़िर से तू विचार ले,
नाम से बुरा क्या है.
धर्म से भला है कुछ,
धर्म से बुरा क्या है?
-मन सुर अली हाशमी
http://aatm-manthan.com
नाम मे रखा क्या है!
कौन तू बता क्या है?
’मन’ है तू सही लेकिन,
’सुर’ मे ये छुपा क्या है.
कौन है तेरा मालिक?
सब का वो खुदा क्या है!
त्रिशूल, चान्द या क्रास,
हाथ पे गुदा क्या है?
फ़िर से तू विचार ले,
नाम से बुरा क्या है.
धर्म से भला है कुछ,
धर्म से बुरा क्या है?
-मन सुर अली हाशमी
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What is in a name?
Wednesday, March 17, 2010
गो-डाउन [going down]
गो-डाउन [going down]
[अजित वडनेरकरजी की आज{१७-०३-१०} की पोस्ट गोदाम, संसद या डिपो में समानता से प्रेरित होकर]
''माल'' हमने ''चुन'' के जब पहुंचा दिया गोदाम में.
शुक्रिया का ख़त मिला; ''अच्छी मिली 'गौ' दान में.
पंच साला ड्यूटी देके लौटे, साहब हाथ में,
''दो'' के लगभग के वज़न की बैग थी सामान में.
कोई भंडारी बना तो कोई कोठारी बना,
वैसे तो ताला मिला है, उनकी सब दूकान में.
कितनी विस्तारित हुई 'गोदी' है अब हुक्काम की
शहर पूरा 'गोद में लेना' सुना एलान में.
है वही नक्कार खाना और तूती की सदा,
आ रही है देखिये क्या खुश नवां इलहान में.*
*अब संसद में भी औरतो की दिलकश आवाज़े अधिक ताकत से गूंजने और सुनाई देने की संभावनाएं बढ़ रही है.
-मंसूर अली हाश्मी
http://aatm-manthan.com
[अजित वडनेरकरजी की आज{१७-०३-१०} की पोस्ट गोदाम, संसद या डिपो में समानता से प्रेरित होकर]
''माल'' हमने ''चुन'' के जब पहुंचा दिया गोदाम में.
शुक्रिया का ख़त मिला; ''अच्छी मिली 'गौ' दान में.
पंच साला ड्यूटी देके लौटे, साहब हाथ में,
''दो'' के लगभग के वज़न की बैग थी सामान में.
कोई भंडारी बना तो कोई कोठारी बना,
वैसे तो ताला मिला है, उनकी सब दूकान में.
कितनी विस्तारित हुई 'गोदी' है अब हुक्काम की
शहर पूरा 'गोद में लेना' सुना एलान में.
है वही नक्कार खाना और तूती की सदा,
आ रही है देखिये क्या खुश नवां इलहान में.*
*अब संसद में भी औरतो की दिलकश आवाज़े अधिक ताकत से गूंजने और सुनाई देने की संभावनाएं बढ़ रही है.
-मंसूर अली हाश्मी
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Between the Lines
Friday, March 12, 2010
ज़ुबाँ/ Tongue
ज़ुबाँ / tongue / लेंगुएज
दो धारी तलवार ज़ुबाँ है,
करवाती तकरार ज़ुबाँ है.
मिलवादे तो यार ज़ुबाँ है.
चढ़वादे तो दार* ज़ुबाँ है.
भली-भली जो चीज़े देखे,
रसना भी है,लार ज़ुबाँ है.
नंगे और भूखे* लोगों की,
कुरता भी शलवार ज़ुबाँ है.**
मीठा-मीठा गप-गप करती,
कडवे पे थूँकार ज़ुबाँ है.
बक-बक, झक-झक करती रहती,
कौन कहे लाचार ज़ुबाँ है?
जीभ जिव्हा पर क्यों न चढ़ती?
थोड़ी सी दुशवार ज़ुबाँ है.
अंग्रेजी पर टंग[tongue] बैठी है,
किसकी ये सरकार ज़ुबाँ है.
लप-लप, लप-लप क्यों करती है?
पाकी या फूँफ्कार ज़ुबाँ है.
शब्द अगर न साथ जो देवे,
आँख की एक मिच्कार[winking] ज़ुबाँ है.
समग्रता का यहीं तकाज़ा,
हिंदी ही दरकार ज़ुबाँ है.
दिल की बातें बयाँ करे जो ,
एक यही गमख्वार ज़ुबाँ है.
बटलर भी हिटलर बन जाए!
कितनी अ- सरदार ज़ुबाँ है.
बहरो की सरकार अगर हो,
कितनी ये लाचार ज़ुबाँ है!
गूँगो की सरकार बने तो,
'कान' की पहरेदार ज़ुबाँ है.
बहरे-गूंगे जब मिल बैठे,
फिर तो बस दिलदार ज़ुबाँ है.
सच भी झूठ यही से निकले,
एक ही common द्वार ज़ुबाँ है.
अपनी डफली, राग भी अपना,
आज बनी व्यापार ज़ुबाँ है.
ख़ुद को ही सुनती रहती है,
किसकी परस्तार ज़ुबाँ है?
नीब-जीभ* सब कलम* हो गए,
Net पे अब गुफ्तार ज़ुबाँ है.
कैंची की माफक चलती है,
अपनी तो ''घर-बार'' ज़ुबाँ है.
झूठ-सांच का फर्क मिटाती,
कैसी ये फनकार ज़ुबाँ है.
* दार= फांसी का तख्ता
*भूखे-नंगे= साधन हीन
** ज़ुबान की मदद से ही अपनी कमिया छुपा लेते है.
* नीब-जीभ = ink-pen में लगने वाली
** ज़ुबान की मदद से ही अपनी कमिया छुपा लेते है.
* नीब-जीभ = ink-pen में लगने वाली
* क़लम =कलम करना /काटना/ख़त्म हो जाना.
-मंसूर अली हाश्मी
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